एक किस्सा हाथ लगा है। सुनाया है किसी बहुत अपने ने। कहानी-सा लगता है, पर है बिलकुल सच्चा। चौबीस कैरेट। उस शुद्ध रिश्ते की तरह जिसके बारे में यह है। जिन्होंने सुनाया उनकी उम्र है साठ बरस और यह उनकी भी नानी की कहानी है। यानी समझा जा सकता है कि कितनी पुरानी बात होगी।
जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर एक-एक करके नानी के सब अपने लोग बिछुड़ते चले गए थे। नानी को एक दिन खबर मिली कि उनके भाई भी नहीं रहे। बहुत कम,दिनभर में एकाध वाक्य बोलने वाली नानी उस दिन बोलीं कि आखिरी सहारा भी चला गया।
घर के लोगों को आश्चर्य हुआ यह भाई कौन थे? तब यह किस्सा खुला- अंग्रेजों का जमाना था। नानीजी अपनी बेटी के साथ ट्रेन में सफर कर रही थीं, जनाने डिब्बे में। तभी घोड़े पर सवार डाकू आए, ट्रेन को लूटने। जो कि उन दिनों सामान्य बात थी।
डाकू जनाने डिब्बे में घुसकर लूट मचाने लगे। शोरगुल सुनकर और यह जानकर कि डाकू आ गए हैं मर्दाने डिब्बे से कुछ लोग आ गए। मां-बेटी ने ज्यादा गहने नहीं पहने थे, लूटने को इनके पास कुछ था नहीं, तो खीजकर डाकू बच्ची को उठाकर ट्रेन से बाहर फेंकने लगे।
एक व्यक्ति ने उसे बचाया। बच्ची की मां से कहा, बहन घबराओ मत मैं हूं। यह बहन कहना कोरा शब्द नहीं था, पूरी जिंदगी यह संबंध निभाया गया। यह रक्षक मुस्लिम व्यक्ति था, मगर उन्होंने हिन्दू रीति-रिवाजों के तहत समय-समय पर ताउम्र भाई का रिश्ता निभाया। बच्ची की शादी में मायरा भी भरा।
इन मुंहबोले रिश्तों की भी अपनी दुनिया होती है। एक डॉक्टर साहिबा के यहां के शादी का एलबम देख रही थी। देखा एक महिला बड़ी प्रसन्नचित्त नाच रही है। रिश्ते में तो कुछ लगती नहीं थी, सो पूछा कौन है। पता चलता अठारह साल पहले एक बेहद कठिन प्रसव में डॉक्टर साहिबा ने इनकी जान बचाई थी, तब से वे डॉक्टर को मां मानती हैं। उस प्रसव में पैदा हुई बेटी भी नानी ही कहती है।
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ये दो उदाहरण तो ऐसे थे, जहां जान बचाने के कारण रिश्तों का अंकुर फूटा और पेड़ बना। लेकिन एक कहानी एक बार देखी थी उसमें तो सिर्फ और सिर्फ उदात्त भावनाओं की वजह से रिश्ता बना।
एक बच्ची के पिता नहीं होते हैं। वह सबसे पूछती है उसके पिता कहां गए तो जवाब मिलता है भगवान के घर। वह भगवान के घर का ऊटपटांग पता लिखकर, पिता को एक चिट्ठी लिखती है और लाल डिब्बे में डाल देती है। यह चिट्ठी एक पुरुष को मिलती है तो वह बच्ची से पिता बनकर ही मिलता है ताकि बच्ची का दिल न टूटे। और फिर वह इस रिश्ते को निभाता भी है।
दुनिया में खून के रिश्ते तो होते ही हैं। मतलब के रिश्ते भी होते हैं। काम में आने वालों के साथ रिश्ता बनाया जाता है, तभी दुनिया का व्यापार चलता है। मगर इन रिश्तों में स्वार्थ, वासना, लोभ, लालच की बू बैठ जाती है, जो मन को अपनेपन का सुकून देने से रोकती है।
इसीलिए कभी-कभी ऐसे रिश्ते भी बनते हैं जिनका संबंध न खून से होता है, न दुनियादारी से। ये रिश्ते मुंहबोले हों या अनकहे इनमें अलग ही सौंधापन होता है। ये मन ही नहीं, आत्मा को भी तृप्त करने की ताकत रखते हैं। बशर्ते कालांतर में इनमें भी वासना और स्वार्थ की बू न आ घुसे।