'हां! मैं हिन्दी हूं' और यह है मेरे भीतर का द्वंद्व, जो केवल मेरे भीतर का ही द्वंद्व नहीं है, वरन मेरे जैसे कई-कई भारतीयों के भीतर का द्वंद्व है।
समय था वो अद्भुत जब चित्रा मुद्गलजी से मेरी अमेरिका में हिन्दी की ही एक दूसरी वरिष्ठ रचनाकार सुधा ओम ढींगराजी के घर पर निजी मुलाकात हुई। वहां पर हिन्दी साहित्य जगत के कई दिग्गज रचनाकार पधारे थे। अवसर था ढींगरा फाउंडेशन द्वारा आयोजित सम्मान समारोह का जिसमें अमेरिका की सरकार द्वारा 3 महान रचनाकारों को सम्मानित किया जाना था।
समारोह से पहले मैं धीरे से उनके कमरे में गई और बातचीत के दौरान मैंने कहा कि 'आपका कार्य महान है, मैं तो कुछ भी नहीं हूं।'
उन्होंने बड़ी विनम्रता से से मेरा हाथ पकड़कर कहा कि यह 'नहीं' शब्द हटा दो और अपने आप से कहो कि 'मैं बहुत कुछ हूं'। जो तुम्हारे भीतर का द्वंद्व है, वो कइयों के भीतर का द्वंद्व हो सकता है। लोग कह नहीं सकते हैं, परंतु तुम्हारे पास वो कला है, जो दूसरों के भीतर के द्वंद्व को तुम शब्द दे सकती हो, कह सकती हो, फिर देखो।
उनकी कही गई यह बात मेरे भीतर कहीं गहरे से उतर गई। बाद के दो दिन मेरे जीवन के दो मूल्यवान यादगार दिन बन गए, जब कई वरिष्ठ लेखकों के साथ अच्छा समय गुजारने का अवसर मिला। उन्हें करीब से जानने का, समझने का अवसर मिला और बहुत सारी जानकारी मिली।
पता चला कि अगला विश्व हिन्दी सम्मलेन भोपाल में संपन्न होने जा रहा था। अरे वाह! लगा जैसे घर में ही होने जा रहा हो (इंदौर की होने की वजह से भोपाल से करीबी-सा रिश्ता लगता है)।
'आप भी जा रही हैं भोपाल?' मैंने बातचीत के दौरान चित्राजी से पूछा।
'हां, मैं भी भोपाल जा रही हूं विश्व हिन्दी सम्मलेन में सम्मिलित होने। पूरे 32 वर्षों बाद भारत में विश्व हिन्दी सम्मलेन संपन्न हो रहा है।' यह सुनकर मैं चौंक पड़ी।
मैं हिन्दी जगत में अभी बहुत ही नई हूं, मेरी तो ठीक से पहचान भी नहीं बनी है और अधिक जानकारी भी नहीं है। मेरा अगला प्रश्न स्वाभाविक था कि क्यों, ऐसा क्यों? क्या कारण है?
उसके बाद जो जवाब चित्राजी ने दिया, उसे सुनकर मुझे एक धक्का-सा लगा। मैं सोचने पर मजबूर हो गई और मेरे भीतर में एक द्वंद्व छिड़ गया है। क्यों आखिर ऐसा क्यों? क्यों हमारे ही देश में हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ यह दुर्व्यवहार क्यों? इन सबके पीछे कौन से राजनीतिक कारण हैं? कौन से सामाजिक कारण हैं? क्या कभी हमने सोचा है?
जब एक भाषा अपना अस्तित्व खो देती है तो उसके साथ जुड़ीं कई संस्कृतियां, कई सभ्यताएं, कई महान विचारधाराएं, इतिहास का एक महत्वपूर्ण भाग खो जाता है, विलुप्त हो जाता है सदा-सदा के लिए। मानव जीवन के कोमल अंश, वो नानी-दादी के किस्से, लोककथाएं, हमारे आज को हमारे गुजरे कल से जोड़ने वाला सेतु विलुप्त हो जाता है और आने वाले भविष्य को अंधकार में डुबोता है।
मैं सिन्धी होने के नाते इस वेदना, इस पीड़ा को भली-भांति समझती हूं। इतिहास गवाह है कि विभाजन के उपरांत सिन्धी हिन्दुओं को सिन्ध छोड़कर अपने घर-बार, जमीनें, व्यापार, नौकरियां छोड़कर जब नए भारत में पलायन करना पड़ा था। बेघर सिन्धी अपने अस्तित्व और अपने बच्चों को बचाने के लिए सारे भारत में रोजगार के अवसर जुटाने के लिए फैल गए थे।
कठिन समय और चुनौतियों का सामना करते-करते आज सिन्धियों ने अच्छी हैसियत बना ली है, परंतु इस संघर्ष में हमारी पहली पीढ़ी, जो सिन्धी बोलने के साथ लिख-पढ़ पाती थी, तीसरी पीढ़ी बमुश्किल सिन्धी भाषा समझ पाती है और चौथी पीढ़ी सिन्धी समझ भी नहीं पाती है। हम इसका जीवंत उदाहरण हैं।
