प्रधानमंत्री का पुलिस की जय-जयकार करवाना क्या साबित करता है?

अनिल जैन
मंगलवार, 31 दिसंबर 2019 (18:25 IST)
प्राचीन समाजों से लेकर आज तक नागरिक जीवन में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस की मौजूदगी एक अनिवार्य तथ्य के रूप में स्वीकृत है। जहां तक भारतीय समाज की बात है, उसमें तो पुलिस की मौजूदगी के साथ ही उसकी क्रूरता और भ्रष्टाचार भी एक सर्वस्वीकृत तथ्य है। इसीलिए पुलिस की कार्यशैली और छवि आमतौर पर कभी भी जनहितैषी नहीं रही है।
 
भारत में पुलिस का यह जन-विरोधी चरित्र ब्रिटिश हुकूमत के समय से बना हुआ है, जिसमें आजादी के 72 वर्ष बाद भी रत्तीभर बदलाव नहीं आया है। पुलिस के भ्रष्टाचार और क्रूर कारनामों की व्याप्ति आश्चर्यजनक है। ग्रामीण, कस्बाई, नगरीय और महानगरीय जीवन की सभी बस्तियां उसकी चपेट में हैं। समाज का कोई भी वर्ग ऐसा नहीं है जो कभी भी पुलिसिया क्रूरता या भ्रष्टाचार का शिकार न बना हो। शायद ही कोई अपवाद होगा।
 
आमतौर पर पुलिस की क्रूरता वास्तविक रूप में उस वक्त उभरकर आती है, जब सरकार के किसी जन-विरोधी फैसले के खिलाफ कहीं किसी राजनीतिक दल का, किसानों और मजदूरों का, छात्रों का या नागरिक समाज का आंदोलन हो रहा होता है। उस समय कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर पुलिस कभी तो खुद ही और कभी सत्ता में बैठे लोगों के इशारे पर आंदोलनकारियों का दमन करने के लिए किसी भी हद तक चली जाती है। किसी को मौत के घाट उतार देना भी उसके लिए मामूली बात होती है।
 
इस समय नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) जैसे सरकार के असंवैधानिक और विभाजनकारी फैसलों का देशभर में जितना व्यापक विरोध हो रहा है, उतनी ही क्रूरता से सरकार पुलिस की सहायता से उसका दमन भी कर रही है।
 
देश के कई शहरों में शांतिपूर्ण ढंग से अपना विरोध जता रहे प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठी, गोलियां बरसाई हैं, लोगों के वाहनों को तोड़ा-फोड़ा है, लोगों को घरों में घुसकर मारा है और महिलाओं से बदसुलूकी की है। इन प्रदर्शनों में अब तक करीब 25 लोगों की मौत हो चुकी है और अनगिनत लोग जख्मी हुए हैं। पुलिस की तमाम हिंसक हरकतों के वीडियो और फोटो भी सामने आ चुके हैं।
 
हालांकि मुख्यधारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा इन सारी घटनाओं पर पर्दा डालकर हकीकत को सामने आने से रोकने का भरसक आपराधिक प्रयास कर रहा है, लेकिन फिर भी सरकार के शीर्ष पर बैठे लोगों को अन्य स्रोतों वस्तुस्थिति यानी पुलिस की कारगुजारी की जानकारी तो निश्चित ही मिल रही होगी।
 
फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान एक रैली को संबोधित करते हुए पुलिस का अभूतपूर्व महिमामंडन किया और वहां मौजूद उस भीड से पुलिस की जय-जयकार भी कराई, जो प्रधानमंत्री का भाषण शुरू होने से पहले नागरिकता कानून और एनआरसी का विरोध करने वालों के खिलाफ नारे लगा रही थी- 'देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’।
 
