गायत्री शर्मा
वो बचपन की यादें
वो आधी-अधूरी मुलाकातें
आज अनायास ही छा जाती हैं
मेरे स्मृति पटल पर।
वो बचपन के दिन भी थे
बड़े सुहाने।
दीदी मुझे याद है
आज भी वो गुजरे जमाने।
पापा की वो तीखी
डॉट-फटकार
और माँ की आँखों से
छलकता वो प्यार।
हमारा वो
गिल्ली-डंडे और
गुड्डे-गुडियों
का खेल।
दीदी, हमने भी तो बनाई थी
कभी दोस्तों की एक रेल।
तुम बनती थी रेल का डिब्बा
और मैं बन जाता था इंजन।
एक अटूट प्रेम और विश्वास से
बँधा था हमारा वो बंधन।
देखते ही देखते वक्त गुजरता गया,
हम यहीं रह गए और हमारा बचपन
चंद लम्हों में बीत गया।
अब तो बस शेष हैं कुछ यादें।