यह पुनर्जन्म का सिद्धांत हमारे रिश्तों, संबंधों आदि के साथ एक चक्र के रूप में चलता रहा है। कोई मित्र है, कोई शत्रु है, तो कोई प्रेमी है। कोई पति है, तो कोई पत्नी है। कोई, माता या पिता है, तो कोई भाई या बहन। एक कहानी से इस लेख की शुरुआत करते हैं। महाभारत में अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु था। अभिमन्यु भगवान श्रीकृष्ण का भानजा था।
अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेरकर दुर्योधन, जयद्रथ आदि ने बुरी तरह से कत्ल कर दिया था। यह युद्ध के नियमों के विरुद्ध था किसी अकेले निहत्थे को मारना। यह युद्ध का टर्निंग पॉइंट था। यहीं से युद्ध के नियम टूटने प्रारंभ हुए। जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया तो अर्जुन को अभिमन्यु की बहुत याद आई। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि मैं एक बार अपने पुत्र से मिलता चाहता हूं। वह वर्तमान में किसी अवस्था में होगा? श्रीकृष्ण ने कहा कि उससे मिलकर क्या करोगे? निरर्थक है मिलना।
अर्जुन जिद करने लगा। तब भगवान ने अर्जुन को योग दृष्टि दी और वे दोनों एक स्थान पर गए। वहां एक बालक खेल रहा था। अर्जुन उसके पास गए और उन्होंने उसे पहचान लिया। अर्जुन ने कहा कि पुत्र अभिमन्यु, मैं तुम्हारा पिता हूं। बालक ने कहा, आप मेरे पिता कैसे हो सकते हैं? मेरे पिता तो इस वक्त घर में हैं। तब अर्जुन ने श्रीकृष्ष से कहा कि हे प्रभु, इसे भी अपने पिछले जन्म याद आ जाए, ऐसे कुछ कीजिए। तब श्रीकृष्ण ने बालक अभिमन्यु को भी दिव्य दृष्टि प्रदान की और उसे अपने पिछले जन्म की याद आ गई।
याद आते ही उसने अर्जुन को पहचान लिया और कहने लगा, ओह! आप मेरे महाभारत वाले पिता हैं। अर्जुन ने फिर कहा कि हां, तुम्हें घेरकर क्रूरतापूर्वक मारा गया था जिसके चलते में बहुत दु:खी हूं। तब अभिमन्यु ने कहा, अच्छा इसीलिए आप मुझसे मिलने आए हैं। लेकिन पिताश्री जिन लोगों ने मुझे घेरकर मारा था, उन्हें मैंने अपने पिछले जन्म में इसी तरह मारा था। महाभारत में तो उन्होंने मुझसे बदला ले लिया...। इस कहानी से यह पता चलता है कि मित्र हो या शत्रु, यदि उसके मन में आपके प्रति गहरा प्रेम या गहरी घृणा है, तो निशिचत ही वे आपसे इस जन्म में भी मुलाकात करेंगे।आपका ये जन्म पुर्वजन्म का ही परिणाम है। यह आपकी सोच और चित्त की गति पर निर्भर करता है।
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हिन्दू धर्म में 7 फेरे और 7 वचन का प्रचलन है। संभवत: इसीलिए यह धारणा प्रचलन में आई होगी कि पति-पत्नी का संबंध 7 जन्मों तक होता है, तो क्या 8वें जन्म में वे अलग-अलग हो जाते हैं? या इस प्रथम जन्म से पहले वे किसी और के साथ रिश्तों में थे या कहीं इन दोनों का 7वां जन्म तो नहीं? ऐसे कई सवाल हैं। सवालों के जवाब को समझने के लिए जरूरी है कुछ नकारात्मक प्रचलन को समझना, जैसे पहला तलाक और दूसरा 'लिव-इन-रिलेशनशिप'। उक्त दो को समझने से ही उपरोक्त सवाल का उत्तर समझ में आएगा।
तलाक : वर्तमान में तो भारतीय हिन्दू दंपतियों में भी तलाक का प्रचलन हो चला है, जबकि हिन्दू धर्म में तलाक जैसी कोई कभी प्रथा रही ही नहीं है। प्राचीनकाल से ही एकपत्नी या पतिव्रत धारण करने की परंपरा रही है लेकिन समाज में बहुविवाह के भी कई उदाहरण देखे जाते हैं, हालांकि ऐसे विवाह को कभी धार्मिक और सामाजिक मान्यता नहीं मिली है।
यदि हम वर्तमान कलिकाल की बात करें तो ऐसे कई पति और पत्नी हैं जिन्होंने कुछ साल साथ रहने के बाद तलाक ले लिया। ऐसे भी कई क्रूर पति-पत्नी हैं जिन्होंने संतान को जन्म देकर उसे जीते-जी अनाथ कर दिया। उदाहरणार्थ एक महिला ने अपने पति को तलाक दे दिया। उसकी 3 मासूम और अबोध संतानें थीं 1 पुत्र और 2 पुत्रियां। वह तीनों को छोड़कर किसी और के साथ विवाह बंधन में बंध गई।
