हिन्दी में प्रवासी साहित्य : सौगात...

लावण्या शाह
जिस दिन से चला था मैं, 
वृंदावन की सघन घनी,
कुंज-गलियों से, 
राधे, सुनो तुम मेरी मुरलिया,
फिर ना बजी,
किसी ने तान वंशी की
फिर ना सुनी।
 
वंशी की तान सुरीली, 
तुम-सी ही सुकुमार,
सुमधुर, कली-सी, 
मेरे अंतर में, 
घुली-मिली-सी, 
निज प्राणों के कंपन-सी,
अधर रस से पली-पली-सी।
 
तुम ने रथ रोका- अहा! राधिके!
धूलभरी ब्रज की सीमा पर, 
अश्रुरहित नयनों में थी,
पीड़ा कितनी सदियों की।
 
सागर के मंथन से,
निपजी, भाव माधुरी,
सौंप दिए सारे बीते क्षण,
वह मधु-चन्द्र-रजनी, 
यमुना जल कण, सजनी।
 
भाव सुकोमल सारे अपने,
भूत भव के सारे वे सपने,
नीर छ्लकते हलके-हलके,
सावन की बूंदों का प्यासा,
अंतरमन चातक पछतता,
स्वाति बूंद तुम अंबर पर,
गिरी सीप में मोती बन।
 
मुक्ता बन मुस्कातीं अविरल,
सागर मंथन-सा मथता मन,
बरसता जल जैसे अंबर से,
मिल जाता दृग अंचल पर।
 
सौंप चला उपहार प्रणय का,
मेरी मुरलिया, मेरा मन,
तुम पथ पर निस्पंद खड़ी, 
तुम्हें देखता रहा मौन शशि,
मेरी आराध्या, प्राणप्रिये, 
मनमोहन मैं, तुम मेरी सखी।
 
आज चला वृंदावन से,
नहीं सजेगी मुरली कर पे,
अब सुदर्शन चक्र होगा हाथों पे,
मोर पंख की भेंट तुम्हारी, 
सदा रहेगी मेरे मस्तक पे।
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