प्रधानमंत्री का यह रवैया एक व्यक्ति के तौर पर भी बेहद आपत्तिजनक और अफसोसनाक है। प्रधानमंत्री ने ऐसा करके पुलिस द्वारा देश के विभिन्न शहरों में प्रदर्शनकारी छात्रों, नौजवानों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर की गई बर्बर कार्रवाई और गुंडागर्दी का न सिर्फ स्पष्ट रूप से बचाव किया है, बल्कि आगे भी ऐसा करने के लिए पुलिस को अपनी ओर से हरी झंडी दिखाई है और अपने समर्थकों को भी इस तरह की हिंसक कार्रवाइयों में पुलिस का साथ देने के लिए प्रेरित किया है।
 
यही नहीं, इससे पहले एक अन्य मौके पर प्रधानमंत्री सार्वजनिक तौर पर नागरिकता कानून का विरोध करने वालों को इशारों-इशारों में मुस्लिम बताते हुए यह भी कह चुके हैं कि इस कानून के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोगों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है।
 
जिस सभा में प्रधानमंत्री यह बात कहते हैं, उसी सभा में वे यह तक कह देते हैं कि पाकिस्तानी मूल के लोग ही इस कानून का विरोध कर रहे हैं। उसी सभा में वे नागरिकता कानून का विरोध कर रहे विपक्षी नेताओं को भी पाकिस्तान और आतंकवादियों का हमदर्द तक करार दे देते हैं।
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यह सब कह चुकने के एक सप्ताह बाद वे पुलिस की हिंसक कार्रवाई की तरफदारी करते हुए अपने समर्थकों से पुलिस की जय-जयकार कराते हैं। जाहिर है कि वे पुलिस को स्पष्ट संदेश देते हैं कि वह मुसलमानों की उनके कपड़ों से शिनाख्त कर उनका दमन करे और मौका आने पर विपक्षी नेताओं के साथ भी कोई रियायत न बरतें।
 
देश में जिस तरह के हालात बने हुए हैं, उसके मद्देनजर प्रधानमंत्री से अपेक्षा तो यह थी कि वे पुलिस से संयम बरतने को कहते। यह न भी कहते तो कम से कम ऐसे मौके पर पुलिस का महिमामंडन करते हुए अपने समर्थकों को पुलिस की 'मदद’ करने के लिए तो न कहते। लेकिन उन्होंने जो किया, उसे किसी भी दृष्टि से उनके पद की जिम्मेदारी और गरिमा के अनुरूप नहीं कहा जा सकता।
 
कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री सीधे-सीधे पुलिस को और अपने समर्थकों को हिंसा के लिए उकसा कर देश में गृहयुद्ध की स्थिति निर्मित कर रहे हैं। उनके इन सार्वजनिक उद्गारों के बाद अगर पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई और भीड की हिंसा में स्वाभाविक रूप से तेजी आना तय है और कई जगह वह तेज हो भी चुकी है। दिल्ली, उत्तर प्रदेश और गुजरात में साफ देखा जा सकता है।
 
प्रधानमंत्री ने रामलीला मैदान की रैली में ड्यूटी के दौरान पुलिसकर्मियों के समक्ष आने वाली चुनौतियों का जिक्र करते उनकी कुर्बानियों को भी याद किया। उन्होंने आजादी के बाद से लेकर अब उन 33 हजार पुलिसकर्मियों के सम्मान में नारे भी मौजूदा भीड़ से लगवाए, जो अपनी ड्यूटी के दौरान किसी न किसी घटना-दुर्घटना के चलते मारे गए। इसमें कोई हर्ज नहीं।
 
दुर्दांत अपराधी तत्वों से या किसी तरह की आपदा से जूझते हुए अगर किसी पुलिसकर्मी की जान जाती है तो उसका सम्मानपूर्वक स्मरण होना ही चाहिए, लेकिन यह स्मरण तब नहीं किया जा सकता, जब पुलिस की भूमिका बुरी तरह संदेह के घेरे में हो और उसकी गैर कानूनी हरकतों के प्रमाण सार्वजनिक हो चुके हों।
 
किसी राजनेता से और वह भी प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति से तो इसकी उम्मीद कतई नहीं की जा सकती। कायदे से प्रधानमंत्री को उस मंच से पुलिस को कड़ी नसीहत देनी चाहिए थी। कड़ी नसीहत न भी देते तो पुलिस से संयम बरतने और लोगों के साथ शालीनता से पेश आने की अपील तो वे कर ही सकते थे।
 
