भगवान विष्णु के छठे आवेश अवतार परशुराम की जयंती वैशाख शुक्ल तृतीया को आती है। इस बार यह जयंती 14 मई 2021 शुक्रवार को है। भगवान परशुराम की गणना सप्त चिरंजीवी महापुरुषों में की जाती है। आओ जानते हैं भगवान परशुरामजी के बारे में 10 अनसुने राज।
1. जन्म स्थान : भृगुक्षेत्र के शोधकर्ता साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय के अनुसार परशुराम का जन्म वर्तमान बलिया के खैराडीह में हुआ था। एक अन्य किंवदंती के अनुसार मध्यप्रदेश के इंदौर के पास स्थित महू से कुछ ही दूरी पर स्थित है जानापाव की पहाड़ी पर भगवान परशुराम का जन्म हुआ था। एक तीसरी मान्यता अनुसार छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में घने जंगलों के बीच स्थित कलचा गांव में उनका जन्म हुआ था। एक अन्य चौथी मान्यता अनुसार उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के जलालाबाद में जमदग्नि आश्रम से करीब दो किलोमीटर पूर्व दिशा में हजारों साल पुराने मन्दिर के अवशेष मिलते हैं जिसे भगवान परशुराम की जन्मस्थली कहा जाता है।
2. परशुराम के गुरु : परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वमित्र और भगवान शंकर से प्राप्त हुई। च्यवन ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया। परशुराम योग, वेद और नीति में पारंगत थे। ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी वे पारंगत थे। उन्होंने महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की।
3. परशुराम के शिष्य : त्रैतायुग से द्वापर युग तक परशुराम के लाखों शिष्य थे। महाभारतकाल के वीर योद्धाओं भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने वाले गुरु, शस्त्र एवं शास्त्र के धनी ॠषि परशुराम का जीवन संघर्ष और विवादों से भरा रहा है।
4. श्रीकृष्ण को दिया सुदर्शन चक्र : द्वापर युग में पद्मावत राज्य में वेण्या नदी के तट पर भगवान परशुराम निवास करते थे। जरासंध के आक्रमण के दौरान बलराम और श्रीकृष्ण ने दक्षिण से सहायता हेतु दक्षिण प्रदेश की यात्रा की। दाऊ से विचार-विमर्श कर श्रीकृष्ण ने निर्णय लिया कि सबसे पहले परशुरामजी से मिला जाए। कई नदियों और जंगल को पार करने के बाद दोनों परशुरामजी के आश्रम पहुंच गए। आश्रम के प्रदेश द्वार पर भृगुश्रेष्ठ परशुराम और सांदीपनि उनके स्वागत के लिए खड़े थे। दोनों ने श्रीकृष्ण और दाऊ को गले लगा लिया। आश्रम में परशुराम ने सभी को फलाहार खिलाया और सभी के रुकने और विश्राम करने की व्यवस्था की और बाद में उचित समय पर श्रीकृष्ण को सुदर्शन की दीक्षा देकर उन्हें सुदर्शन चक्र दिया।
5. राम को दिया धनुष : राजा जनक की सभा में जब श्रीराम ने शिवजी का धनुष तोड़ दिया था तो परशुरामजी यह समाचार सुनकर वहां उपस्थित हो गए थे और क्रोध करने लगे थे। उनका लक्ष्मणजी से वाद विवाद हुआ और फिर जब उन्हें पता चला कि प्रभु श्रीराम तो स्वयं विष्णु ही है तो उन्होंने उनके पास का धनुष उन्हें उपहार स्वरूप दे दिया।
6. परशुराम के युद्ध : परशुरामजी का सबसे भयंकर युद्ध हैहयवंशी राजाओं से हुआ था जिसमें परशुरामजी ने उनका समूल नाश कर दिया था। उनका गणेशजी, शंकर, हनुमानजी, भीष्मजी आदि कई महारथियों से युद्ध हुआ था।
7. चारों युग में परशुराम : सतयुग में जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया तो, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार कर दिया, जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए। त्रेतायुग में जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया। द्वापर में उन्होंने कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया और इससे पहले उन्होंने श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध करवाया था। द्वापर में उन्होंने ही असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्र विद्या प्रदान की थी। इस तरह परशुराम के अनेक किस्से हैं।
8. चिरंजीवी हैं परशुराम : कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। कहते हैं कि वे कलिकाल के अंत में उपस्थित होंगे। ऐसा माना जाता है कि वे कल्प के अंत तक धरती पर ही तपस्यारत रहेंगे। पौराणिक कथा में वर्णित है कि महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तप की जगह थी और अंतत: वह उसी पर्वत पर कल्पांत तक के लिए तपस्यारत होने के लिए चले गए थे।
9. बत्तीस हाथ ऊंची सोने की वेदी : भगवान परशुराम जी ने यज्ञ करने के लिए बत्तीस हाथ ऊंची सोने वेदी बनवा थी और उसमें सैकड़ों यज्ञ किए थे। बाद में इस बेदी को महर्षि कश्यप ने ले लिया था और परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा था। तब परशुराम जी ने उनकी बात मान ली और समुद्र को पीछे हटाकर गिरिश्रेष्ठ महेंद्र पर चले गए।
10. केरल बनाया परशुरामजी ने : मान्यता अनुसार परशुरामजी ने हैययवंशी क्षत्रियों से धरती को जीतकर दान कर दी थी। जब उनके पास रहने के लिए कोई जगह नहीं बची तो वे सह्याद्री पर्वत की गुफा में बैठकर वरुणदेव की तपस्या करने लगे। वरुण देवता ने परशुरामजी को दर्शन दिए और कहा कि तुम अपना फरसा समुद्र में फेंको। जहां तक तुम्हारा फरसा समुद्र में जाकर गिरेगा, वहीं तक समुद्र का जल सूखकर पृथ्वी बन जाएगी। वह सब पृथ्वी तुम्हारी ही होगी। परशुरामजी के ऐसा करते पर समुद्र का जल सूख गया और जो भूमि उनको समुद्र में मिली, उसी को वर्तमान को केरल कहते हैं। परशुरामजी ने सर्वप्रथज्ञ इस भूमि पर विष्णु भगवान का मंदिर बनाया। कहते हैं कि वही मंदिर आज भी 'तिरूक्ककर अप्पण' के नाम से प्रसिद्ध है। जिस दिन परशुरामजी ने मंदिर में मूर्ति स्थापित की थी, उस दिन को 'ओणम' का त्योहार मनाया जाता है।
11. परशुराम थे पहले कावड़िये : कावड़ लाकर भोले नाथ का जलाभिषेक करने की शुरुआत कब और कहाँ से हुई कुछ ठीक तरह से कहना मुश्किल है। पर यह जरूर कहा जा सकता है कि भगवान परशुराम पहले कावड़िये थे जिन्होंने गंगा जल से भगवान शिव का जलाभिषेक किया। परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा मानते हुए कजरी वन में शिवलिंग की स्थापना की। वहीं उन्होंने गंगा जल लाकर इसका महाभिषेक किया। इस स्थान पर आज भी प्राचीन मंदिर मौजूद है। कजरी वन क्षेत्र मेरठ के आस पास ही स्थित है। जिस स्थान पर परशुराम ने शिवलिंग स्थापित कर जलाभिषेक किया था। उस स्थान को 'पुरा महादेव' कहते हैं।