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अखंड झरना बहा कर चले गए

पंडित भीमसेन जोशी का देहावसान

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, सोमवार, 24 जनवरी 2011 (12:35 IST)
रवीन्द्र व्यास
कभी-कभी ईश्वर किसी पर इतना कृपालु हो जाता है कि वह ईश्वर के देवदूत में बदल जाता है। लगता है जैसे ईश्वर ने अपनी ही इच्छा को पूरा करने के लिए उस देवदूत को चुना। वह किसी में अपना देवदूत इसलिए चुनता है कि वह देवदूत पृथ्वी पर जाकर कुछ ऐसा करे कि उसके साथ ही उसकी कला के संपर्क में आना वाला भी अपने जीवन में ऐसे मधुरतम अनुभव हासिल करे जो जीवन को ज्यादा बेहतर, ज्यादा संवेदनशील बना सके।

जीवन में महक पैदा कर सके। किसी दिन शुभ मुहूर्त में ईश्वर ने अपने देवदूत के रूप में पंडित भीमसेन जोशी को चुना होगा। कि यह देवदूत अपनी साधना और तप से, अपने सुरीले कंठ और अपनी खनकदार गायकी से लोगों को आजीवन तृप्त कर सके। उनके तपते मन पर शीतल जल की बौछारें कर दे। उनका ताप हर ले।

बस तभी से पंडित भीमसेन जोशी ईश्वर के दूत बनकर अपने कंठ से वह अखंड झरना बहाए चले गए जिसमें स्नान करते हुए रसिकजन अपने को धन्य-धन्य समझते रहे।

यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि वर्तमान हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत परिदृश्य में पंडित भीमसेन जोशी का कद और गायकी अतुलनीय है। उनकी आवाज का स्पर्श पाकर हर सुर गमकने लगता था। उनकी आवाज में राग किसी मेहराबदार महल के रूप में साकार होकर चमकने लगता।

हम उस राग का वैभव देखकर चमत्कृत हो उठते। यह उनकी कल्पनाशीलता, संगीत के प्रति समर्पण का ही प्रताप था कि वे जो भी गाते हैं, हमें उसका अलौकिक रस प्राप्त होता।

उनके बालमन में शायद यही धुन सवार थी कि उन्हें गायक बनना है। संगीत के प्रति उनका प्रेम अगाध था और यही कारण है कि मन में गूँजते किसी सुर को पकड़ते घर से दूर भाग गए... हमेशा-हमेशा के लिए संगीत की स्वर लहरियों पर सवार होने के लिए।

उन्हें जब भारत रत्न दिया गया तब मुझे लगा कि हमारी सरकार किसी महान कलाकार को पुरस्कार तब देती है जब वह अपना सब कुछ कला को समर्पित करते हुए अपने जीवन की संध्याबेला में अस्वस्थ हो जाता है।

कभी-कभी लगता है कि आखिर सरकार किसी कलाकार को यह सम्मान तब क्यों नहीं देती जब कलाकार अपनी कला के शिखर पर होता है, अपने चरम पर होता है। लेकिन फिर यह भी सोचता हूँ कि कलाकार ये पुरस्कार लेते हुए ज्यादा खुश भी नहीं होते होंगे क्योंकि लोगों से जो प्रेम उन्हें मिल चुका होता है वह उनके जीवन का असल पुरस्कार होता है। क्या भारतरत्न पुरस्कार मिलने पर पंडितजी भी ऐसा ही नहीं सोचा होगा?

ईश्वर का यह दूत तो अपने कंठ से बहते सुरों के अखंड झरने से तमाम रसिकजनों को तृप्त कर रहा था। आज वह झरने की कलकल अवश्य खामोश हुई लेकिन हम सब उन्हें सादर नमन करते हैं कि अपने कंठ से उन्होंने हमारा जीवन सुरीला बनाया। उनका स्वर सान्निध्य हमारे साथ हमेशा रहेगा।

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