सब कहते हैं कि मरने के बाद कुछ भी साथ नहीं जाता है सब यहीं का यहीं धरा रह जाता है। आदमी खाली हाथ आया था और खाली हाथ चला जाता है लेकिन यह सत्य नहीं है। दुनिया में ऐसी कई बाते हैं, लेकिन वह सत्य नहीं है। आओ जानते हैं कि आदमी जन्म लेता है तो क्या साथ लाता और जब वह मर जाता है तो क्या साथ ले जाता है।
हिन्दू धर्म कहता है कि व्यक्ति जो साथ लाया था वह तो साथ ले ही जाएगा, साथ ही वह भी साथ ले जाएगा जो उसने इस जन्म में अर्जित किया है। क्या साथ लाया था और क्या अर्जित किया है यह जानना जारूरी है।
व्यक्ति जब जन्म लेता है तो अपने साथ तीन चीजें लाता है, 1.संचित कर्म, 2.स्मृति और 3.जागृति। हां एक चौथी चीज भी है और वह है सूक्ष्म शरीर। इसके संबंध में हम बाद में कभी बात करेंगे।
1.क्या है संचित कर्म?
हिंदू दर्शन के अनुसार, मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। संस्कार अर्थात हमने जो भी अच्छे और बुरे कर्म किए हैं वे सभी और हमारी आदतें।
ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियां भी इन पर प्रभाव डालती हैं। ये कर्म 'संस्कार' ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे 'संचित कर्म' कहते हैं।
अब जब व्यक्ति मरता है तो इन्हीं संचित कर्मों में इस जन्म के कर्म भी एकत्रित करके ले जाता है। दरअसल, इन संचित कर्मों में से एक छोटा हिस्सा हमें नए जन्म में भोगने के लिए मिल जाता है। इसे प्रारब्ध कहते हैं। ये प्रारब्ध कर्म ही नए होने वाले जन्म की योनि व उसमें मिलने वाले भोग को निर्धारित करते हैं। फिर इस जन्म में किए गए कर्म, जिनको क्रियमाण कहा जाता है, वह भी संचित संस्कारों में जाकर जमा होते रहते हैं।
2.क्या है स्मृति?
एक प्रतिशत भी लोग नहीं होंगे जो अपने पिछले जन्म की स्मृति को खोलकर यह जान लेते होंगे कि मैं पिछले जन्म में क्या था। प्रत्येक व्यक्ति के पास अपने पिछले और इस जन्म की कुछ खास स्मृतियां संग्रहित रहती हैं। यह मेमोरी कभी भी समाप्त नहीं होती हैं। भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन तुझे अपने अगले और पिछले जन्मों की याद नहीं है। लेकिन मुझे अपने लाखों जन्मों की स्मृति हैं। लाखों वर्ष पूर्व भी तू था और मैं भी था। किस जन्म में तू क्या था यह मैं जानता हूं और अगले जन्म में तू क्या होगा यह भी मैं जानता हूं क्योंकि मैं तेरे संचित कर्मों की गति भी देख रहा हूं।
अत: यह कहना होगा कि जब व्यक्ति जन्म लेता है तो वह अपने पिछले जन्म की स्मृतियां साथ लाता है लेकिन वह धीरे धीरे उन्हें भूलता जाता है। भूलने का अर्थ यह नहीं कि वे स्मृतियां सता के लिए मिट गए। वे अभी भी आपकी हार्ड डिस्क में है लेकिन वह रेम से हट गई है। डी में कहीं सुरक्षित रखी है। इसी तरह जब व्यक्ति मरता है तो वह इस जन्म की भी स्मृतियां बटोरकर साथ ले जाता है।
3.जागृति क्या है?
यह विषय थोड़ा कठिन है। प्रत्येक मनुष्य और प्राणी के भीतर जाग्रति का स्तर अलग अलग होता है। यह उसकी जीवन शैली, संवेदना और सोच पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए हम समझ सकते हैं कि एक कुत्ता मनुष्य कम जागृत है। जैसे एक शराबी व्यक्ति होता है। आपमें बेहोशी का स्तर ज्यादा है तो आप भावना और विचारों के वश में रहकर ही जीवन यापन करेंगे। अर्थात आपके जीवन में भोग, संभोग और भावना ही महत्वपूर्ण होगी।
आप इसे इस तरह समझें की आपमें और पशुओं में क्या खास फर्क है? आप कपड़े पहनते हैं और थोड़ा बहुत सोचते हैं लेकिन आपमें वहीं सारी प्रवृत्तियां हैं जो कि एक पशु में होती है। जैसे ईर्ष्या, क्रोध, काम, भूख, लालच, मद आदि सभी तरह की प्राथमिक प्रवृत्तियां। प्राणियों को प्राणी इसलिए कहते हैं कि वह प्राण के स्तर पर भी जीते और मर जाते हैं। उनमें मन ज्यादा सक्रिय नहीं रहता है। मनुष्य में मन ज्यादा सक्रिय रहता है इसलिए वे मन की भावना और विचारों में ही ज्यादा रमते हैं। वे मानसिक हैं। मन से उपर उठने से जाग्रति शुरू होती है। जाग्रति की प्रथम स्टेज बुद्धि और द्वितिय स्टेज विवेक और तृतीय स्टेज आत्मावान होने में है। प्रार्थना और ध्यान से जागृति बढ़ती है।
उक्त सभी को मिलाकर कहा जाता है कि व्यक्ति अपने साथ धर्म लाता है और धर्म ही ले जाता है।
शास्त्र लिखते हैं कि -
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्टलोष्टसमं जना:।
मुहूर्तमिव रोदित्वा ततोयान्ति पराङ्मुखा:।।
तैस्तच्छरीमुत्सृष्टं धर्म एकोनुगच्छति।
तस्माद्धर्म: सहायश्च सेवितव्य: सदा नृभि:।।
इसका सरल और व्यावहारिक अर्थ यही है कि मृत्यु होने पर व्यक्ति के सगे-संबंधी भी उसकी मृत देह से कुछ समय में ही मोह या भावना छोड़ देते हैं और अंतिम संस्कार कर चले जाते हैं। किंतु इस समय भी मात्र धर्म ही ऐसा साथी होता है, जो उसके साथ जाता है।