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धार्मिक होकर भी पापी हैं ये लोग, जानिए कहीं आप तो नहीं इनमें शामिल

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अनिरुद्ध जोशी

मनु स्मृति, पुराण, रामचरित मानस आदि स्मृति ग्रंथों में ऐसे लोगों के बारे में बताया गया है जो कि धार्मिक होकर भी अधार्मिक या ज्ञानी होकर भी अज्ञानी, अच्छे होकर भी बुरे और पुण्य कर्म करने के बाद भी पापी कहे गए हैं। इन लोगों की पहचाना करना जरूरी है और इनसे दूर रहने में ही धर्म और देश की की भलाई हो सकती है। यह ऐसे लोग हैं जो धर्म, समाज और देश को किसी न किसी रूप से नुकसान पहुंचाते रहते हैं। कुछ जानकर और कुछ अनजाने में। आओ जानते हैं ये किस तरह के लोग हैं।
 
 
1.वाममार्गी- इसे उस दौर में कौल कहा जाता था। कौल मार्ग अर्थात तांत्रिकों का मार्ग। जादू, तंत्र, मंत्र और टोने-टोटको में विश्वास करने वाले भी कौल हो सकते हैं। कौल या वाम का अर्थ यह कि जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले। जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोज ले और जो नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार का घोर विरोधी हो, वह वाममार्गी है। ऐसा काम करने वाले लोग समाज को दूषित ही करते हैं। यह लोग उस मुर्दे के समान है जिसके संपर्क में आने पर कोई भी मुर्दा बन जाता है।
 
 
2.नास्तिक लोग- चार किताबें वामपंथ की और पांच किताबें विज्ञान की पढ़कर बहुत से लोग नास्तिक हो गए हैं। ऐसे लोग अपनी जवानी में नास्तिक होते हैं। अधेड़ अवस्था में उनका विश्वास डगमगाने लगता है और बुढ़ापे में वे मन ही मन ईश्‍वर के बारे में सोचने लगते हैं। हो सकता है कि ऐसे लोग दिखावे के लिए नास्तिक हों। खुद को आधुनिक घोषित करने के लिए ऐसे हों या अपने किसी स्वार्थ को सिद्ध करने या साहित्य की दुकान चमकाने के लिए वे ऐसे हों। ऐसे लोग विश्‍वास बदलने में देर नहीं लगाते।
 
 
ऐसे लोग जिंदगी के दुखदायी मोड़ पर कभी भी किसी पर भी विश्वास कर बैठते हैं। ऐसे लोग खुद पर भी भरोसा नहीं करते और ईश्वर पर भी नहीं। ये लोग मंदिर नहीं जाते। यदि वे कट्टर अविश्‍वासी हैं, तो उम्र के ढलान के अंतिम दौर में उन्हें पता चलता है कि सब कुछ खो दिया, अब ईश्‍वर हमें अपनी शरण में ले लें। ये अधार्मिक होते हैं। देश और धर्म को सबसे ज्यादा ये ही लोग नुकसान पहुंचाते हैं।
 
 
3.विश्वास बदलने वाले वाला- जो धर्म का सच्चा ज्ञान नहीं रखते और जो प्रचलित मान्यताओं पर ही अपनी धारणाएं बनाते और बिगाड़ते रहते हैं वे विश्वास बदल-बदल कर जीने वाले लोग हैं। वे कभी किसी देवता को पूजते हैं और कभी किसी दूसरे देवता को। उनका स्वार्थ जहां से सिद्ध होता है वे वहां चले जाते हैं। ये यदि किसी गधे को भी पूजने लग जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। ये नास्तिक भी हो सकते हैं और तथाकथित आस्तिक भी। ये मंदिर जा भी सकते हैं और नहीं भी। इनके विचार बदलते रहते हैं। ये कभी किसी को सत्य मानते हैं, तो कभी अन्य किसी को तर्क द्वारा सत्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। ये नास्तिकों के साथ नास्तिक और आस्तिकों के साथ आस्तिक हो सकते हैं। ऐसे ही लोग विधर्मी बन जाते हैं।
 
