नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने दिसंबर 2019 में संशोधित नागरिकता कानून (CAA) के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोगों को वसूली के नोटिस भेजे जाने पर उत्तर प्रदेश सरकार को शुक्रवार को आड़े हाथ लिया और उसे यह कार्यवाही वापस लेने के लिए अंतिम अवसर दिया और कहा कि अन्यथा न्यायालय कानून का उल्लंघन करने वाली इस कार्यवाही को निरस्त कर देगा।
शीर्ष अदालत ने कहा कि दिसंबर 2019 में शुरू की गई यह कार्यवाही उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित कानून के खिलाफ है और इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है। न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने आरोपियों की संपत्तियों को जब्त करने की कार्यवाही के लिए खुद ही शिकायतकर्ता, न्यायकर्ता और अभियोजक की तरह काम किया है।
पीठ ने कहा, कार्यवाही वापस लें या हम इस अदालत द्वारा निर्धारित कानून का उल्लंघन करने के लिए इसे रद्द कर देंगे। उच्चतम न्यायालय परवेज आरिफ टीटू की एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें उत्तर प्रदेश में सीएए आंदोलन के दौरान सार्वजनिक संपत्तियों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए जिला प्रशासन द्वारा प्रदर्शनकारियों को भेजे गए नोटिस रद्द करने का अनुरोध किया गया है और उसने इस पर राज्य से इसका जवाब मांगा है।
याचिका में आरोप लगाया गया है कि इस तरह के नोटिस मनमाने तरीके से भेजे गए हैं। यह एक ऐसे व्यक्ति को भेजा गया है जिसकी मृत्यु छह साल पहले 94 वर्ष की आयु में हुई थी और साथ ही ऐसे नोटिस 90 वर्ष से अधिक आयु के दो लोगों सहित कई अन्य लोगों को भी भेजे गए थे।
उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश अतिरिक्त महाधिवक्ता गरिमा प्रसाद ने कहा कि राज्य में 833 दंगाइयों के खिलाफ 106 प्राथमिकी दर्ज की गईं और उनके खिलाफ 274 वसूली नोटिस जारी किए गए। उन्होंने कहा, 274 नोटिस में से 236 में वसूली के आदेश पारित किए गए थे, जबकि 38 मामले बंद कर दिए गए थे।
उन्होंने कहा कि 2020 में अधिसूचित नए कानून के तहत, दावा न्यायाधिकरण का गठन किया गया है, जिसकी अध्यक्षता सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश कर रहे हैं और पहले इसकी अध्यक्षता अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (एडीएम) करते थे।
पीठ ने कहा, उच्चतम न्यायालय ने 2009 और 2018 में दो फैसलों में कहा है कि न्यायिक अधिकारियों को दावा न्यायाधिकरणों में नियुक्त किया जाना चाहिए लेकिन इसके बजाय आपने एडीएम नियुक्त किए हैं। प्रसाद ने कहा कि सीएए के विरोध के दौरान 451 पुलिसकर्मी घायल हुए और समानांतर आपराधिक कार्रवाई और वसूली की कार्रवाई की गई।
पीठ ने कहा, आपको कानून के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना होगा। कृपया इसकी जांच करें, हम 18 फरवरी तक एक मौका दे रहे हैं। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा, मैडम प्रसाद, यह सिर्फ एक सुझाव है। यह याचिका केवल एक तरह के आंदोलन या विरोध के संबंध में दिसंबर 2019 में भेजे गए नोटिसों से संबंधित है।
आप उन्हें एक झटके में वापस ले सकते हैं। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में 236 नोटिस कोई बड़ी बात नहीं है। अगर नहीं माने तो अंजाम भुगतने को तैयार रहें। हम आपको बताएंगे कि कैसे उच्चतम न्यायालय के फैसलों का पालन किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि जब इस अदालत ने निर्देश दिया था कि निर्णय न्यायिक अधिकारी द्वारा किया जाना है तो एडीएम कैसे कार्यवाही कर रहे हैं। प्रसाद ने दावा न्यायाधिकरणों के गठन पर 2011 में जारी एक सरकारी आदेश का हवाला दिया और कहा कि उच्च न्यायालय ने अपने बाद के आदेशों में इसे मंजूरी दे दी थी।
न्यायमूर्ति कांत ने कहा कि 2011 में उच्च न्यायालय ने सरकारी आदेश अस्वीकार कर दिया था और उस समय राज्य ने एक कानून लाने का वादा किया था, लेकिन राज्य को एक कानून लाने में 8-9 साल लग गए। न्यायमूर्ति कांत ने कहा, हम समझते हैं कि 2011 में आप वहां नहीं थे लेकिन आप त्रुटियों को बहुत अच्छी तरह से सुधार सकते थे।
प्रसाद ने कहा कि सभी आरोपी जिनके खिलाफ वसूली नोटिस जारी किए गए थे, वे अब उच्च न्यायालय के समक्ष हैं और लंबी सुनवाई हो चुकी है। उन्होंने कहा कि दंगाइयों के खिलाफ ये कार्यवाही 2011 से हो रही है और अगर अदालत इन सीएए विरोधी कार्यवाही रद्द कर देती है, तो वे सभी आकर राहत मांगेंगे।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, हमें अन्य कार्यवाही से कोई सरोकार नहीं है। हम केवल उन नोटिसों से चिंतित हैं जो दिसंबर 2019 में सीएए के विरोध के दौरान भेजे गए हैं। आप हमारे आदेशों को दरकिनार नहीं कर सकते। आप एडीएम की नियुक्ति कैसे कर सकते हैं, जबकि हमने कहा था कि यह न्यायिक अधिकारियों द्वारा किया जाना चाहिए। दिसंबर 2019 में जो भी कार्यवाही हुई, वह इस अदालत द्वारा निर्धारित कानून के विपरीत थी।
प्रसाद ने कहा कि अदालत ने जो भी कहा है उस पर विचार किया जाएगा। पिछले साल नौ जुलाई को शीर्ष अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार से कहा था कि वह राज्य में सीएए विरोधी आंदोलनों के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान की वसूली के लिए जिला प्रशासन द्वारा प्रदर्शनकारियों को भेजे गए पहले नोटिस पर कार्रवाई नहीं करे।
शीर्ष अदालत ने हालांकि कहा कि राज्य कानून के अनुसार और नए नियमों के अनुसार कार्रवाई कर सकता है। टीटू की दलील थी कि ये नोटिस उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले पर आधारित हैं जो शीर्ष अदालत के 2009 के निर्णय में प्रतिपादित दिशा निर्देशों का उल्लंघन है। न्यायालय ने 2009 के फैसले की 2018 में एक आदेश में भी पुष्टि की थी।(भाषा)