मां दुर्गा की उत्पत्ति और स्वरूप के बारे में किस शास्त्र में लिखा है क्या, जानिए

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- हिन्दू धर्म में देवी आद्य‍शक्ति देवी दुर्गा या अब्बिका को सर्वेश्वरी और त्रिदेवजननी कहा गया है। वेद, उपनिषद, पुराण सहित अन्य हिन्दू शास्त्रों में उनकी उत्पत्ति और स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया गया है। यहां पढ़िये देवी की महिमा का शस्त्रोक्त वर्णन।
 
शाक्तोद्भव-सृष्टि :-
 
- पंडित आनंद चतुर्वेदी (आनंद बाबा श्रीजी पीठ, मथुरा)

1. आगम-शास्त्र के अनुसारः-आगम-शास्त्र शक्ति-तत्व एवं शक्ति-उपासना सम्बन्धी सर्वोत्कृष्ट, अत्यन्त विशद, अप्रतिम एवं प्रामाणिक ग्रन्थ हैं। इनके अनुसार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व भी देवी थी जो अकेली ही प्रकट हुई थी। ‘देवी ह्येकाग्रे आसीत्’। तब कहीं कुछ भी नहीं था। अतः देवी को केवल अपनी ही छाया दिखाई दी। ‘एतस्मिन्नेव काले तु, स्वबिम्बं पश्यति शिवा’ इसी स्वबिम्ब (छाया) से माया बनी जिससे मानसिक शिव हुए
‘तद्बिम्वं तु भवेन्माया-तत्र मानसिक शिवः’ (इसी आधार पर आगम शास्त्रों में शक्ति (देवी) को शिव की जननी भी माना गया है।) 
 
सृष्टि रचना हेतु देवी ने इसी मानसिक शिव को अपने पति के रूप में स्वीकार करके सृष्टि रचना की-
‘तं विलोक्य महेशानि-सृष्ट्युत्पादन कारणात्
आदिनाथं मानसिकं-स्वभर्तां तु प्रकल्पयेत्’
यद्यपि देवी ने अपने पति आदिनाथ को सृष्टि रचना हेतु अपने मन से उत्पन्न किया तथा उन्हें अपने पतिरूप में स्वीकार करके सृष्टि रचना की परन्तु वह कभी भी उनके अधीन नहीं रही बल्कि शिव ही उनके अधीन रहते हैं। इसके अनेकों प्रमाण आगम ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। श्री ललिता सहस्रनाम में देवी का एक नाम ‘स्वाधीनवल्लभा’ भी है जिसका अर्थ है कि शिव जी उनके अधीन रहते हैं। वह पूर्ण स्वतंत्र हैं।
 
 
2. देवीभागवत के अनुसारः-देवीभागवत के स्कन्ध-7 में भगवती अपने पिता नगाधिराज हिमालय को अपने प्राकट्य का विवरण देते हुए कहती हैं-
‘अहमेवाह, पूर्वं च, नान्यत् किंचिन्नगाधिप
तदात्मरूपं चित्संवित्-परब्रह्मैक नामकम्
स्वाशक्तैश्च समायोगा-अहं बीजात्मतांगता
स्वाधारावरणा तस्या-दोषत्वं च समागतम्’
‘हे नगाधिराज हिमालय! सृष्टि से पूर्व मेरे अलावा कहीं कोई भी नहीं था। तब मैं ही परब्रह्म थी। अपने ही आधार (बिम्ब) शिव का वरण करके मुझमें दोष आ गया और मैं ‘एकोहं बहुस्याम्’ की कामना करके सृष्टि रचना में निमग्न हो गई।’
 
 
3. वहवृचोपनिषद के अनुसारः-सृष्टि से पूर्व (सृष्टि के प्रारम्भ में) देवी ही थी। पराशक्ति सर्वव्यापी तथा सत्, चित् एवं आनन्दरूपा है। पराशक्ति, चित्शक्ति, परमेश्वर, ब्रह्मान्डजननी तथा आद्याशक्ति, ब्रह्म तथा आत्मा सब इसी के नाम हैं। वह ‘आद्या’ इसीलिए कही जाती है कि इनसे पहले कोई नहीं था। देवी ने ही ब्रह्मान्ड की रचना की। ब्रह्मा, विष्णु, महेश समेत समस्त प्राणिमात्र को जन्म दिया। ब्रह्मान्ड में जो कुछ भी है सब देवी में ही ओत-प्रोत है।
 
