- डॉ. आदित्य नारायण शुक्ला 'विनय'
कैलिफोर्निया (अमेरिका)
जब भारत आजाद हुआ और यहां के राजा-महाराजाओं के पद समाप्त किए गए, तब इसके विरोध में उनके भक्तों और चमचों ने खूब हो-हल्ला मचाया था किंतु तत्कालीन गृहमंत्री/उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बड़ी ही मुस्तैदी से उस विषम परिस्थिति को संभाल लिया था और छोटे-बड़े सभी भारतीय रियासतों का भारत गणराज्य में विलय करवा लिया था।
काश! उन्हें तब कश्मीर समस्या हल करने के लिए भी भेजा गया होता जबकि वे यह समस्या हल करने के लिए बेहद लालायित और उत्सुक थे। साथ ही तत्कालीन कश्मीरी जनता और वहां के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह भी उन्हें मध्यस्थ बनाकर बात करना चाहते थे।
जब कालांतर में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स यानी उन्हें मुफ्त में मिलने वाले लाखों-करोड़ों रुपयों के वेतन-भत्ते भी बंद करवा दिए तब तो सचमुच जलती हुई आग में घी ही पड़ गया था।
शायद फिलहाल यह बात हमारे गले न उतरे किंतु कड़वा सच यह भी है कि भारत में राष्ट्रपति-राज्यपालों की भी अब कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। अपने 33 वर्षों के अमेरिका प्रवास में अक्सर मुझे/हमें यह सुनने को मिला- 'जब भारत में देश के वास्तविक शासक प्रधानमंत्री होते हैं, तो वहां पर राष्ट्रपति की क्या आवश्यकता है?'
अमेरिकी अक्सर उदाहरण देते हैं कि हमारे यहां चूंकि वास्तविक शासक राष्ट्रपति होते हैं अत: यहां पर हम प्रधानमंत्री नहीं बनाते। कुछ अमेरिकन यह भी कह उठते हैं कि इस तरह से हम प्रधानमंत्री पर होने वाला अनावश्यक खर्च भी बचा लेते हैं।
इसी तरह से जब भारत के राज्यों के वास्तविक शासक मुख्यमंत्री होते हैं तो वहां पर राज्यपालों की क्या जरूरत है? ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा में तो राष्ट्रपति के पद नहीं हैं जबकि इन देशों में भी भारत की तरह देश के वास्तविक शासक प्रधानमंत्री ही होते हैं।
स्वतंत्र भारत के गत कोई 70 वर्षों में/से हम यही देखते आ रहे हैं कि राष्ट्रपति देश के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों को 'पद और गोपनीयता की शपथ' दिलवाने (और वह भी ज्यादातर 5 साल में सिर्फ 1 बार) के अलावा और कोई भी महत्वपूर्ण काम नहीं करते और यह काम तो सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस भी कर सकते हैं।
ठीक इसी तरह से भारतीय राज्यों के 29-30 राज्यपाल भी नवनिर्वाचित मुख्यमंत्रियों और उनके कैबिनेट को हर 5 साल में 1 बार 'पद और गोपनीयता' की शपथ दिलवाने के सिवाय कोई अन्य महत्वपूर्ण कार्य नहीं करते। तो यही काम राज्यों के हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस भी कर सकते हैं।
कभी-कभी राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित किसी विधेयक को उसे पुनर्विचार के लिए लौटा देते हैं। राज्यपाल भी विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक को यदा-कदा पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस भेज देते हैं। यह काम भी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस भी कर सकते हैं। आखिर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की स्वीकृति के बिना राष्ट्र और उसके राज्यों में कोई कानून लागू हो भी/ही नहीं सकता।
हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा लादे गए राष्ट्रपति शासन को हटवाकर पुन: कांग्रेस सत्ता की बहाली हुई है। इस क्रियाकलाप से भी यह बात जगजाहिर हो गई है कि राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री और उसकी कैबिनेट के इशारों पर ही चलना पड़ता है।
अमेरिका में भारत के हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट को बेहद-बेहद-बेहद सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। अमेरिकी अक्सर कहते रहते हैं- इसमें कोई दो मत नहीं कि आपके यहां (यानी भारत में) न्यायालय सचमुच उच्च कोटि के और निष्पक्ष हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों तक के निर्वाचन को अवैध घोषित किया है। तो इस तरह से सचमुच भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और 29-30 राज्यपालों-उपराज्यपालों की अब कोई आवश्यकता ही नहीं रह गई है।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के कार्यकाल के बाद ही भारतीय संविधान में संशोधन करके इस पद को समाप्त कर देना चाहिए था, क्योंकि 10 वर्षों में ही यह स्पष्ट हो गया था कि सरकार में राष्ट्रपति की कोई विशेष भूमिका नहीं होती। यह कड़वा सच कौन नहीं जानता कि भारत के राष्ट्रपति भारतीय प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट के तथा राज्यपालगण अपने मुख्यमंत्रियों और उनकी कैबिनेट के हाथों की कठपुतलियां होते हैं।
राष्ट्रपति द्वारा संसद में दिए जाने वाले अभिभाषण/राष्ट्र के नाम संदेश आदि तक को प्रधानमंत्री के निर्देशन में ही तैयार किया जाता है। जो राष्ट्रपति-राज्यपाल 'कठपुतली' नहीं रहना चाहते (आमतौर पर वे जो प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री के दल के नहीं हैं) उनके साथ सरकार की खींचतान शुरू हो जाती है और अंततोगत्वा उन्हें निकाल दिया जाता है।
फिलहाल अभी तक राष्ट्रपति के लिए ऐसी नौबत नहीं आई है, लेकिन कई राज्यपाल अपने पदों से 'भगाए' जा चुके हैं। उन्हें 'भगाता' कौन है? प्रधानमंत्री के इशारे पर ही राष्ट्रपति, क्योंकि वही राज्यपालों के ऑफिशियली बॉस होते हैं। राष्ट्रपति ही राज्यपाल की नियुक्ति करते हैं, कहना न होगा प्रधानमंत्री की ही सलाह पर।
2014 में केंद्र में बीजेपी की सत्ता में आने के बाद आपने नोटिस किया ही होगा कि कांग्रेस शासनकाल में नियुक्त राज्यपालगण धीरे-धीरे हटाए जा रहे हैं और उनकी जगह बीजेपी के राज्यपाल नियुक्त होते जा रहे हैं। यदि ठंडे दिमाग, गहराई और ध्यान से सोचकर देखें तो हम महसूस करेंगे कि वर्तमान भारत के राष्ट्रपति-राज्यपालगण भी स्वतंत्रता-पूर्व के राजे-महाराजे की तरह ही हैं जिनका वर्तमान भारत में अब कोई उपयोग नहीं रह गया है।
भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और 29-30 राज्यपालों, उपराज्यपालों के वेतन, उनके आलीशान महलनुमा निवास, उनकी विदेश यात्रा और उनकी सुरक्षा पर भारत के आयकरदाताओं के जो अरबों-खरबों रुपए व्यर्थ खर्च होते हैं और गत अनेक वर्षों से होते आ रहे हैं, उस विशाल रकम से तो अब तक देशभर में इतने सारे उद्योग-धंधे और फैक्टरी-कारखाने खुल गए होते कि भारत की अधिकांश बेरोजगारी दूर हो गई होती।
