हिन्दुओं के अधिकतर त्योहार मौसम, सेहत और संबंधों पर आधारित हैं, इनके पीछे जहां एक मनोवैज्ञानिक सोच है वहीं विज्ञान भी है। हालांकि यह त्योहार, पर्व या व्रत परंपरा से प्राप्त और विकसित हुए हैं, लेकिन कुछ त्योहार ऐसे भी हैं जो परंपरा के न होकर हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण त्योहार हैं। यहां प्रस्तुत है हिन्दुओं के ऐसे कुछ त्योहारों की संक्षिप्त जानकारी जोकि संबंधों के महत्व को दर्शाते हैं।
(पूर्वजों का त्योहार):-
हर साल भद्रपद शुक्लपक्ष पूर्णिमा से लेकर अश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को पितृपक्ष या श्राद्ध पक्ष कहा जाता है। पितृपक्ष या श्राद्ध के अंतिम दिन को सर्वपितृ अमावस्या या महालया अमावस्या के रूप में जाना जाता है। यह पर्व पूर्वजों से जुड़ा है। पूर्वज अर्थात आपके कुल खानदान के जो भी लोग अब इस संसार में नहीं है उनके लिए श्राद्ध पक्ष मनाया जाता है। उनमें से कुछ ने तो नया जन्म ले लिया होगा लेकिन कुछ आज भी किसी अन्य जन्म के इंतजार में या तो पितृलोक में समय काट रहे हैं या धरती पर भटक रहे होंगे। इस दौरान पितृलोक के पूर्वज धरती पर अपने संतानों के पास आते हैं उन्हें देखने और आशीर्वाद देने। उनमें से कुछ इस आस से आते हैं कि संभवत: हमें हमारी संतानों के माध्यम से तृप्ति और मुक्ति मिलेगी।
(गुरुओं और शिक्षकों का त्योहार):-
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा कहते हैं। यह दिन अपाके गुरु या शिक्षक का होता है। आपके माता-पिता भी आपके गुरु और शिक्षक होते हैं। जीवन का पहला पाठ माता और पिता ही सीखाते हैं। जीवन में जिससे भी अच्छी बातें सिखने को मिलती है वह सभी आपके गुरु हो सकते हैं। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं, लोगों को शिक्षा और दीक्षा देते हैं। गुरु पूर्णिमा का यह दिन महाभारत ग्रंथ के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।
शास्त्रों अनुसार गुरु वह होता है जो आपके मनरूपी अंधकार को मिटाकर प्रकाश की ओर ले जाए और मोक्ष का सही मार्ग बताए। जिस व्यक्ति से आप योग, वेद और धर्म का गहन गंभीर ज्ञान प्राप्त कर मुमुक्षु बन जाते हैं वही आपका सच्चा गुरु होता है। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है।
(पिता और पुत्र का त्योहार):-
मकर संक्रांति : वैसे मकर संक्रांति हिन्दुओं का प्रमुख त्योहार है। सूर्य जब उत्तरायण होता है तब मकर संक्रांति मनाई जाती है। इस दिन से प्रकृति में भारी परिवर्तन की शुरुआत होती है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है। लेकिन यह त्योहार पिता और पुत्र के संबंधों से भी जुड़ा हुआ है।
इस दिन पुत्र और पिता को तिलक लगाकर उनका स्वागत किया जाता है। हालांकि अब इस परंपरा का कुछ ही घरों में पालन होता है। दरअसल, इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि की राशि में प्रवेश करते हैं और दो माह तक रहते हैं। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं। इस दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाते हैं। उत्तरायण से अच्छे दिन की शुरुआत होती है जोकि छह माह तक रहती है। उक्त छाह माह तक मांगलिक कार्य और त्योहार, उत्सव का महत्व रहता है। सूर्य के दक्षिणायन होने के बाद व्रतों का महत्व बढ़ जाता है। सूर्य के उत्तररायण होने से दिन बड़ा और रात छोटी होना शुरू हो जाती हैं। इस दिन को सुख और समृद्धि का दिन माना जाता है।
(माता और पुत्र-पुत्री का त्योहार):-
*गौरी-गणेश पूजन : गौरी-गणेश का पूजन भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की जेष्ठा नक्षत्र व्यापीनी नवमी अथवा दशमी पर किया जाता है। भाद्रपद शुक्ल नवमी पर माता गौरी व उनके पुत्र गणेश के पूजन का विधान शास्त्रों में वर्णित है। भाद्रपद शुक्ल नवमी पर गौरी का विसर्जन व अनंत चतुर्दशी पर गणेश विसर्जन होता है अतः भाद्रपद शुक्ल नवमी मूलतः माता व पुत्र के आपसी प्रेम को दर्शाने वाला पर्व माना गया है।
*आंवला नवमी पूजा : महिलाओं द्वारा यह नवमी पुत्ररत्न की प्राप्ति के लिए मनाई जाती है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को महिलाएं आंवले के पेड़ की विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करती हैं। आंवला नवमी को अक्षय नवमी के रूप में भी जाना जाता है।