 
‘सैव जगदण्डमसृजत्। ब्रह्मा अजीजनत्। विष्णुरजीजनत्। रूद्रोअजीजनत्। सर्वशक्ति अजीजनत्। सैषाशाम्भवीविद्या। सैवात्मा। सच्चिदानन्दलहरी। प्रज्ञानं ब्रहमेति वा अहं ब्रह्मास्मीति वा भाष्यते।’
 
यह शक्ति स्वयं प्रकाशित होती है। यही आत्मा है। यही शक्ति नित्य-निर्विकार परमात्मा की चेतना की द्योतक है। यही महात्रिपुरसुन्दरी है। इसी पराशक्ति को दशमहाविद्याओं यथा काली, तारा, त्रिपुरसुन्दरी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, छिन्नमस्ता, बगुलामुखी, मातंगी तथा कमला एवं प्रत्यंगिरा, दुर्गा,  चंडिका, गायत्री, सावित्री, सरस्वती तथा ब्रह्मानन्दकला के रूप में भी पूजा जाता है।
 
शक्ति का स्वरूप- विभिन्न शास्त्रों में ‘शक्ति’ शब्द को विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। आगम-शास्त्रों में इसे ‘पराशक्ति’ कहा गया है जो सत्, चित्त् आनन्द स्वरूपा ब्रह्म है। वेदों, उपनिषदों तथा पुराणों में इसी शक्ति को महादेवी, भगवती, ईश्वरी तथा मूलप्रकृति आदि नामों से भी जाना गया है।
‘परास्यशक्ति र्विविधैव  श्रूयते-स्वाभाविकी ज्ञान वल क्रिया च’
भक्तजन परमेश्वर (परब्रह्म) के इस परमतत्व की निर्गुण, सगुण, साकार, निराकार, स्त्री रूप, पुरूषरूप तथा विभिन्न अवतारों के रूप में उपासना करते हैं।
 
‘स्त्री रूपं वा स्मरेद्देवि-पुंरूपंवा विचिन्तयेत्
अथवा निष्कलं ध्याये-सच्चिदानन्द विग्रहम्’
शक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में वर्तमान समय में अधिकांश हिन्दूधर्मावलम्बियों के मन में अत्यन्न भ्रान्तिमूलक, असत्य एवं अस्पष्ट विचारधाराऐं विद्यमान हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि ऐसे व्यक्तियों के पास इस परम दिव्य, परम उदात्त एवं परम अद्वैतवादी शाक्त-दर्शन को समझ सकने के लिए सूक्ष्मदृष्टि तथा सूक्ष्मविवेक है ही नहीं। शक्ति के वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन कराने के लिए इस लेख में आगम शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों, पुराणों, देवीअथर्वशीर्ष से कतिपय उदाहरण प्रस्तुत करते हुए शक्ति के कुण्डलिनी रूप, प्रकाशरूप एवं विद्युतरूप का भी संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।

गाणपत्यों के गणपति, शैवों के शिव, बैष्णवों के विष्णु तथा सौरों के सविता (सूर्य) ही शाक्तों की त्रैलोक्यसुन्दरी महाशक्ति है। जिस परम-तत्व को वेद मंत्रों ने पुलिंग शब्द से, वेदान्तियों ने नपुंसकलिंग से प्रतिपादित किया है, शाक्त-धर्म प्रेमियों ने सत्-चित्-आनन्द स्वरूपा उसी महाशक्ति को स्त्री-लिंग मानकर प्रतिष्ठित किया है।
 
