यौवन के पहले पखवाड़े में,
कुछ अजब शरारत सूझ रही।
मेरे मन की अभिलाषा खुद,
मुझसे प्रश्न यूं पूछ रही।
नैना कजरे को आतुर है,
होठ हंसी को फेंक रहा है।
अंतरमन अब यही बताता,
कोई रास्ता देख रहा है।
हवा उमंगें भर-भर झोंके,
मैं उनके संग कूद रही।
मेरे मन की अभिलाषा खुद,
मुझसे प्रश्न यूं पूछ रही।
हरसिंगार को तन भूखा है,
पांव कहे की पायल लाओ।
कौन आकर्षित मुझको करता,
उसकी सूरत हमें दिखाओ।
कमर करधनी बिन व्याकुल है,
नकिया खुशबू को सूंघ रही।
मेरे मन की अभिलाषा खुद,
मुझसे प्रश्न यूं पूछ रही।
देख के लोग अचंभित होते,
कोमल तन सुन्दर काया को।
मैं बावरी समझ न पाई,
यौवन की चढ़ती माया को।
जब बन रैन दिखाती सपना,
याद कर सपने ऊब रही।
मेरे मन की अभिलाषा खुद,
मुझसे प्रश्न यूं पूछ रही।