इसके विपरीत एक पुरुष भी ऐसा कर सकता है। ऐसे में बच्चों के साथ न्याय करने वाला कोई नहीं होता। अदालतें इस बारे में नहीं सोचतीं। ऐसे कई उदाहरण हैं जिनके बारे में हम यहां यह कहना चाहेंगे कि ऐसे लोगों का इस जन्म में ही नहीं, अगले पिछले कई जन्मों में भी कोई एक जीवनसाथी नहीं होता, क्योंकि उनके चित्त में धोखा, फरेब, लालच, क्रोध और यौन-भावनाएं ही प्रबल रहती हैं। जिनके चित्त में ऐसी भावनाएं प्रबलता से गति कर रही होती हैं, वे एक समय बाद मनुष्य योनि से गिरकर उन योनि को प्राप्त करते हैं, जहां प्रतिदिन रिश्ते बदल जाते हैं।
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'लिव इन रिलेशनशिप' : वर्तमान में धर्मविरुद्ध एक घातक प्रचलन चल पड़ा है 'लिव इन रिलेशनशिप'। इसके दुष्परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। अधिकतर लड़कियों का इस प्रचलन के चलते जीवन बर्बाद हो चुका है। हर बड़े शहर में कम से कम 200 केस थाने में दर्ज हैं और उन पर कोर्ट कार्यवाही जारी है।
जो पुरुष या स्त्री किसी धार्मिक रीति से वचनबद्ध न होकर विवाह न करके तथाकथित आपसी समझ के माध्यम से संबंधों में रहते हैं उनका व्यक्तित्व और जीवन इसी बात से प्रकट होता है कि वे क्या हैं? ऐसे लोग लिव इन रिलेशनशिप में रहकर समाज को दूषित कर विवाह संस्था के पवित्र उद्देश्य को खत्म करने में लगे हैं, लेकिन यह उनकी भूल है। यह विवाह संस्था की उपयोगिता को और मजबूत करेगी, क्योंकि लिव इन में रहने वालों का पतन तभी सुनिश्चित हो जाता है जबकि वे ऐसा रहने का तय करते हैं। इस मामले में लड़का हमेशा फायदे में ही रहता है, क्योंकि जहां यह बहुविवाह का एक आधुनिक रूप है, वहीं यह पाशविक संबध है। कहते हैं कि कुलनाशक पुत्र या पुत्रियों को समाज या धर्म से बहिष्कृत कर देना ही उचित है अन्यथा वे अपने रोग से समूचे समाज को निगल लेंगे।
वर्तमान में देखा गया है कि उक्त निषेध तरह के विवाह का प्रचलन भी बढ़ा है जिसके चलते समाज में बिखराव, पतन, अपराध, हत्या, आत्महत्या आदि को हम स्वाभाविक रूप से देख सकते हैं। इस तरह के विवाह कुलनाश और देश के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं। आधुनिकता के नाम पर निषेध विवाह को बढ़ावा देना देश और धर्म के विरुद्ध ही है। अंधकार काल में विवाह जैसा कोई संस्कार नहीं था। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन-संबध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। समाज में रिश्ते और नाते जैसी कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण मानव जंगली नियमों को मानता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था।
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वैदिक रीति से किए विवाह का महत्व : धरती पर सर्वप्रथम आर्यों या कहें कि वैदिक ऋषियों ने ही मानव को सभ्य बनाने के लिए सामाजिक व्यवस्थाएं लागू कीं और लोगों को एक सभ्य समाज में बांधा। पाशविक व्यवस्था को परवर्तीकाल में ऋषियों ने चुनौती दी तथा इसे पाशविक संबध मानते हुए नए वैवाहिक नियम बनाए। ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुम्ब-व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ।
विवाह नहीं, तो परिवार भी नहीं। विवाह का प्रचलन आदिकाल में ही वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ करवा दिया था। विवाह करके ही जीवन निर्वाह करना सभ्य होने की निशानी है। विवाह संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में 'त्रयोदश संस्कार' है। स्नातकोत्तर जीवन विवाह का समय होता है अर्थात विद्याध्ययन के पश्चात विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना होता है। 'ब्रह्म विवाह' को हिन्दुओं के 16 संस्कारों में से एक माना गया है। पति-पत्नी ही मिलकर एक परिवार बनाते हैं। मजबूत परिवार ही कुटुम्ब बनाता है और इसी से सामाजिक संरचना का विकास होता है, जैसे एक वृक्ष तब फल-फूलता है जबकि उसका तना एक ही भूमि पर कायम हो। वह वृक्ष खोखला हो जाता है जिसके भीतर अलगाव हो जाता है और वह जीवन के तूफानों में उखड़ जाता है।
