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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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हिन्दी कविता : पुत्रों की सुध

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रेखा भाटिया

नील गगन की छांव में
भोर होते ही
सूरज निकलते ही
मेघों-सा वेग भर
वह चल पड़ते हैं
धरती पुत्र मां की गोद में
सारा जग सोता ही रहता
आंखों में सपनों को लिए
इन मां पुत्रों की आंखों में चिंता
पैरों में छाले जुटे रहते
धूप, वर्षा, जाड़ा फिक्र कहां
इन्हें तो चलते ही रहना है
मेहनत से इनकी संसार चलना है
सारे जग की भूख मिटाना है
हल चला फसलें उगाना है
नहरें खोद प्यास बुझाना है
छत हो सबके सिर पर
ईटें, सीमेंट, लोहा लादकर
सबके लिए घर बनाना है
नदी सबको पार करानी है
घर बचाने हैं बाढ़ से
पत्थर तोड़, पत्थर लाद
पुल, बांध बना बहाव से लड़
यात्रा करनी है तो बस अड्डे
हवाई अड्डे, रेल स्टेशन
रेल की पटरियों में लोहा बन बहते
सड़कें मखमली हो जाएं
वक्त बचेगा यात्रा सुगम
डामर संग तपते जलते पुत्र
बिछ जाते दिन-रात
अस्पतालों की सफाई-धुलाई
पाठशालाओं की रौनक-रंगाई
आलिशान होटल, पार्क-बगीचे
ऐशों-आराम वाले सभी स्थान
जो करें जीवन आरामदायक मनोरंजक
आन बान शान जिस सभी गर्व करते
मिलता वह जीवन इनकी मेहनत से
श्रम की रेखाएं लिखी हाथों में
धन्य श्रम है धरती पर बहाते जीवन सुधा
धरती पुत्र गरीब माओं के लाल
फटी चप्पल फटे कपड़े बदहाल
रूखी-सुखी खा बदहाली में बचपन
हड्डियों का ढांचा बने जवानी में फलते
इनकी आंखों में सपने कोरे रहते
निर्धनता में पसीने संग बहते रहते
घर से दूर जननी से दूर मीलों दूर
श्रम कर्म करते साधना में लिप्त
सांझ घिर आई है अंधेरी
मेहनत मजदूरी कर थकहार लौटे
हाहाकार मची है चारों ओर
लौटना है अब घर निर्धन मां की गोद में
नंग धड़क भूखे प्यासे दिशाहीन दशा में
ना ले कोई सुध कानून, सरकार, मंत्रालय
दीनहीन किस्मत के मारे चंद रोटी के टुकड़े
बदल गए लाशों में बिखर धरती गोद में
अब हाहाकार मचा है देश शहर गांव
धरती लाल है अंबर रो रहा
किस्मत का सूरज अस्त हो रहा
अब तो जागो देशवासियों
धरती पुत्रों की सुध साध लो!

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