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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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गण को तंत्र ने हर मोर्चे पर मायूस ही किया

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- टीएसआर सुब्रमण्य
अमेरिकी स्वतंत्रता के नायक माने जाने वाले थॉमस जेफरसन ने ब्रिटेन से अमेरिका की आजादी के बाद कहा था कि लोकतंत्र का मतलब होता है कि सभी लोगों को अधिक से अधिक फायदा मिले। पर जब यही बात हम अपने देश के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो लगता है कि हमने अभी आधा सफर भी तय नहीं किया। यह ठीक है कि हमने परमाणु बम, सूचना प्रौद्योगिकी, दूरसंचार, रेलवे, सड़क और हवाई यातायात के क्षेत्र में बहुत तरक्की की है, लेकिन जब आम नागरिकों की भोजन, कपड़ा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं की बात करें तो लगता है जैसे हम कुछ ही दूर चल पाए हैं।

मैं यह नहीं कह रहा कि चीन और अमेरिका के साथ राजनीतिक, व्यापारिक और आर्थिक संबंध न बढ़ाए जाएँ या फिर अपनी परमाणु ताकत न बढ़ाई जाए! पर उससे भी ज्यादा जरूरी है कि देश की सरकार आम नागरिकों को वह हर बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराएँ जिसका हक संविधान ने उसे दिया है। बेहद अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि सक्सेना कमीशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के 50 फीसद लोग गरीबी में जीते हैं, वहीं अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट ने कहा कि देश की 77 फीसद आबादी को रोजाना 20 रुपए से भी कम की आमदनी होती है।

क्या यही वह कल्पना है जो संविधान निर्माताओं ने आजादी के बाद अपने देशवासियों के लिए की थी? 1950 से हम 2011 तक पहुँच गए हैं। इस मुकाम पर पूछा जा सकता है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने देशवासियों से जो वादा किया था क्या हमारी सरकारें उन वादों को पूरा कर पाई हैं? स्वास्थ्य के मामले में भारत का क्रम दुनिया में अंतिम पायदान पर है। शहर में तो अमीर लोगों को निजी अस्पतालों के चलते स्वास्थ्य की सेवाएँ मिल जाती हैं, पर उन गरीबों का क्या जो गाँवों-देहातों और देश के पिछड़े इलाकों में रहते हैं?

भारत को आजादी मिलने के दो साल बाद 1949 में कोरिया को जापान से आजादी मिली, पर यदि आप वहाँ जाएँ तो चौंकाने वाले दृश्य सामने आएँगे। वहाँ महानगरों और शहरों की बात छोड़ दें, गाँव और दूरदराज के पिछड़े इलाकों के लोगों को भी उच्च कोटि की स्वास्थ्य सुविधाएँ मिलती हैं। शिक्षा में भी देखें तो हम अब भी पिछड़े हुए हैं। जबकि बांग्लादेश भी इस मामले में हमसे आगे निकल रहा है। मलेशिया और थाईलैंड जैसे देश तो हमें पहले ही इस दौड़ में पछाड़ चुके हैं।

1960-70 के दशक में भारत में हरित क्रांति हुई और हम गेहूँ और चावल के उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गए। पर हाल में ही हुए एक अध्ययन में चेतावनी स्वरूप एक बात सामने आई है कि 2025 में देश भुखमरी का शिकार हो सकता है। क्योंकि अधिक और तुरत-फुरत उत्पादन के लोभ में खेतों में उर्वरकों का इस्तेमाल इतना ज्यादा बढ़ गया है कि जमीन के उत्पादन की क्षमता प्रभावित हो रही है और उत्पादकता कम होती जा रही है। जबकि दूसरी तरफ जनसंख्या तेजी से बढ़ती जा रही है।

भारत में हम पेट भरने की बात पर आकर अटक जाते हैं, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य विकसित देशों में सूक्ष्म पोषण की बात की जाती है, जहाँ कानून बनाकर यह बात सुनिश्चित की गई है कि लोगों को खाद्य तेल और अन्य खाद्य पदार्थों से आयोडीन, फॉलिक एसिड, विटामिन-ए आदि किस्म का सूक्ष्म पोषण मिल सके। सूक्ष्म पोषण जो मनुष्य के शरीर की छुपी हुई भूख है उसे ऊर्जा प्रदान करने का महत्वपूर्ण स्रोत है और इससे दिमाग को मजबूत बनाया जा सकता है। कुछ बच्चे पढ़ाई से जी क्यों चुराते हैं या स्कूलों से क्यों भागते हैं! क्योंकि इसकी एक बड़ी वजह यही है कि जिसकी ओर हमारे नीति-निर्माताओं का ध्यान ही नहीं है। मुझे हैरानी इस बात पर होती है कि मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और राज्य के अन्य बड़े अधिकारी इस बात को जानते ही नहीं, और जो जानते हैं वे इसे गंभीरता से नहीं लेते।

हाल में ही एक रिपोर्ट आई है जिसमें कहा गया है कि पिछले पाँच सालों में देश में 55 हजार लोगों ने आत्महत्या की है। यह सुनकर तो हमारे नीति-निर्माताओं को आत्महत्या कर लेनी चाहिए! आखिर क्या वजह है कि उनके देश के नागरिक इस देश में जीने से अच्छा मौत को गले लगाना पसंद करते हैं। हम इस बात पर खुश होते हैं कि इस देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन इस बात पर किसी का ध्यान नहीं जाता कि उसी रफ्तार से गरीबों और तकलीफ में रहने वाले लोगों की भी संख्या बढ़ रही है।

अच्छा और भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन भी इस देश के नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है, पर जब २जी स्पेक्ट्रम और आदर्श सोसायटी जैसे घोटाले हो रहे हों तो कुछ ही दिनों में यह देश घोटालों का देश कहलाने लगेगा! क्योंकि यहाँ पहले से ही जन्म या मृत्यु प्रमाण पत्र लेने, राशन कार्ड और रोजगार कार्ड बनवाने, पासपोर्ट बनाने जैसे तमाम सरकारी कामों के लिए रिश्वत देनी पड़ती है।

देश में जिस तरह महँगाई बढ़ रही है उसका कुप्रभाव गरीबों-मजदूरों की जिंदगी पर क्या पड़ता है यह उनसे पूछना चाहिए? जो पहले रोटी, नमक और प्याज पर गुजारा कर लिया करते थे, अब तो वह प्याज भी महँगा मिलता है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेकसिंह अहलूवालिया केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बारे में जानते हैं और मनमोहनसिंह ने जो पढ़ा था, वे उसे भूल चुके हैं। ऐसे में हमारे गण की अपने तंत्र से जो उम्मीदें हैं वे कैसे पूरी हो सकती हैं और मंजिल को पाने के लिए हमें और कितना सफर तय करना होगा, यह कहना मुश्किल है।
(लेखक पूर्वा कैबिनेट)

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