 
1. आगम-शास्त्र के अनुसारः-आगम-शास्त्रों में देवी के विभिन्न स्वरूपों (साकार एवं निराकार) का प्रतीकात्मक विवरण भी मिलता है। दश महाविद्याओं के अन्तर्गत प्रथम महाविद्या श्री आद्या (काली) के साकार स्वरूप का जो विवरण उपलब्ध है उसके अनुसार काली का रूप अत्यन्त भयंकर एवं डरावना है। उनका वर्ण काला है परन्तु शक्ति के उपासक उन्हें परम रूपवती तथा करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान देखते हैं। वह दिगम्बरा हैं परन्तु भक्तों को समस्त एैश्वर्य प्रदान करती हैं। उनका निवासस्थान श्मशान है जहां पहुंचते ही स्वतः वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। काली मुक्तकेशी हैं। शवासना हैं। मुन्डमालावृतागी हैं। खड्ग एवं मुन्डधारिणी है। काली का यह विशिष्टरूप भक्तों के मन में वैराग्य तथा अद्वैतभावना उत्पन्न कर देता है।
(‘शव-रूप महाकाल-हृदयाम्भोज वासिनी
सप्त प्रेतैक पर्यंक-शवहृद् राजते शिवा’
(महाकाल रूपी शव के हृदय में तथा सप्त प्रेतों वाले मंच में विराजमान है)
‘विशुद्धा परा चिन्मयी स्वप्रकाशा चिदानन्दरूपाजगत्व्यापिका च’
(मां काली अत्यन्त विशुद्ध, स्वयं प्रकाशमान्, सत्चित्आनन्दरूपा तथा समस्त संसार में व्याप्त है)

 
श्री आद्या का पुरूषरूप ही श्री कृष्ण है। वह स्वयं बताती हैं-
‘ममैव पौरूषं रूपं-गोपिकाजन मोहनम्’
(गोपियों का मनमोहने वाला मेरा पुरूषरूप श्री कृष्ण है)
‘कदाचिदाद्या ललिता- पुंरूपा कृष्णविग्रहा’। कदाचिदाद्या श्री तारा-पुंरूपा राम विग्रहा।’
(कभी त्रिपुरसुन्दरी श्री कृष्ण का रूप धारण कर लेती हैं तथा कभी तारा श्री राम का रूप धारण कर लेती हैं)
 
श्री काली एवं श्री कृष्ण में मूलतः कोई भेद नहीं है। श्री कृष्ण के अधिकांश मंत्रों में ‘कामबीज’ की ही प्रधानता है। शक्ति-ग्रन्थों में श्री विष्णु के दश अवतारों की दश महाविद्याओं से एकरूपता सिद्ध की गई है, यथा -
‘कृष्णस्तु कालिका साक्षात्-राम मूर्तिश्च तारिणी
धूमावती वामनस्यात्-कूर्मस्तु वगुलामुखी’।
अर्थात् कालिका ही पुरूषरूप में श्री कृष्ण हैं। तारा-राम हैं। भुवनेश्वरी-वराहरूप हैं। त्रिपुरभैरवी-नृसिंह, धूमावती-वामन, छिन्नमस्ता-परशुराम, लक्ष्मी-मत्स्य, वगुलामुखी-कूर्म, मातंगी-बौद्ध तथा त्रिपुरसुन्दरी-कल्कि रूप में है।
 
विभिन्न आगम-ग्रन्थों में महाशक्ति का कुण्डलिनी स्वरूप, विद्युत स्वरूप तथा प्रकाश रूप में भी गुणगान किया गया है। कुण्डलिनी रूप में उसे ‘शक्तिः कुण्डलिनी समस्त जननी’ ‘शक्तिः कुण्डलिनी गुणत्रय वपु’ तथा ‘मूलोन्निद्र भुजंगराज सदृशी’ माना गया है। प्रकाश रूप में उसे ‘प्रकाशमाना प्रथमे प्रयाणे-प्रतिप्रयाणे अमृताय मानाम्’ बताया गया है। विद्युत रूप में उसे ‘सौदामिनीसन्निभां’ ‘तडित्कारांशिवां एवं ‘तडित्पुजभाभास्वरागीं’ आदि दिव्य उपमाओं से विभूषित किया गया है।
 