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निष्कर्ष : तलाक और लिव इन रिलेशनशिप के दुष्प्रभाव और विवाह के महत्व को संक्षिप्त में पढ़कर ज्यादा सोचने के बाद पता चलता है कि रिश्ते किस बुनियाद पर कायम रहते हैं। रिश्तों में समर्पण, प्रेम, मुहब्बत और अपनत्व के होने के साथ ही उसकी सामाजिक मान्यता भी जरूरी है। इसके अलावा वर्तमान युग में किसी भी रिश्ते को सफल बनाने के लिए माता-पिता और सास-ससुर की भूमिका महत्वपूर्ण हो चली है। दोनों ही परिवारों को अपनी जिम्मेदारी को समझना जरूरी है इसीलिए 'ब्रह्म विवाह' पर जोर दिया जाता है ताकि बाद में किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हो। लेकिन वर्तमान में कोई भी समाज 'ब्रह्म विवाह' के अनुसार अपने बच्चों का विवाह न करने मनमाने तरीके और प्रथा अनुसार विवाह करते हैं।
ऐसे भी कई लोग हैं, जो विधिवत वैदिक हिन्दू रीति से विवाह न करके अन्य मनमानी रीति से विवाह करते हैं। वे इन मुहूर्त, समय, अष्टकूट मिलान, मंगलदोष आदि की भी परवाह नहीं करते हैं। इसका दुष्परिणाम भी स्वत: ही प्रकट होता है। दरअसल, हिन्दू धर्म में विवाह एक संस्कार ही नहीं है बल्कि यह पूर्णत: एक ऐसी वैज्ञानिक पद्धति है, जो व्यक्ति के आगे के जीवन को सुनिश्चित करती है और जो उसके भविष्य को एक सही दशा और दिशा प्रदान करती है। हिन्दू धर्म में विवाह एक अनुबंध या समझौता नहीं है, बल्कि यह भली-भांति सोच-समझकर ज्योतिषीय आधार पर प्रारब्ध और वर्तमान को जानकर तय किया गया एक आत्मिक रिश्ता होता है। इस विवाह में किसी भी प्रकार का लेन-देन नहीं होता है। हिन्दू विवाह संस्कार अनुसार बेटी को देना ही सबसे बड़ा दहेज होता है। हालांकि शास्त्रों में कहीं भी 'दहेज' शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। यह कुप्रथा समाज द्वारा प्रचलित है।
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अब बात करते हैं मूल सवाल पर कि क्या पति और पत्नी का रिश्ता 7 जन्मों का होता है या क्या पति-पत्नी का रिश्ता पिछले जन्म से चला आ रहा है?
उत्तर : जैसा कि ऊपर बताया गया है कि ब्रह्म विवाह से संपन्न विवाह में प्रेम, विश्वास, समर्पण, अपनत्व, सम्मान और रिश्तों की अहमियत को समझा जाता है। परिवार की पूर्ण सहमति से किए गए 'ब्रह्म विवाह' में दोनों पति और पत्नी एक-दूसरे का सम्मान रखते हुए परस्पर प्रेमपूर्वक जीवन-यापन करते हैं। 7 फेरे के दौरान लिए गए वचनों को हर वक्त याद रखते हुए वे अपने कुल और खानदान के सम्मान का भी ध्यान रखते हैं।
जब ऐसे संस्कारी पति और पत्नी का चित्त एक-दूसरे के लिए गति करता है और वे एक-दूसरे के प्रति प्रेम, अनुराग और आसक्ति से भर जाते हैं तब उनका इस जन्म में तो क्या, अगले जन्म में भी अलग होना संभव नहीं होता। चित्त की वह गति ही उन्हें पुन: एक कर देती है। जब दो स्त्री-पुरुष एक-दूसरे से बेपनाह प्रेम करते हैं तो निश्चित ही यह प्रेम ही उन्हें अगले जन्म में पुन: किसी न किसी तरह फिर से एक कर देता है। यह सभी प्रकृति प्रदत्त ही होता है। कहते हैं कि 'जैसी मति वैसी गति/ जैसी गति वैसा जन्म।'
भगवान शिव अपनी पत्नी सती से इतना प्रेम करते थे कि वे उनके बगैर एक पल भी रह नहीं सकते थे। उसी तरह माता सती भी अपने पति शिव के प्रति इतने प्रेम से भरी थीं कि वे अपने पिता के यज्ञ में उनका अपमान सहन नहीं कर पाईं और आत्मदाह कर लिया। लेकिन यह प्रेम ही था जिसने सती को अगले जन्म में पुन: शिवजी से मिला दिया। वे पार्वती के रूप में जन्मीं और अंतत: उन्हें अपने पिछले जन्म की सभी यादें ताजा हो गईं। भगवान शिव जो अंतरयामी थे, वे सभी जानते थे।
