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वेदों की 10 बातें जीवन में बहुत काम आएंगी

हमें फॉलो करें introduction to rig veda

अनिरुद्ध जोशी

हिन्दू धर्म का एकमात्र धर्मग्रंथ है वेद। वेद के चार भाग है- ऋग, यजु, साम और अथर्व। वेदों का सार है उपनिषद और उपनिषदों का सार है गीता। महाभारत, रामायण, पुराण, स्मृति ग्रंथ और सूत्र ग्रंथ को धर्मग्रंथ नहीं माना जाता है। रामायण, महाभारत और पुराण इतिहास ग्रंथ है तो स्मृतियां और सूत्र ग्रंथ में वेदों की ही बातों का अपने अपने तरीके से विस्तार किया गया है। आओ जानते हैं कि वेदों की वे 10 बातें जो हमारे जीवन में काम आएगी।
 
 
।। सं गच्छध्वम् सं वदध्वम्।। (ऋग्वेद 10.181.2)
अर्थात: साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करो जिस पर पूर्वज चले हैं। 
 
1. श्लोक : ।।उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।14।। -कठोपनिषद् (कृष्ण यजुर्वेद)
 
अर्थ : (हे मनुष्यों) उठो, जागो (सचेत हो जाओ)। श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों को प्राप्त (उनके पास जा) करके ज्ञान प्राप्त करो। त्रिकालदर्शी (ज्ञानी पुरुष) उस पथ (तत्वज्ञान के मार्ग) को छुरे की तीक्ष्ण (लांघने में कठिन) धारा के (के सदृश) दुर्गम (घोर कठिन) कहते हैं।
 
2. श्लोक : ।।प्रथमेनार्जिता विद्या द्वितीयेनार्जितं धनं।
तृतीयेनार्जितः कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यति।।
 
अर्थ : जिसने प्रथम अर्थात ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्या अर्जित नहीं की, द्वितीय अर्थात गृहस्थ आश्रम में धन अर्जित नहीं किया, तृतीय अर्थात वानप्रस्थ आश्रम में कीर्ति अर्जित नहीं की, वह चतुर्थ अर्थात संन्यास आश्रम में क्या करेगा?
 
3. श्लोक : ।।विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
रुग्णस्य चौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।
 
अर्थात : प्रवास की मित्र विद्या, घर की मित्र पत्नी, मरीजों की मित्र औषधि और मृत्योपरांत मित्र धर्म ही होता है।
 
4. श्लोक : ।। मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्‌, मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।2।। (अथर्ववेद 3.30.3)
 
अर्थात : भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें। उक्त तरह की भावना रखने से कभी गृहकलय नहीं होता और संयुक्त परिवार में रहकर व्यक्ति शांतिमय जीवन जी कर सर्वांगिण उन्नती करता रहता।
 
श्लोक : ।।यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा विभेः।।1।।- अथर्ववेद
अर्थ : जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो।
 
अर्थात व्यक्ति को कभी किसी भी प्रकार का भय नहीं पालना चाहिए। भय से जहां शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं वहीं मानसिक रोग भी जन्मते हैं। डरे हुए व्यक्ति का कभी किसी भी प्रकार का विकास नहीं होता। संयम के साथ निर्भिकता होना जरूरी है। डर सिर्फ ईश्वर का रखें।
 
 
5. श्लोक : ।।अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्। अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम्।।
 
अर्थ : आलसी को विद्या कहां, अनपढ़ या मूर्ख को धन कहां, निर्धन को मित्र कहां और अमित्र को सुख कहां।
 
6. श्लोक : आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु:। नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
 
अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही (उनका) सबसे बड़ा शत्रु होता है। परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा) कोई अन्य मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता।
 
7. श्लोक : ।।सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्। वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।।
 
अर्थ : अचानक (आवेश में आकर बिना सोचे-समझे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए, कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है। (इसके विपरीत) जो व्यक्ति सोच-समझकर कार्य करता है, गुणों से आकृष्ट होने वाली मां लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।
 
8. श्लोक : ।।शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।। -उपनिषद्
 
अर्थ : शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है।
अर्थात : शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है। इसी के होने से सभी का होना है अत: शरीर की रक्षा और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। पहला सुख निरोगी काया।
 
9. श्लोक : ।। येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
 
अर्थ : जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग।
 
अर्थात : जिस मनुष्य ने किसी भी प्रकार से विद्या अध्ययन नहीं किया, न ही उसने व्रत और तप किया, थोड़ा बहुत अन्न-वस्त्र-धन या विद्या दान नहीं दिया, न उसमें किसी भी प्राकार का ज्ञान है, न शील है, न गुण है और न धर्म है। ऐसे मनुष्य इस धरती पर भार होते हैं। मनुष्य रूप में होते हुए भी पशु के समान जीवन व्यतीत करते हैं।
 
10. बुद्धिः कर्मानुसारिणी।।..बुद्धिर्यस्य बलं तस्य।। 
 
अर्थात बुद्धि कर्म का अनुसरण करती है। बुद्धि तलवार से अधिक शक्तिशाली है।

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