 
2. वेदों के अनुसारः-ऋग्वेद में शक्ति को अदिति कहा गया है जो समस्त ब्रह्मान्ड का आधार है। यह समस्त देवताओं, गन्धर्वों,  मनुष्यों, असुरों तथा समस्त प्राणियों की माता हैं तथा पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग में रहती हैं। ऋग्वेद में श्री भगवती अपने बारे में बताते हुए कहती है- ‘मैं ब्रह्मान्ड की अधीश्वरी हूँ। मैं एक होते हुए भी नाना रूपों में विचरण करती हूँ। मैं सर्वथा स्वतंत्र हूँ। मैं किसी के अधीन नहीं हूँ।’
 
 
(ऋग्वेद-दसवां मन्डल-सूक्त-125)
‘अहं रूद्रेभि वसुभिश्चरामि-अहं मित्रावरूणा-अहं इन्द्राग्नी
अहं विष्णुमुरूक्रम ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि’
(मैं रूद्रों तथा वसुओं के रूप में विचरती हूँ। मैं दोनों मित्रावरूण का, इन्द्राग्नि का तथा दोनों अश्विनीकुमारों का पोषण करती हूँ। विष्णु, ब्रह्मा तथा प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ)
 (ऋग्वेद-अष्टक 8/7/11)
उपनिषदों के अनुसारः-विभिन्न उपनिषदों में शक्ति के स्वरूप का विषद विवेचन किया गया है-
 
 
* श्वेताश्वतर उपनिषदः- पराशक्ति ज्ञान, इच्छा तथा क्रिया आदि रूपों से अनेकों प्रकार की है-
‘परास्यशक्ति र्विविधैव श्रूयते-स्वाभाविकी ज्ञान, बल, क्रिया च’
 
* केनोपनिषदः- शक्ति बिना स्पर्श, रूप तथा व्यय के है-
‘अशब्द अस्पर्श मरूप मव्ययम्’-तथा शक्ति को वाणी से अभिव्यक्त नहीं कर सकते हैं---‘यद्वाचा नभ्युदितं’
 
* मान्डूक्य उपनिषदः- चित्शक्ति मन, वाणी तथा समस्त इन्द्रियों से भी प्राप्त नहीं है-
‘यतो वाचो निवर्तन्ते-अप्राप्य मनसा सह’
 
 
4. देवी अर्थवशीर्ष के अनुसारः- देवी अथर्वशीर्ष (मूल एवं प्रामाणिक ग्रन्थ) के श्लोकसंख्या-2 से श्लोकसंख्या-25 तक देवी के स्वरूपों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए बताया गया है कि उनके वास्तविक स्वरूप को ब्रह्मादि त्रिदेव भी नहीं जानते हैं-
 
‘यस्या स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति-तस्मादुच्यते अज्ञेया एकैव विश्वरूपिणी-तस्मादुच्यते नैका यस्या जननं नोपलभ्यते-तस्मादुच्यते अजा’(देवी अज्ञेय है, एक है, अजा है, अलक्ष्या है) देवताओं के पूछने पर महादेवी ने बताया कि वह ब्रह्मस्वरूपा है तथा उनसे ही समस्त जगत की उत्पत्ति हुई है। वही विज्ञान तथा अविज्ञानरूपिणी हैं। 
 
ब्रह्म भी हैं। अब्रह्म भी हैं। वह वेद भी हैं। अवेद भी हैं। वही सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी हैं। वह वेदों द्वारा वन्दित तथा पाप नाशिनी देवमाता अदिति या दक्षकन्या सती के रूप की हैं। वही आठवसु, एकादश रूद्र, द्वादश आदित्य, असुर, पिशाच, यक्ष और सिद्ध भी हैं। आत्मशक्ति हैं। विश्व को मोहित करने वाली हैं तथा श्रीविद्यास्वरूपिणी महात्रिपुरसुन्दरी है।
 
5.पुराणों के अनुसारः- ब्रह्मवैवर्त पुराण में भगवान् श्री कृष्ण द्वारा अपने श्रीमुख से इसी शक्ति का गुणगान करते हुए उन्हें विभिन्न उपाधियों से विभूषित किया गया है-
‘त्वमेव सर्व जननी-मूल प्रकृति ईश्वरी त्वमेवाद्या सृष्टि विधौ-स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका परब्रह्म स्वरूपा त्वं-सत्या नित्या सनातनी सर्वबीज स्वरूपा च-सर्वपूज्या निराश्रया’
(यह शक्ति मूल-प्रकृति रूपा है। त्रिगुणात्मिका है। परमब्रह्मस्वरूपा है। सर्वपूज्या है।)
 