इस दिन द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। कहा जाता है कि आंवला भगवान विष्णु का पसंदीदा फल है। पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी से लेकर पूर्णिमा तक भगवान विष्णु आंवले के पेड़ पर निवास करते हैं इसलिए इसकी पूजा करने का विशेष महत्व होता है। आंवले के पेड़ की पूजा कर 108 बार परिक्रमा करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं। पूजा-अर्चना के बाद खीर-पूड़ी, सब्जी और मिष्ठान्न आदि का भोग लगाया जाता है।
*संतान सप्तमी व्रत : यह व्रत भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को किया जाता है। यह विशेष रूप से संतान प्राप्ति, संतान रक्षा और संतान की उन्नति के लिए किया जाता है। इस व्रत में, भगवान विष्णु, भगवान शंकर और माता गौरी की पूजा करनी चाहिए, ऐसी मान्यता है देवकी तथा वसुदेव ने कंस से अपनी संतानों रक्षा के लिए लोमश ऋषि के कहने पर संतान सप्तमी व्रत रखा था। यह राधा अष्टमी से ठीक एक दिन पहले पडता है, इसलिये इसे ललिता सप्तमी भी कहते हैं, देवी ललिता राधा जी की आठ प्रमुख सखियों में से एक हैं।
*अहोई अष्टमी : कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी अहोई अथवा आठें कहलाती है। यह व्रत दीपावली से ठीक एक सप्ताह पूर्व आता है। इस व्रत के दौरान अहोई देवी के चित्र के साथ सेई और सेई के बच्चों के चित्र भी बनाकर पूजे जाते हैं। जिन स्त्रियों वह व्रत करना होता है, वे दिनभर उपवास रखती हैं। शाम को भक्ति-भावना के साथ दीवार अहोई की पुतली रंग भरकर बनाती हैं। उसी पुतली के पास सेई व सेई के बच्चे भी बनाती हैं। सूर्यास्त होने के बाद इनकी पूजा की जाती है। बाल-बच्चों के कल्याण की कामना और उन्हें हर तरह के संकट से बचाने के लिए यह व्रत रखा जाता है। इसके अलावा भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की छठ को हरषष्ठी पर्व पर भी संतान की लंबी उम्र और सुख समृद्धि की कामना की जाती है।
*भीष्म द्वादशी: माघ मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी को भीष्म द्वादशी मनाई जाती है। इसे गोविंद द्वादशी भी कहते हैं। इस व्रत को करने वालों को योग्य संतान की प्राप्ति होने के साथ ही समस्त धन-धान्य और सौभाग्य का सुख मिलता है। इस दिन रखा जाने वाला व्रत सभी बीमारियों को मिटाता है। भीष्म द्वादशी के दिन षोडशोपचार विधि से भगवान लक्ष्मी नारायण की पूजा करनी चाहिए।
(भाई-बहन का त्योहार):-
*रक्षा बंधन : रक्षा बंधन का मूल अर्थ है रक्षा सूत्र बांधना। प्राचीन काल में किसी भी व्यक्ति को रक्षा सूत्र बांधकर उसकी रक्षा का वचन दिया जाता था। वर्तमान में यह त्योहार भाई और बहन से जुड़ गया है। हालांकि इस दिन भाई का भाई और बहन की बहन सभी मिलकर यह त्योहार मनाते हैं।
'येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेनत्वामभिबघ्नामि रक्षे माचल-माचलः।'
स्कंध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबंधन का प्रसंग मिलता है। दानवेंद्र राजा बलि का अहंकार चूर करने के लिए भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया और ब्राह्मण के वेश में राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंच गए। भगवान ने बलि से भिक्षा में तीन पग भूमि की मांग की। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश, पाताल और धरती नाप लिया और राजा बलि को रसातल में भेज दिया। बलि ने अपनी भक्ति के बल पर भगवान से रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान को वापस लाने के लिए नारद ने लक्ष्मीजी को एक उपाय बताया। लक्ष्मीजी ने राजा बलि को राखी बांध अपना भाई बनाया और पति को अपने साथ ले आईं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। तभी से रक्षा बंधन का त्योहार मनाया जाता है।
*भाई दूज : भाई दूज को यम द्वितीया भी कहते हैं। भाई दूज, पांच दिवसीय दीपावली महापर्व का अंतिम दिन होता है। भाई दूज का पर्व भाई-बहन के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने और भाई की लंबी उम्र के लिए मनाया जाता है। रक्षाबंधन के दिन भाई अपनी बहन को अपने घर बुलाता है जबकि भाई दूज पर बहन अपने भाई को अपने घर बुलाकर उसे तिलक कर भोजन कराती है और उसकी लंबी उम्र की कामना करती है।
इस दिन को लेकर मान्यता है, कि यमराज अपनी बहन यमुनाजी से मिलने के लिए उनके घर आए थे और यमुनाजी ने उन्हें प्रेमपूर्वक भोजन कराया एवं यह वचन लिया कि इस दिन हर साल वे अपनी बहन के घर भोजन के लिए पधारेंगे। साथ ही जो बहन इस दिन अपने भाई को आमंत्रित कर तिलक करके भोजन कराएगी, उसके भाई की उम्र लंबी होगी। तभी से भाई दूज पर यह परंपरा बन गई।