आपकी पत्नी यदि आपके पिछले जन्म की साथी रही है तो निश्चित ही आपके मन में उसके प्रति और उसके मन में आपके प्रति एक अलग ही तरह का प्रेम और सम्मान होगा, जो गहराई से देखने पर ही समझ में आएगा। इस भागमभाग की जिंदगी से थोड़ा सा समय निकालकर अपनी पत्नी की आंखों में भी झांककर देख लीजिए।
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कई बार एक बार में ही देखने पर किसी स्त्री या पुरुष के प्रति अजीब सा प्रेम और आकर्षण पैदा हो जाता है और कई बार किसी को देखने पर अपने उसके प्रति घृणा उत्पन्न होती है। हिन्दू धर्म के अनुसार हमारे चित्त या अंत:करण में लाखों जन्मों की स्मृतियां संरक्षित होती हैं और वे हमें स्पष्ट तौर पर समझ में नहीं आती हैं। लेकिन उस स्मृति के होने से ही हम किसी व्यक्ति या जगह को पूर्व में भी देखा गया मानते हैं, जबकि हम किसी व्यक्ति से पहली बार मिले या किसी जगह पर हम इस जीवन में पहली बार गए हों। फिर भी हमें वे जाने-पहचाने से लगते हैं। व्यक्ति का चेहरा भले ही बदल गया हो लेकिन उसे देखकर और उससे मिलकर हमें अजीब-सा अहसास होता है। कई बार हमारे संबंध इतने गहरे हो जाते हैं कि हम उसी के साथ जीवन गुजारना चाहते हैं, लेकिन फिर भी इस बारे में यह सोचा जाना जरूरी है कि हमारे मन में किसी व्यक्ति के प्रति आकर्षण क्यों उपजा?
हमारे चित्त के अंदर 4 प्रकार के मन होते हैं- एक चेतन मन, दूसरा अचेतन मन, तीसरा अवचेतन मन, चौथा सामूहिक मन। अवचेतन मन को ब्रह्मांडीय मन कहते हैं जिसमें हमारे अगले-पिछले सभी जन्मों की स्मृतियां और संचित कर्म संचित रहते हैं। जब हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं, जो हमारे पिछले जन्म का साथी था तो हम उसके संपर्क में आते ही उसके चित्त से जुड़ जाते हैं या कि उसका और हमारा आभामंडल जब एक-दूसरे से टकराता है, तो कुछ अच्छी अनुभूति होती है और हम सहज ही एक-दूसरे के प्रति समर्पण और प्रेमपूर्ण भाव से भर जाते हैं। हमारे मन में उस व्यक्ति के प्रति दया, प्रेम, करुणा और उससे बात करने के भाव उपजते हैं। यहां ध्यान यह रखना जरूरी है कि कौन से भाव आपके भीतर जन्म ले रहे हैं। हो सकता है कि महज शारीरिक सुंदरता के कारण ही आकर्षण हो।
ज्योतिष के अनुसार कुंडली में भी ऐसे कई योग होते हैं जिसके चलते यह पता चलता है कि आपका पुत्र, पुत्री या आपकी पत्नी आपके पिछले जन्म में क्या थे?
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हिन्दू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का संबंध होता है जिसे कि किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के 7 फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानकर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संबंध से अधिक आत्मिक संबंध को महत्व दिया जाता है और ये संबंध धार्मिक रीति से किए गए विवाह और उस विवाह के वचन और फेरों को ध्यान में रखने तथा विश्वास को हासिल करने से कायम होते हैं। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में बचपन में धर्म, अध्यात्म और दर्शन का अध्ययन नहीं किया है उसके लिए विवाह एक संस्कार मात्र ही होता है।
वासना का दांपत्य-जीवन में अत्यंत तुच्छ और गौण स्थान है, प्रधानत: दो आत्माओं के मिलने से उत्पन्न होने वाली उस महती शक्ति का निर्माण करना है, जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके। श्रुति का वचन है- दो शरीर, दो मन और बुद्धि, दो हृदय, दो प्राण व दो आत्माओं का समन्वय करके अगाध प्रेम के व्रत का पालन करने वाले दंपति उमा-महेश्वर के प्रेमादर्श को धारण करते हैं, यही विवाह का स्वरूप है।
इसलिए कहा गया है 'धन्यो गृहस्थाश्रम:'। जहां सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं, वहीं अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों के साधकों को वांछित सहयोग देते रहते हैं। ऐसे सद्गृहस्थ बनाने के लिए विवाह को रूढ़ियों-कुरीतियों से मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करना आवश्यक है।