 
6.वरिवस्या रहस्य के अनुसारः- प्रख्यात् ग्रन्थ वरिवस्यारहस्य के अनुसार महाशक्ति को प्रकाश तथा विमर्श दोनों स्वरूपों में माना गया है-
‘स जयति महान प्रकाशो ,यस्मिन दृष्टे न दृश्यते किमपि
कथमिव यस्मिन ज्ञाते सर्वं विज्ञात मुच्यते वेदैः‘
(उस महान प्रकाश रूप महाशक्ति की जय हो जिसे देखने तथा जानने के पश्चात समस्त ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है)
‘नैसर्गिकी स्फुरत्ता विमर्श रूपा अस्य वर्तते शक्तिः तद् विज्ञानार्थ मेव, चतुर्दश विद्या स्थानानि’
(उस महान विमर्श रूपा महाशक्ति को जानने के लिए चतुर्दश विद्याओं की सहायता ली जाती है) 
 
शक्ति की महत्ता- वेदों, आगम-शास्त्रों, उपनिषदों तथा पुराणों में शक्ति की महत्ता एवं महिमा का गुणगान किया गया है। शक्ति का प्रमुख लक्षण स्पन्दन (गति) है। स्पन्दन समाप्त होते ही जीवन समाप्त हो जाता है। शास्त्रों में परमेश्वर को शक्तिमान तथा परमेश्वरी को उसकी शक्ति बताया गया है। जिस प्रकार अग्नि का महत्व तभी तक है जब तक उसके अन्दर दाहिका-शक्ति (जलाने की शक्ति) विद्यमान रहती है उसी प्रकार परमेश्वर भी तभी तक शक्तिसम्पन्न रह पाता है जब तक उसके अन्दर शक्ति विद्यमान रहती है।

 
‘योगवासिष्ठ’ नामक उत्कृष्ट आध्यात्मिक ग्रंथ में ब्रह्म को सर्वशक्तिसम्पन्न मानते हुए उसकी प्रमुख तीन शक्तियों ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, तथा क्रियाशक्ति की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए बताया गया है कि यही शक्ति समस्त ब्रह्माण्ड की रचना, पालन तथा संहार करने का कार्य करती है। यही शक्तियां समस्त जड़-चेतन पदार्थों के अन्दर नाना रूपों तथा तथा नामों से विद्यमान है। संसार की रचना में स्पन्दशक्ति, जल में द्रवशक्ति, अग्नि में दाहकशक्ति, आकाश में शून्यशक्ति, चेतनशरीर में चितशक्ति तथा वीर पुरूषों में वीर्यशक्ति विद्यमान रहती है।
 
 
1. आगम-शास्त्र (शक्ति के बिना शिव भी शव हैं) समस्त आगम-शास्त्र पराशक्ति की महत्ता (महिमा) का गुणगान करते हैं। बिना पराशक्ति से शक्ति प्राप्त किए हुए ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश भी रचना, पालन तथा संहार का कार्य नहीं कर सकते हैं। स्वयं शिवजी मां पार्वती से कहते हैं-
 
‘शक्तिं बिना महेशानि! सदाहं शव रूपकः शक्तियुक्तो महादेवि-शिवोहं सर्वकामदः ईश्वरोहं महादेवि-केवलं शक्तियोगतः’
 
हे पार्वती! तुम्हारे बिना में मृत (शव) हूँ। तुम्हारे साथ रहके ही मैं महादेव और सब कामनाओं की पूर्ति करने वाला बन जाता हूँ।
 
आगम-ग्रन्थों में तो यहां तक बताया गया है कि शक्तिरहित शिव का तो नाम-धाम भी अस्तित्व में नहीं रह जाता है-
‘शक्त्याबिना शिवे सूक्ष्मे-नाम धाम न विद्यते’
इतना ही नहीं शक्तिहीन परमेश्वर कुछ भी करने में अक्षम हो जाते हैं-'‘परोहिशक्तिरहितः शक्तः कर्तुं न किंचन’
 
