श्रीनगर। ऐसे में जबकि कश्मीर में पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनावों के लिए मतदान अब अंतिम चरण में है, पर बढ़ती आतंकी हिंसा ने सबको परेशान कर दिया है। दरअसल, सुरक्षाबल प्रत्येक उम्मीदवार को सुरक्षा मुहैया करवाने से इंकार कर चुके हैं, खासकर पंचायत चुनाव में। ऐसे में उम्मीदवारों के पास जान हथेली पर रखकर मैदान में उतरने के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं है।
यह भी सच है कि सुरक्षाबलों और राज्य सरकार के दावों के बावजूद इस सच्चाई से मुख नहीं मोड़ा जा सकता कि कश्मीर में फैले आतंकवाद में राजनीतिज्ञ आतंकियों के नर्म लक्ष्य रहे हैं। कश्मीर में होने वाले हर किस्म के चुनावों में आतंकियों ने राजनीतिज्ञों को ही निशाना बनाया है। उन्होंने न ही पार्टी विशेष को लेकर कोई भेदभाव किया है और न ही उन राजनीतिज्ञों को ही बख्शा जिनकी पार्टी के नेता अलगाववादी सोच रखते हों।
यह इसी से स्पष्ट होता है कि पिछले 30 सालों के आतंकवाद के दौर के दौरान सरकारी तौर पर आतंकियों ने 766 के करीब राजनीति से सीधे जुड़े हुए नेताओें को मौत के घाट उतारा है। इनमें ब्लॉक स्तर से लेकर मंत्री और विधायक स्तर तक के नेता शामिल रहे हैं। हालांकि वे मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री तक नहीं पहुंच पाए लेकिन ऐसी बहुतेरी कोशिशें उनके द्वारा जरूर की गई हैं।
राज्य में विधानसभा चुनावों के दौरान सबसे ज्यादा राजनीतिज्ञों को ही निशाना बनाया गया है। इसे आंकड़े भी स्पष्ट करते हैं। वर्ष 1996 के विधानसभा चुनावों में अगर आतंकी 75 से अधिक राजनीतिज्ञों और पार्टी कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतारने में कामयाब रहे थे तो वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव उससे अधिक खूनी साबित हुए थे, जब 87 राजनीतिज्ञ मारे गए थे।
अब जबकि राज्य में पंचायत चुनाव करवाए जाने की चर्चा हो रही है, तो आतंकी भी अपनी मांद से बाहर निकलते जा रहे हैं। उन्हें सीमापार से दहशत मचाने के निर्देश दिए जा रहे हैं। हालांकि बड़े स्तर के नेताओं को तो जबरदस्त सिक्यूरिटी दी गई है, पर निचले और मझौले स्तर के नेताओं को चुनाव प्रचार के लिए बाहर निकलने में खतरा महसूस हो रहा है, ऐसी चिंताएं प्रकट की जा रही हैं।
ऐसा भी नहीं था कि बीच के वर्षों में आतंकी खामोश रहे हों बल्कि जब भी उन्हें मौका मिलता, वे लोगों में दहशत फैलाने के इरादों से राजनीतिज्ञों को जरूर निशाना बनाते रहे थे। अगर वर्ष 1989 से लेकर वर्ष 2005 तक के आंकड़ें लें तो 1989 और 1993 में आतंकियों ने किसी भी राजनीतिज्ञ की हत्या नहीं की और बाकी के वर्षों में यह आंकड़ा 8 से लेकर 87 तक गया है। इस प्रकार इन सालों में आतंकियों ने कुल 766 राजनीतिज्ञों को मौत के घाट उतार दिया।
अगर वर्ष 2008 का रिकॉर्ड देखें तो आतंकियों ने 16 के करीब कोशिशें राजनीतिज्ञों को निशाना बनाने की अंजाम दी थीं। इनमें से वे कइयों में कामयाब भी रहे थे। चौंकाने वाली बात वर्ष 2008 की इन कोशिशों की यह थी कि यह लोकतांत्रिक सरकार के सत्ता में रहते हुए अंजाम दी गई थीं जिस कारण जनता में जो दहशत फैली वह अभी तक कायम है।