Tradition of Shardiya Navratri: वर्ष में चार नवरात्रि आती है। चैत्र माह में चैत्र नवरात्रि, आषाढ़ माह में गुप्त नवरात्र, पौष माह में भी गुप्त नवरात्रि और आश्विन माह में शारदीय नवरात्रि। हर नवरात्रि की परंपरा और इतिहास अलग अलग है। यहां जानिए कि शारदीय नवरात्रि का पर्व कब से मनाया जा रहा है, क्या है इस पर्व का इतिहास।
नवरात्रि का इतिहास- History of Navratri:
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नवरात्रि का पर्व प्राचीन काल से ही मनाया जा रहा है।
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माता कात्यायनी दुर्गा ने देवताओं के अनुरोध पर महिषासुर का वध किया था।
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माता का नौ दिनों तक महिषासुर से युद्ध हुआ और दसवें दिन उसका वध हुआ।
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इसलिए 10वें दिन सभी देवताओं ने विजय उत्सव मनाया था।
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तभी से नवरात्रि के दसवें दिन विजयादशमी का पर्व मनाया जाने लगा।
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विजया माता का एक नाम है।
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यह पर्व प्रभु श्रीराम के काल में भी मनाया जाता था और श्रीकृष्ण के काल में भी।
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वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान राम ने ऋष्यमूक पर्वत पर आश्विन प्रतिपदा से नवमी तक आदिशक्ति की उपासना की थी।
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आदिशक्ति की उपासना के बाद भगवान श्री राम इसी दिन किष्किंधा से लंका के लिए रवाना हुए थे।
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माता द्वारा महिषासुर का वध करने के बाद से ही असत्य पर सत्य की जीत का पर्व विजयादशमी मनाया जाने लगा।
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आश्विन मास में शरद ऋतु का प्रारंभ हो जाता है, इसलिए इसे शारदीय नवरात्रि कहा जाता है।
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शारदीय नवरात्रि के दसवें दिन को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है।
नवरात्रि की कथा- navratri ki katha hindi:
रम्भासुर का पुत्र था महिषासुर, जो अत्यंत शक्तिशाली था। उसने कठिन तप किया था। ब्रह्माजी ने प्रकट होकर कहा- 'वत्स! एक मृत्यु को छोड़कर, सबकुछ मांगों। महिषासुर ने बहुत सोचा और फिर कहा- 'ठीक है प्रभो। देवता, असुर और मानव किसी से मेरी मृत्यु न हो।
किसी स्त्री के हाथ से मेरी मृत्यु निश्चित करने की कृपा करें।' ब्रह्माजी 'एवमस्तु' कहकर अपने लोक चले गए। वर प्राप्त करने के बाद उसने तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा कर त्रिलोकाधिपति बन गया।
तब भगवान विष्णु ने सभी देवताओं के साथ मिलकर सबकी आदि कारण भगवती महाशक्ति की आराधना की। सभी देवताओं के शरीर से एक दिव्य तेज निकलकर एक परम सुन्दरी स्त्री के रूप में प्रकट हुआ। हिमवान ने भगवती की सवारी के लिए सिंह दिया तथा सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र महामाया की सेवा में प्रस्तुत किए। भगवती ने देवताओं पर प्रसन्न होकर उन्हें शीघ्र ही महिषासुर के भय से मुक्त करने का आश्वासन दिया।
भगवती दुर्गा हिमालय पर पहुंचीं और अट्टहासपूर्वक घोर गर्जना की। महिषासुर के असुरों के साथ उनका भयंकर युद्ध छिड़ गया। एक-एक करके महिषासुर के सभी सेनानी मारे गए। फिर विवश होकर महिषासुर को भी देवी के साथ युद्ध करना पड़ा।
महिषासुर ने नाना प्रकार के मायिक रूप बनाकर देवी को छल से मारने का प्रयास किया लेकिन अंत में भगवती ने अपने चक्र से महिषासुर का मस्तक काट दिया। कहते हैं कि देवी कात्यायनी को ही सभी देवों ने एक एक हथियार दिया था और उन्हीं दिव्य हथियारों से युक्त होकर देवी ने महिषासुर के साथ युद्ध किया था।