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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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प्रवासी साहित्य : बरसाती रात शहर की...

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वह बरसाती रात शहर की, वह चौड़ी सड़कें गीली,
बिजली की रोशनी बिखरती थी जिन पर सोनापीली।
 
दूर सुनाई देती थी वह सरपट टापों की पट-पट,
कभी रात के सूनेपन में नन्ही बूंदों की आहट।
 
आती-जाती रेलगाड़ियां भी तो एक गीत गातीं,
कहीं किसी की आशा जाती, कहीं किसी की निधि आती।
 
पार्क सिनेमा सभी कहीं ये बूंदें बरस रही होंगी,
किसे ज्ञात मेरी आंखें अब किसको खोज रही होंगी।
 
घर न कर सका कभी किसी के मन में मैं जो अभिशापित, 
सोच रहा हूं अपने घर से भी अब मैं क्यों निर्वासित।
 
यही महीना गए साल जब बरसा था जमकर पानी,
रातोरात द्वार पर कामिनी फूल उठी थी मनमानी।
 
तीव्र गंध थी भरी हृदय में, सहज खुल गई थीं आंखें,
आज यहां मन मारे बैठा मन-पंछी भीगी पांखें।
 
छोड़ समंदर की लहरों की नीलम की शीतल शय्या,
आती थी वह बंगाले से जंगल-जंगल पुरवय्या।
 
झीनी बूंदों बीनी धानी साड़ी पहने थी बरसात,
गरज-तरजकर चलती थी, वह मेघों की मदमत्त बरात।
 
झर लगता था और वहीं पर बूंदें नाचा करती थीं,
बाजे-से बजते पतनाले, सड़क लबालब भरती थीं।
 
कुरता चिपका जाता तन पर, धोती करती मनमानी,
छप-छप करते थे जूते जब, बहता था सिर से पानी।
 
भरी भरन उतरी सिर पर से, कहां साइकिल चलती थी,
घर के द्वारे कीच-कांद थी, चप्पल चपल फिसलती थी।
 
प्यारी थी वह हुम्मस धमस भी, खूब पसीने बहते थे,
अब आई पुरवय्या, आया पानी कहते रहते थे।
 
बरसे राम बवे दुनिया, यों चिल्ला उठते थे लड़के,
रेला आया, बादल गरजे, कड़क-कड़क बिजली तड़पे।
 
कितनी प्यारी थीं बरसातें, हरे-हरे दिन, नीली रातें,
रंग-रंगीली सांझ सुहानी, धुली-धुलाई सुन्दर प्रातें।
 
आई है बरसात यहां भी, आज ऊझना, कल झर था,
होते यों दिन-रात यहां, पर अंतर धरती-अंबर का।
 
यहां नहीं अमराई प्यारी, यहां नहीं काली जामुन,
है सूखी बरसात यहां की मोर उदासा गर्जन सुन।
 
इन तारों के पार कहीं उड़ जाने को कहतीं आंखें,
पर मन मारे बैठा मेरा मन-पंछी, भीगी पांखें।
 
-नरेन्द्र शर्मा
 
-1943
 

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