सूर्य, विष्णु और तुलसी देते हैं इस दिन विशेष वरदान
देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्णु अपनी शेष शैय्या पर योगनिद्रा से जाग जाते हैं। इसी दिन से सभी मंगल कार्य शुरू हो जाते हैं। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी देवउठनी एकादशी के नाम से पूजनीय मानी जाती है।
शास्त्रों में इस एकादशी को अनेक नामों से संबोधित किया गया है, जिसमें प्रबोधिनी एकादशी, देवोत्थान एकादशी, देवठान एकादशी आदि प्रमुख रूप से उल्लेखित है। आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुरूप यह विश्वास किया जाता है कि आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की हरिशयनी एकादशी को शयन प्रारंभ करने वाले भगवान विष्णु प्रबोधिनी एकादशी को जागृत हो जाते हैं।
वास्तव में देव सोने और देव जागने का अंतरंग संबंध सूर्य वंदना से है। आज भी सृष्टि की क्रियाशीलता सूर्य पर निर्भर है और हमारी दैनिक व्यवस्थाएं सूर्योदय से निर्धारित होती हैं। प्रकाश पुंज होने के नाते सूर्य देवता को भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना गया है क्योंकि प्रकाश ही परमेश्वर है। इसलिए देवउठनी एकादशी पर विष्णु सूर्य के रूप में पूजे जाते हैं। यह प्रकाश और ज्ञान की पूजा है। वेद माता गायत्री भी तो प्रकाश की ही प्रार्थना है।
प्रबोधिनी एकादशी असल में उसी विश्व स्वरूप की आराधना है जो भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करने के बाद दिखाया था। यह परमात्मा के अखंड तेजोमय स्वरूप की आराधना है क्योंकि परमात्मा ने जब सृष्टि का सृजन किया तब उनके पास कोई सामान नहीं था। जब शरद ऋतु आती है तब बादल छंट जाते हैं, आसमान साफ हो जाता है, सूर्य भगवान नियमित दर्शन देने लगते हैं। इस तरह इन्हें प्रबोधित, चैतन्य व जागृत माना जाता है और कार्तिक शुक्ल एकादशी को देव उठने का पर्व मनाया जाता है। यह समस्त मंगल कार्यों की शुरुआत का दिन माना जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पूरे देव वर्ग का नाम आदित्य या सूर्य था जिसके प्रमुख देव भगवान विष्णु थे।
पुराणों में सूर्योपासना का उल्लेख मिलता है और बारह आदित्यों के नाम भी उल्लेखित हैं जो इस प्रकार हैं : इंद्र, धातृ, भग, त्वष्ट, मित्र, वरुण, अयर्मन, विवस्वत, सवितृ, पूलन, अंशुमत और विष्णु। चूंकि चराचर जगत हरिमय है इसलिए ग्यारह आदित्य भी विष्णु के ही रूप हैं। इसलिए आदित्य व्रत करने की अनुशंसा की गई है।
यह व्रत रविवार को किया जाता है और प्रत्येक रविवार को एक वर्ष तक सूर्य पूजन किया जाता है। एकादशी व्रत अपने आप में विष्णु को समर्पित है। सूर्य के प्रकाश का मानव की पाचन शक्ति से भी संबंध है। चातुर्मास में सूर्य का प्रकाश नियमित न होने से पाचन शक्ति गड़बड़ा जाती है। इसलिए अनेक भक्तगण चातुर्मास में एक बार ही भोजन करते हैं। फिर देवउठनी एकादशी से सूर्य के नियमित प्रकाश से पाचन क्रिया पुनः उत्तेजित हो जाती है। सूर्य आयुष और आरोग्य के अधिष्ठाता भी माने गए हैं।
देवउठनी एकादशी से तुलसी विवाह व तुलसी पूजन का भी विधान है। एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक तुलसी विवाह के अंतर्गत नियमित रूप से तुलसी व भगवान विष्णु का पूजन होता है। तुलसी को नियमित रूप से जल अर्पण करना भारतीय संस्कृति का अंग बन चुका है और तुलसी की औषधीय क्षमताओं को वैज्ञानिक भी स्वीकार कर चुके हैं। इसलिए इस एकादशी से तुलसी विवाह और उसके साथ ही परिणय मंगल के शुरू होने की चिरायु परंपरा हमारे संस्कारों में विद्यमान है।