 
ऐसे लोग गफलत में जीते हैं। ऐसे लोगों को कभी लगता है कि ईश्वर जैसी कोई शक्ति जरूर है और कभी लगता है कि नहीं है। वे उनका दर्शन खुद ही गढ़ते रहते हैं। ऐसे लोग कभी धर्म या ईश्वर का विरोध करते हैं तो कभी तर्क द्वारा उनका पक्ष भी लेते पाए जाते हैं। ऐसे विकारी और विभ्रम में जीने वाले लोगों के बारे में धर्मशास्त्रों में विस्तार से जानकारी मिलती है और ऐसे लोग मरने के बाद किस तरह की गति को प्राप्त होते हैं, यह भी विस्तार से बताया गया है। ऐसे लोग न घर के रहते हैं और न घाट के।
 
 
4.स्वयंभू धार्मिक- बहुत से ऐसे लोग हैं जो धार्मिक होने का भ्रम पाले हुए हैं। ऐसे लोग हिन्दू धर्म का अधकचरा ज्ञान रखते हैं। ये खुद को विद्वान, संत, पंडित या महान ज्योतिष, वास्तुशास्त्री आदि कुछ भी समझ सकते हैं। इसी आधार पर वे धर्म के बारे में अपनी मनमानी व्याख्या बनाकर समाज में भ्रम फैलाते रहते हैं। ये लोग बड़ी बड़ी बाते करते हैं। मनमाने व्याख्‍यान देते हैं। कहते हैं कि थोथा चना बाजे घना। ऐसे लोग मठाधीश भी हो सकते हैं। किसी बड़े पद पर विराजमान भी हो सकते हैं। ऐसे लोगों में एक खास गुण यह रहता है कि यह बर्फ का स्वाद चखकर ही हिमालय की व्याख्‍या करने लगते हैं। यह तर्कबाज भी हो सकते हैं। ऐसे लोग धर्म को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं।
 
 
5.पर-निर्भयी- अधिकतर लोगों को स्वयं पर और परमेश्वर पर भरोसा नहीं होता। वे कबूल करते हैं कि उनमें कोई सामर्थ्य या ज्ञान नहीं है, परंतु उनको विश्वास भी नहीं होता कि परमेश्वर उनके लिए कार्य करेगा। वे समझते हैं कि हम तो तुच्छ हैं, जो परमेश्वर होगा तो हमारे लिए कार्य नहीं करेगा। ऐसे विश्वासी भी प्रार्थनारहित जीवन जीते हैं। वे प्रार्थना भी करते हैं तो उनकी प्रार्थना में कोई विश्वास नहीं होता। विश्‍वास है लेकिन खुद को हीन और तुच्छ समझते हैं। ऐसे लोग भी दुखी होकर दूसरों को भी सुखी नहीं कर पाते हैं।
 
 
6.खुद परस्त- ऐसे बहुत से लोग हैं, जो दूसरों पर नहीं, खुद पर ज्यादा भरोसा करते हैं। ये मानते हैं कि व्यक्ति को प्रेक्टिकल लाइफ जीना चाहिए। ये लोग मानते हैं कि ईश्‍वर के बगैर भी जीवन की समस्याओं को वे स्वयं सुलझा सकते हैं। ये भी अधार्मिक होते हैं। इनकी ये धारणा विज्ञान और मोटिवेशन की किताबें पढ़कर निर्मित होती है। ये अपनी सोच को बाजारवाद या पश्‍चिमी सभ्यता से प्रभावित होकर निर्मित करते हैं। ये अहंकारी भी होते हैं। हालांकि ऐसे लोग आधुनिकता के नाम पर वक्त के साथ रंग बदलते रहते हैं।
 