भारत सरकार को विदेशों में अपने 'बेईमान व आयकर चोरों' का जमा तथाकथित कालाधन वापस लाने की तो चिंता है किंतु ईमानदार आयकरदाताओं के जो 'सफेद-धन' व्यर्थ हो रहे हैं (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व राज्यपालों पर होने वाले अपार खर्च के कारण) उसे बचाने की कोई भी चिंता नहीं है।
भारत का एक बहुत बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग भी चाहता है कि अब इन अनावश्यक महामहिम पदों का उन्मूलन कर दिया जाए किंतु कहने से डरता है- 'बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?' जो बांधने की कोशिश करेगा उसे ही 'बिल्ली' दबोच लेगी।
हां, भारत के संविधान में यह संशोधन/प्रावधान किया जा सकता है कि वर्तमान राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सभी राज्यपाल व उपराज्यपाल अपना वर्तमान कार्यकाल पूरा होने तक अपने पदों पर बने रहेंगे। तत्पश्चात राष्ट्रपति के कार्यभार सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और राज्यपालों के कार्यभार उनके राज्यों के हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस संभाल लेंगे। इस अतिरिक्त कार्यभार के फलस्वरूप सभी चीफ जस्टिसों को कुछ वेतन-वृद्धि दे दी जाए।
जिस दिन देश के इन अपार खर्चों वाले अनावश्यक पदों का उन्मूलन हो जाएगा उसी दिन से भारत के 30 लाख बेरोजगारों को प्रतिवर्ष काम मिलना भी शुरू हो जाएगा। भारत के लाखों-करोड़ों बेरोजगारों को काम देना ज्यादा जरूरी है या इन अनावश्यक पदों को बनाए रखकर अरबों-खरबों रुपए व्यर्थ फेंकना? इस प्रश्न का उत्तर देना बेहद आसान है।
कोई और नहीं तो शायद भारत के बेरोजगार युवक-युवतियां एक दिन इस तथ्य को समझेंगे और अब इन अनावश्यक पदों पर पानी की तरह बहने वाले अपार धन की बर्बादी रोक लेंगे- अपने रोजगार प्राप्ति के लिए उद्योग-धंधे लगवाने हेतु या पर्याप्त बेरोजगारी भत्ता पाने हेतु। तो देश की वर्तमान आवश्यकता के अनुसार संविधान में संशोधन भी होते रहना चाहिए।
हम अपने देश के संविधान निर्माताओं के सदैव आभारी रहेंगे विशेषकर डॉ. भीमराव अंबेडकर के। 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान (जिस दिन यह देश में लागू हुआ) तत्कालीन देश की शत-प्रतिशत आवश्यकता के अनुरूप/उपयुक्त रहा होगा।
लेकिन इन कोई 70 वर्षों में देश में आमूल-चूल परिवर्तन हो चुके हैं। 26 जनवरी 1950 को तो एक अनपढ़ विधायक-सांसद की कल्पना की जा सकती थी (क्योंकि तब देश का एक बहुत बड़ा तबका साक्षर नहीं था) किंतु आज भी देश में कुछ ऐसे विधायक-सांसद, मंत्री, उपमुख्यमंत्री हैं, जो स्वयं पढ़कर भी अपने पद की ठीक से शपथ नहीं ले सकते।
'प्रत्यक्षम् किम प्रमाणम्'। कुछ तो ऐसे हैं जिनके लिए कोई और पढ़ता है और वे (बेहद गलती करते हुए) उसे दोहराते हैं और वहां उपस्थित सारे लोग ठहाके लगा रहे होते हैं। यह दुखद दृश्य आप यूट्यूब पर भी जाकर देख सकते हैं। ये हंसने वाले उन अनपढ़ों पर नहीं, भारतीय संविधान पर हंस रहे होते हैं, जो हम शत-प्रतिशत भारतीयों के लिए घोर अपमानजनक और शर्मनाक बात है।
हमारे देश और इसके राज्यों के शासन की बागडोर जिनके हाथों में जाती है, उनकी शिक्षा के संबंध में भारतीय संविधान मौन है। समय की मांग के अनुसार हर देश के संविधान में संशोधन होते रहते हैं। क्या हम अपने संविधान में अब यह संशोधन नहीं कर सकते कि हमारे विधायक-सांसद कम से कम 12वीं पास हों और मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री की शैक्षणिक-योग्यता कम से कम ग्रेजुएट हो।