कोरोना काल ने कई दिलों को अच्छा/बुरा बदला। रिश्ते टूटे भी, जुड़े भी। जीने का अंदाज भी बदला। ऐसा ही किस्सा सामने आया। रुषी का पूरा परिवार कोरोना की चपेट में आ गया। खबर लगने पर पुष्पा दीदी ने उसे फोन किया। जग जाहिर है कि सिवाय सांत्वना और हिम्मत के कोई कुछ नहीं कर सकता है। ज्यादा से ज्यादा दौड़-भाग,आर्थिक मदद ही की जा सकती है। सभी हॉस्पिटल में थे।
दीदी के फोन से उसे बहुत ख़ुशी हुई। रुषी उम्र में उनसे छोटी है। पुष्पा दीदी को भाभी बोलती है। उनके बीच एक कॉमन दोस्त राना थी। जिसका कभी रुषी से बहुत अच्छा याराना रहा होगा। धीरे धीरे रुषी ने भाभी से बात करना शुरू की और बात निकली तो दूर तलक गई।
पुरानी बातें याद आईं। उसमें मालूम हुआ की पुष्पा दीदी के लिए राना ने बरसों से अनाप-शनाप बोल रखा था। कुछ बातें तो ऐसी मालूम हुईं कि दीदी हैरान रह गईं उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि राना के मन में इतना जहर और द्वेष था। जबकि सामने तो वो उन्हें मां समान मानती थी। यही नहीं रुषी ने कुछ सबूत और मैसेजेस भी दिखाए। जिनमें पुष्पा दीदी के बारे में अनर्गल लिखा हुआ था। रुषी बोली कि उसने हमेशा कहा कि यदि तुमने भाभी को बताया तो वो मेरी नौकरी खा लेंगी। उनको इस बात का कभी पता न चले कि मैं तुम्हें ऐसा बताती हूं।
जबकि पुष्पा दीदी और रुषी का कभी कोई लेने-देना ही नहीं रहा। राना के साथ काम करते समय यदि कोई बात मुंह से निकली भी हों तो उसे इस तरह से पेश करना कितना उचित है? जितना समय हम अपने परिवार के साथ नहीं गुजारते उससे कहीं ज्यादा हम अपने सहकर्मियों के साथ समय बिताते हैं। यदि किसी बात पर कोई हां-हुंकारी भी भर दे तो उसका बतंगड़ बना कर कांड बता देना कहां की समझदारी है? उस पर दोगलापंती ये कि आप जिनकी निंदा कर रहे हैं जमाने में उनके सामने चरण वंदना भी कर रहे। सच है दिलों में पलते धतूरे के बीजों का किसी को पता नहीं चलता।
ऐसे ही आशा दीदी के साथ भी हुआ। नंदा उनकी छोटी बहन है। उसको जब ही आशादीदी की याद आती जब उसको जहर या ग्लानि उगलनी होती। अपने बेटे के एडमिशन के समय सुसंपन्न नंदा का फोन आया कि कुछ पैसों की जरुरत है फीस भरनी है। पर मुझसे मिलना हो तो किसी गली में आ कर मिलना ताकि वो जिस भाई के घर रुकी है उन भाई-भौजी को मालूम न चले। क्योंकि आशा दीदी और उनमें संबंध अच्छे नहीं थे।
बेहद मौकापरस्त और मतलबी नंदा स्वार्थ में अंधी ये भूल गई कि उसने कई बरसों से आशा दीदी से कोई संबंध नहीं रखे थे। उल्टा पैसों के इंकार पर मूर्खतापूर्ण सफाई दी कि मुझे तो एक ज्योतिषी ने कहा था कि कर्जे के पैसों से पढ़ाओगे तो फलेगा। यहां ये जानना जरुरी है कि नंदा उच्च शिक्षित महिला है। रही कर्ज की बात तो वो तो उनसे भी लिया जा सकता था जिनसे कथित अच्छे संबंध थे, जिनसे छुप कर उज्जैन की गलियों में आशादीदी से मुलाकातें करना थीं। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई उसके बाद नंदा को हार्ट प्रॉब्लम हुई और आई.सी.यू. से निकलते ही फिर से बड़े अन्तराल के बाद इसका आत्मग्लानि से भरा फोन आया जिसमें इसने परिवार में किये अपने रवैये को लेकर सफाइयां देनी शुरू की और फूट फूट कर रोई।
कहती है कि भाई-भाभी ने कहा था कि आशा दीदी से व्यवहार रखोगे तो हमसे मत रखना इसलिए मजबूर थी। नंदा ने आशा दीदी को कुछ महीनों पहले ही हुए खुद के बेटे के विवाहोत्सव की न कोई खबर दी थी नहीं कोई निमंत्रण। बावजूद इसके बेशर्मी से खुद को मासूम और नादान बताए जा रही थी और बुरे का ठीकरा भाई-भाभी के सर फोड़े जा रही थी। बात चली तो फिर से दूर तलक चली और आशादीदी कोरोना की चपेट में आ गईं। गंभीर अवस्था में पहुंच गईं, मुश्किल से बचीं। सारे रिश्तेदारों ने उनकी खैर-खबर ली, प्रार्थनाएं करीं। वो ठीक भी हो गईं। पर आज तक नंदा का फोन या कोई खबर आशा दीदी की खैरियत को नहीं आई।
जबकि सोशल मीडिया पर नंदा की घुसपैठ और जासूसी निरंतर जारी है। आशा दीदी की फ्रेंड लिस्ट में भी शामिल है। पर बस नहीं है तो रिश्ते निभाने की कुव्वत। क्योंकि ऐसे लोग केवल खुदपरस्त होते हैं। बिना रीढ़ के। लुढ़कते बैंगन। जिन्हें हर बात के लिए “किसी को पता न चले बात का...” की बैसाखी ले कर ही जीना पड़ता है। बेचारे जानते नहीं कि दुनिया गोल है। बातें घूम कर वहीँ लौटतीं हैं जहां से चलतीं है. सदाएं लौट कर फिर.... फिर आतीं हैं...