 
2. उपनिषद- (पराशक्ति ही समस्त कारणों की संचालिका है)-
तैत्तरीय उपनिषद- चितशक्ति से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उसी में जीते हैं तथा अन्त में उसी में लीन हो जाते हैं-
‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति’
बृहदारण्यक उपनिषद--शक्ति के निःश्वास से ही वेद उत्पन्न हुए हैं-
‘निःश्वसित मेतद् रिग्वेदो, यजुर्वेदः सामवेदः’
श्वेताश्वतर उपनिषद--त्रिकालदर्शी रिषियों ने ध्यानावस्थित होकर यह अनुभव किया कि पराशक्ति ही समस्त कारणों का संचालन करती है-‘यः कारणानि निखिलानि तानि’
 
 
3. पुराण- (शक्ति ही समस्त ब्रह्माण्ड का आधार है)-
मार्कन्डेयपुराण (दुर्गासप्तशती)-मार्कन्डेय-पुराणान्तर्गत दुर्गासप्तशती के जिन अध्यायों में महाशक्ति की स्तुतियां की गई हैं उन में शक्ति की महिमा का गुणगान किया गया है-
‘आधारभूता जगतस्त्वमेका’ ‘त्वयैतत् धार्यते विश्वम्’
(आप इस ब्रह्माण्ड की आधार हो)
‘सृष्टि स्थिति विनाशानां-शक्तिभूते सनातनि’
(आप इस चराचर जगत की रचना, पालन तथा संहार करती हो)
‘हेतुः समस्त जगतां त्रिगुणापिदोषैः’(आप समस्त जगत का कारण हो।
 
 
4. सौन्दर्यलहरी- (शक्ति की महिमा का गुणगान तो हजार मुखवाले शेषनाग भी नहीं कर सकते):- 
भगवत्पाद् स्वामी शंकराचार्य द्वारा अपने ग्रन्थ सौन्दर्यलहरी में महाशक्ति की अनन्त महिमा का जितनी उत्कृष्टकोटि का गुणगान किया गया है वैसा अन्य ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होता है। इस ग्रंथ में आचार्यपाद ने न केवल शिव-शक्ति का परस्पर अभेद सम्बन्ध बताया है वरन् शक्ति की श्रेष्टता का कुशल प्रतिपादन भी किया है।
 
 
स्वामी शंकराचार्य द्वारा इस ग्रन्थ के प्रथम श्लोक में ही उद्घोष कर दिया गया है- ‘शिवः शक्त्यायुक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं’(शक्ति के बिना शिव तथा अन्य सभी देवता गतिहीन हो जाते हैं) श्री शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि हे मां! आपकी स्तुति करने में तो चार मुखवाले ब्रह्मा, पांच मुखवाले शिव, छः मुखवाले कार्तिकेय ही नहीं वरन् एकहजार मुंह वाले शेषनाग भी असमर्थ हैं फिर एक मुखवाला मुझ जैसा सामान्य जीव आपकी अनन्त महिमा का गुणगान करने का दुःसाहस कैसे कर सकता है।
 
 
‘भवानि स्तोतु त्वां प्रभवति चतुर्भिर्न वदने
न षड्भिः सेनानी दशशत मुखै रप्यहिपति’
आदिशंकर शक्ति की महिमा का गुणगान करते हुए कहते हैं कि ‘हे मां! आपके श्मशानवासी पति शिव के पास तो कुछ भी भक्तों को देने के लिए नहीं है। फिर भी वे महादेव की पदवी इसीलिए पा सके हैं कि आपने उनके साथ विवाह किया है’
 
‘कपाली भूतेशो भजति जगदीशैक पदवीं
भवानी त्वत्पाणिग्रहण परिपाटी फलमिदम्’
‘बृषो वृद्धोयानं....श्मशानं क्रीड़ाम्...तव जननि सौभाग्य महिमा’
स्वामी शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि शक्ति के पलक बन्द करते ही समस्त ब्रह्माण्ड प्रलय से नष्ट हो जाता है तथा उनके पलक खोलते ही ब्रह्माण्ड पुनः अस्तित्व में आ जाता है-
‘निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती’ -जय श्रीजी की ।।

 

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