दरअसल, प्रधानमंत्री ने अपने पूरे भाषण में पुलिस की शान में कुल मिलाकर जो कुछ कहा उससे उनके निरंकुश मिजाज का और उनकी उस राजनीतिक पृष्ठभूमि का पता चलता है, जिसका जन सरोकारों से कोई ताल्लुक नहीं रहा। किसी भी जनांदोलन के दौरान पुलिस आंदोलनकारियों से किस तरह पेश आती है, इसका अहसास उसी व्यक्ति को हो सकता है, जो अपने छात्र जीवन या राजनीतिक जीवन में कभी किसी जनांदोलन या संघर्ष का हिस्सा रहा हो।
 
अगर नरेंद्र मोदी का अपने राजनीतिक जीवन में सड़क या संघर्ष की राजनीति से कोई ताल्लुक रहा होता तो वे रामलीला मैदान में पुलिस की पीठ थपाने से पहले उन असंख्य बेगुनाह लोगों का स्मरण भी कर लेते, जो आजादी के बाद से अब तक फर्जी मुठभेड़ों और पुलिस हिरासत में मारे गए हैं।
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वे छत्तीसगढ़ की उस आदिवासी अध्यापिका और सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी को तो जरूर याद कर लेते, जिसके गुप्तांगों में छत्तीसगढ़ पुलिस ने पत्थर भर दिए थे या वे हाल ही में आई छत्तीसगढ़ के ही सात साल पुराने सारकेगुडा कांड की न्यायिक जांच रिपोर्ट का स्मरण कर लेते, जिसमें कहा गया है कि पुलिस और सुरक्षा बलों ने 17 आदिवासी महिला-पुरुषों और बच्चों को नक्सली बताकर मौत के घाट उतार दिया था।
 
अगर वे पुलिस की कार्यशैली से परिचित होते तो पंजाब, कश्मीर और पूर्वोत्तर, झारखंड और आंध्र प्रदेश के उन हजारों बेगुनाह लोगों का मारा जाना भी उनके जेहन में जरूर होता, जिन्हें वहां की पुलिस ने सेना के साथ मिलकर उन्हें आतंकवादी, उग्रवादी, अलगाववादी और नक्सली बताकर मार दिया।
 
यह एक हकीकत है कि नरेंद्र मोदी लंबे समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे हैं और यह सर्वविदित है कि संघ का आंदोलन या संघर्ष से कोई नाता नहीं होता। भारतीय जनता पार्टी में सक्रिय होने पर भी बतौर मैदानी कार्यकर्ता की भूमिका में मोदी कभी नहीं रहे। उन्होंने कभी किसी आंदोलन या जन संघर्ष के कार्यक्रम में हिस्सेदारी नहीं की।
 
गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले तक वे लगातार पार्टी संगठन का ही काम करते रहे। इसीलिए एक राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर उनका कभी भी पुलिस से पाला नहीं पडा। इसीलिए उन्हें अपने लंबे राजनीतिक जीवन में अपनी ही पार्टी या अन्य किसी गैर कांग्रेसी दल के अपने समकालीन दूसरे नेताओं की तरह जेल तो क्या, पुलिस थाने तक जाने की नौबत नहीं आई। हां, गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपना राजकाज चलाने और अपने विरोधियों को राजनीतिक और सांप्रदायिक आधार पर प्रताड़ित करने में पुलिस का भरपूर इस्तेमाल किया।
 
दिल्ली के रामलीला मैदान से पुलिस की हिंसक कार्रवाई का समर्थन करना भी उनकी नफरत भरी उसी तरह की राजनीतिक और सांप्रदायिक मानसिकता का परिचायक है। पुलिस की हिंसा को प्रधानमंत्री के इस समर्थन के दूरगामी नतीजे हमारे लोकतंत्र को अपूरणीय क्षति पहुंचाने वाले होंगे।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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