वह हिन्दू सिन्धियों की उस समय मजबूरी थी, परंतु आज भारत में हमारी ऐसी कौन सी मजबूरी है? क्या कभी हमने इस बारे में सोचा है? देश के बुद्धिजीवी समय-समय पर इस विषय पर चिंता जताते रहते हैं और इसके दुष्परिणामों से हमें अवगत कराते रहते हैं।
चीन के नेता विश्व में हर राजनीतिक दौरे पर अपनी चीनी भाषा में ही भाषण देते हैं, फिर चीन विश्व दूसरी बड़ी आर्थिक शक्ति भी है। दूसरी और हमारी मानसिकता है कि हम हमारे बच्चों को अंग्रेजी की ओर धकेल रहे हैं।
अंग्रेजों से पीछा छुड़ाकर हमने आजादी तो हासिल कर ली, परंतु अंग्रेजी भाषा की हमने गुलामी कर ली है। माना कि आज का दौर ग्लोबल वर्ल्ड का है और अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा है, परंतु सिर्फ अंग्रेजी को अहमियत देना और हिन्दी को पीछे धकेलना हमारी शिक्षा प्रणाली की दकियानूसी मानसिकता का प्रतीक है, ऊपर से हमारी प्रांतीय राजनीतिक मानसिकता ने आग में घी का काम किया है।
एक बार यहां पर एक शोध किया गया यह जानने के लिए कि आप किस भाषा में सपने देखते हैं? कई लोगों से पूछने के बाद बड़ा ही रोचक तथ्य सामने आया कि आप जिस भाषा में सपने देखते हैं, वही आपकी मातृभाषा होती है।
मैं सिन्धी हूं, पर मुझे सपने हिन्दी में आते हैं। जी हां, मेरी मातृभाषा हिन्दी है। मैं हिन्दी हूं, मेरी पहचान हिन्दी है जिसने मेरी सोच को शब्द दिए हैं, मेरी भावनाओं को शब्द दिए हैं, मेरा मुझसे परिचय कराया है कि मैं कौन हूं, मैं क्या सोचती हूं, यह संसार क्या है, किस आधार पर चलता है, उसे चलाने वाला कौन है? इन सभी का अनुभव मुझे हिन्दी ने कराया है।
हिन्दी सिर्फ मेरी ही नहीं, 41 प्रतिशत भारतीयों की मातृभाषा है जिसे भारत देश की राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला है। परंतु क्या हिन्दी को भारत देश में वो उचित सम्मान, वो अधिकार मिला है? जिसकी वह अधिकारी है।
शोध का एक और रोचक तथ्य था कि एक इंसान एक से अधिक भाषाओं में भी सपने देख सकता है जिन भाषाओं पर उसका अच्छा नियंत्रण हो। मानव मस्तिष्क में अपार संभावनाएं होती हैं, विज्ञान इस तथ्य को प्रमाणित कर चुका है। सारी धाराएं एक ही सागर में जाकर मिलती हैं। मानव मस्तिष्क एक सागर की तरह होता है जिसमें भाषारूपी कई धाराएं समा सकती हैं। फिर मेरी भाषा, तुम्हारी भाषा का यह झगड़ा ही क्यों है?
मेरी मातृभूमि भारत है, मेरी मातृभाषा हिन्दी है, परंतु अब मैं अमेरिका निवासी हूं तो मेरी पहचान भारतीय-अमेरिकी है और मेरी भाषाओं में अंग्रेजी का नाम भी जुड़ चुका है। किंतु जीवन में आगे बढ़ने के लिए आज भी मेरे सपनों का माध्यम हिन्दी ही है मेरी अपनी भाषा, जो मुझे मां की तरह दुलारती है। खुशी में हंसाती है, दुःख में दिलासा देती है, मेरी संवेदनाओं को शब्द देती है।
भारत की सभी भाषाएं पूज्यनीय हैं और सगी बहनों ही तरह हैं। एक भी भाषा के बिना भारतीय भाषा-परिवार अधूरा है और परिवार की बड़ी बहन है हिन्दी जिसके साथ उसी के परिवार में सौतेला व्यवहार होता है। क्या यह उचित है?
विदेशों में बसे कई विद्वान आज हिन्दी के गौरव को बचाने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदीजी अलग-अलग देशों की यात्रा कर भारत की आर्थिक स्थिति के साथ हिन्दी भाषा के सम्मान को मजबूती प्रदान करने और विश्व में उसे उचित स्थान दिलाने के अथक प्रयास में लगे हैं।
जब भारत में हिन्दी को उसका उचित स्थान मिल जाएगा, तब हमें किसी नोबेल पुरस्कार के लिए देश से बाहर जाना नहीं पड़ेगा, ऐसा एक विद्वान का मत है और सच भी है।
यह मेरे भीतर का द्वंद्व है, जो मेरे जैसे कइयों-कइयों के भीतर का द्वंद्व है।