*छट पूजा : छठ पूजा अथवा छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य को सामूहिक रूप से अर्घ्य दिया जाता है। सूर्य आराधना के इस पर्व को पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। लोक परंपरा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। षष्ठी देवी को स्कंद की पत्नी 'देवसेना' के नाम से पूजा जाता है। स्कंद को कार्तिकेय भी कहा जाता है, जो भगवान शिव के पुत्र हैं।
(प्रेमी और प्रेमिकाओं का त्योहार):-
*वसंत पंचमी : जब फूलों पर बहार आ जाती है, खेतों में सरसों का सोना चमकने लगता है, जौ और गेहूं की बालियां खिलने लगती हैं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाते हैं और हर तरफ तितलियां मंडराने लगती हैं, तब वसंत पंचमी का त्योहार आता है। वसंत ऋतु में मानव तो क्या, पशु-पक्षी तक उल्लास भरने लगते हैं। यूं तो माघ का पूरा मास ही उत्साह देने वाला होता है, पर वसंत पंचमी का पर्व कुछ खास महत्व रखता है। यह भारतीय लोगों के लिए खास है। वेलेंटाइन डे की तरह यह प्रेम-इजहार का विशेष दिन है। इस दिन ज्ञान की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस भी मनाया जाता है।
(पति और पत्नी का त्योहार):-
*करवाचौथ : कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को मनाया जाने वाला करवा चौथ का व्रत पति और पत्नी के संबंध पर आधारित है। करवा चौथ के व्रत संबंध में कई लोककथाएं प्रचलित हैं। शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियां अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से उसे बचा सकती हैं। इस व्रत को द्रोपदी ने पांडु पुत्र अर्जुन के लिए तब किया था जब वे तपस्या करने नीलगिरी नामक पर्वत पर चले गए थे। अत: यह व्रत परंपरा तभी से चली आ रही है। इस व्रत परंपरा का प्रचलन उत्तर भारत में अधिक है।
*हड़तालीका व्रत : यह व्रत श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र के दिन होता है। इस दिन कुमारी और सौभाग्यवती स्त्रियां गौरी-शंकर की पूजा करती हैं। मान्यता अनुसार इस व्रत को कुमारी लड़कियां करती है तो उन्हें उत्तम वर की प्राप्ति होती है, जबकि सौभाग्यवती स्त्रियां करती हैं तो उनके पति की उम्र बढ़ती है।
दरअसल, भगवान शिव और पार्वती के पुर्नमिलाप के उपलक्ष्य में मनाए जाने वाले इस त्योहार के बारे में मान्यता है कि मां पार्वती ने 107 जन्म लिए थे, भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए। अंततः मां पार्वती के कठोर तप और उनके 108वें जन्म में भगवान ने पार्वती जी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया। तभी से ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से मां पार्वती प्रसन्न होकर पतियों को दीर्घायु होने का आशीर्वाद देती हैं।
*वट सावित्री : सुहागिन महिलाओं द्वारा हर साल ज्येष्ठ मास की अमावस्या को वट सावित्री व्रत रखा जाता है। वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्घ हुआ। इस व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं, सती सावित्री की कथा सुनने व वाचन करने से सौभाग्यवती महिलाओं की अखंड सौभाग्य की कामना पूरी होती है। इस व्रत को सभी प्रकार की स्त्रियां (कुमारी, विवाहिता, विधवा, कुपुत्रा, सुपुत्रा आदि) इसे करती हैं। इस व्रत को स्त्रियां अखंड सौभाग्यवती रहने की मंगलकामना से करती हैं।
पुराणों में यह स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। मान्यता अनुसार इस व्रत को करने से पति की अकाल मृत्यु टल जाती है। वट अर्थात बरगद का वृक्ष आपकी हर तरह की मन्नत को पूर्ण करने की क्षमता रखता है। दार्शनिक दृष्टि से देखें तो वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व के बोध के नाते भी स्वीकार किया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि वट वृक्ष की पूजा लंबी आयु, सुख-समृद्घि और अखंड सौभाग्य देने के साथ ही हर तरह के कलह और संताप मिटाने वाली होती है।
*मंगला गौरी व्रत : श्रावण माह के हर मंगलवार को मनने वाले इस व्रत को मंगला गौरी व्रत (पार्वतीजी) नाम से ही जाना जाता है। धार्मिक पुराणों के अनुसार इस व्रत को करने से सुहागिन महिलाओं को अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है। अत: इस दिन माता मंगला गौरी का पूजन करके मंगला गौरी की कथा सुनना फलादायी होता है।
ज्योतिषीयों के अनुसार जिन युवतियों और महिलाओं की कुंडली में वैवाहिक जीवन में कमी महसूस होती है अथवा शादी के बाद पति से अलग होने या तलाक हो जाने जैसे अशुभ योग निर्मित हो रहे हो, तो उन महिलाओं के लिए मंगला गौरी व्रत विशेष रूप से फलदायी है। अत: ऐसी महिलाओं को सोलह सोमवार के साथ-साथ मंगला गौरी का व्रत अवश्य रखना चाहिए।