 
7.श्रु‍ति और संत विरोधी- वेदों को श्रुति कहा गया है और स्मृतियां, रामायण, पुराण आदि को स्मृति कहा गया है। श्रुति ही हिन्दु धर्म का एकमात्र धर्मग्रंथ है। श्रुति विरोधी अर्थात वेद विरोधी इस धरती पर मृतक के समान है। वेद के बाद संत विरोधी लोग भी मृतक समान है। बहुत से संत आजकल स्वयंभू संत है। हिन्दू संत धारा में संत तो 13 अखाड़े और दसनामी संप्रदाय में दीक्षित होकर ही संत बनते हैं। ऐसे में संत की परिभाषा को समझना जरूरी है। स्वयंभू भी संत हो सकता है और दीक्षित व्यक्ति भी। जिसने वैदिक यम-नियमों का पालन किया, ध्यान, क्रिया और प्रणायाम का तप किया- वही संत होता है। इसके अलावा ज्ञान और भक्ति में डूबे हुए लोग भी संत होते हैं।
 
 
8.विष्णु विमुख- इसका अर्थ है भगवान विष्णु के प्रति प्रीति नहीं रखने वाला, अस्नेही या विरोधी। इसे ईश्‍वर विरोधी भी कहा गया है। ऐसे परमात्मा विरोधी व्यक्ति मृतक के समान है। ऐसे अज्ञानी लोग मानते हैं कि कोई परमतत्व है ही नहीं। जब परमतत्व है ही नहीं तो यह संसार स्वयं ही चलायमान है। हम ही हमारे भाग्य के निर्माता है। हम ही संचार चला रहे हैं। हम जो करते हैं, वही होता है। अविद्या से ग्रस्त ऐसे ईश्‍वर विरोधी लोग मृतक के समान है जो बगैर किसी आधार और तर्क के ईश्‍वर को नहीं मानते हैं। उन्होंने ईश्‍वर के नहीं होने के कई कुतर्क एकत्रित कर लिए हैं। विष्णु विमुख ऐसे भी लोग हैं जो कि ब्रह्म ही सत्य है ऐसा मान कर ब्रह्मा, विष्णु और महेष की आलोचना करते हैं। अत: यह दोनों ही तरह के लोग अधार्मिक है।
 
 
9.निंदक- हालांकि कबीरदासजी ने कहा है कि निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।। लेकिन कई ऐसे लोग होते हैं जो खूब पूजा-पाठ, धर्म-कर्म करते हैं लेकिन निंदा करना जिनका मुख्‍य काम है। जिनका काम ही निंदा करना होता है उन्हें इससे मतलब नहीं रहता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। उन्हें तो दूसरों में कमियां ही नजर आती है। कटु आलोचना करना ही उनका धर्म होता है। ऐसे लोग किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकते हैं। ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे तो सिर्फ किसी न किसी की बुराई ही करे। ऐसे लोगों से बचकर ही रहें। राजनीति में ऐसे लोग बहुत होते हैं।
 
 
10.संतत क्रोधी- क्रोधी व्यक्ति भी धार्मिक होता है। धार्मिक होने का अर्थ मंदिर जाने वाला, पूजा-पाठ करने वाला या दान-पुण्य करने वाला। यह यह सब करने के बाद भी क्रोध नहीं गया तो फिर धार्मिक कैसा? निरंतर क्रोध में रहने वाले व्यक्ति को तुलसीदासजी ने संतत क्रोधी कहा है। हर छोटी-बड़ी बात पर जिसे क्रोध आ जाए ऐसा व्यक्ति भी अधार्मिक और मृतक के समान ही है। क्रोधी व्यक्ति के अपने मन और बुद्धि, दोनों ही पर नियंत्रण नहीं रहता है। जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता है। ऐसा व्यक्ति न खुद का भला कर पाता है और न परिवार का। उसका परिवार उससे हमेशा त्रस्त ही रहता है। सभी उससे दूर रहना पसंद करते हैं।
 

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