बीबीसी की भारतीय भाषा सेवाएं 'हमारी पुरखिन' की दूसरी कड़ी के साथ हाज़िर है। ये दूसरी कड़ी इसलिए ख़ास है क्योंकि इसमें 8 ऐसी दमदार महिलाओं की कहानियां हैं जो दलित या आदिवासी वर्ग से आती हैं। 'हमारी पुरखिन' की सफलता और मांग को देखते हुए बीबीसी ने इसकी दूसरी कड़ी लाने का फैसला लिया।
इन महिलाओं ने न केवल आज़ादी की लड़ाई बल्कि सामाजिक सुधारों में भी अहम भूमिका निभाई है, इन्होंने समाज में जातिगत भेदभाव के विरोध में आवाज़ उठाई लोगों के लिए नई राहें बनाईं। 8 कहानियों की इस दूसरी सिरीज़ में हमारी कोशिश आप तक ये कहानियां नए अंदाज में पहुंचाने की है। आप इन कहानियों को वीडियो और टेक्स्ट में देख-पढ़ सकेंगे।
ये 8 नई कहानियां शुक्रवार और शनिवार को आप बीबीसी हिंदी, बीबीसी मराठी, बीबीसी गुजराती, बीबीसी तमिल, बीबीसी तेलुगु और बीबीसी पंजाबी की वेबसाइट समेत फ़ेसबुक, यूट्यूब, ट्विटर और इंस्टाग्राम पेज पर अगले कुछ हफ़्तों कर देख-पढ़ पाएंगे। भारतीय भाषाओं की संपादक रूपा झा का कहना है, 'सामाजिक और आर्थिक शोषण मुक्त राष्ट्र के निर्माण और सुधार लाने में जिसकी बहुत ज़्यादा ज़रूरत थी, उनमें महिलाओं के योगदान को उतनी ज़्यादा जगह नहीं मिली है। यहां की हर एक कहानी एक नया रास्ता दिखाने वाली उन सुधारवादी महिलाओं के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है जो भारत के अलग-अलग हिस्सों के शोषित और सुविधाओं से वंचित वर्गों और जनजातियों से आती हैं और जो हर ऐतबार से महिलाओं के अधिकारों और उनकी आज़ादी के लिए लड़ने वाली योद्धा रही हैं।'
हमारी पुरखिन सीरीज़ की दूसरी कड़ी में शामिल की गईं महिलाओं से जुड़ीं ख़ास बातें-
•ऊदा देवी (उत्तरप्रदेश): 1857 के विद्रोह में अहम भूमिका निभाई। हालांकि उनका नाम इतिहास की किताबों में नहीं मिलता लेकिन लखनऊ की बेगम हज़रत महल की सुरक्षा का काम करने वाली ऊदा देवी ने 36 अंग्रेंज सैनिकों को मारकर अपने पति की हत्या का बदला लिया था।
•कृष्णम्माल जगन्नाथन (तमिलनाडु): एक ऐसी महिला जिन्होंने भूमिहीन ग़रीब लोगों को ज़मीन दिलाने का काम किया। वे साल 1950 में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़ीं और ज़मींदारों के बीच गरीब भूमिहीन किसानों को ज़मीन का कुछ हिस्सा दान में देने के लिए मुहिम चलाई। उन्हें भूमि सुधार और आजीविका के अधिकार में योगदान के लिए कई पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया है जिसमें पद्मश्री भी शामिल है।
•रानी गाइदिनल्यू (मणिपुर) : उन्होंने ब्रितानी फ़ौज के जबरन हाउस टैक्स और मज़दूरी कराने का विरोध किया। उनके चचेरे भाई हाइपॉन्ग जदोनांग को फांसी लगाए जाने के बाद रानी गाइदिनल्यू ने ज़ेलिऑन्गरॉन्ग आंदोलन की कमान संभाली जिसके मुख्य मक़सदों में से एक, अपनी संस्कृति को बचाना था। उन्होंने ब्रितानी फ़ौज के ख़िलाफ़ अभियान भी चलाया। वे 14 साल तक जेल में रहीं। नेहरू ने रानी गाइदिनल्यू को उनके साहस और योगदान के लिए पहाड़ों की बेटी और रानी की उपाधि दी। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी ताम्रपत्र और पद्मभूषण जैसे सम्मान से नवाज़ा गया।
•जाईबाई चौधरी (महाराष्ट्र) : जाईबाई को फ़ातिमा शेख़ की ही तरह दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलने की शुरुआत करने वालों में माना जाता है। उन्होंने रेलवे स्टेशन पर कुली का काम किया। वे शिक्षिका बनीं, फिर प्रिंसिपल और दलित एक्टिविस्ट बनकर दलितों के हक़ के लिए अपनी आवाज़ बुलंद की।
•हेमलता लवनम (आंध्रप्रदेश) : उन्होंने महिलाओं को जोगिनी प्रथा से मुक्ति दिलाने में अहम भूमिका निभाई और क़रीब 30 से ज्यादा जोगिनियों की शादी करवाई। जोगिनी प्रथा में लड़कियों को भगवान की शरण में दे दिया जाता है। हेमलता लवनम को आंधप्रदेश के गांव स्टुअर्टपुरम में अपराधियों के सुधार और पुनर्वास में अहम योगदान के लिए भी जाना जाता है।
•सिल्वरीन स्वेर (मेघालय): मेघालय में खासी कबीले से आने वाली सिल्वरीन स्वेर ने शिक्षा और स्काउट्स एंड गाइड्स के ज़रिए लड़कियों को नई राह दिखाई। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान असिस्टेंट कंट्रोलर ऑफ़ राशनिंग के तौर पर सिल्वरीन स्वेर के काम को काफ़ी सराहा गया और उन्हें इसके लिए क़ैसर-ए-हिंद पुरस्कार से भी नवाज़ा गया। सिल्वरीन स्वेर को पासीघाट ऑफ़िस में चीफ़ सोशल एजुकेशन ऑफ़िसर का पद दिया गया जो काम काफ़ी चुनौतीपूर्ण था। मेघालय में पद्मश्री पाने वाली वे पहली महिला हैं।
•पीरो (पंजाब): अपने पति की मौत के बाद पीरो को देहव्यापार में धकेल दिया गया लेकिन वे इससे बाहर निकलीं और एक धार्मिक नेता से मिलने के बाद वे आंदोलनकारी कविताएं लिखने लगीं। अपनी कविताओं के ज़रिए उन्होंने पितृसत्तात्मकता, जातिवाद और धार्मिक रूढ़िवादिता को चुनौती दी।
•झलकारी बाई (उत्तरप्रदेश): झलकारी बाई का नाम इतिहास की किताबों में नहीं मिलता है। यह दलित महिला रानी लक्ष्मीबाई की नज़दीकी सहयोगी थीं। उन्हें किले से बाहर निकालने में झलकारी का अहम योगदान था। पिछले कुछ दशकों में उन पर अनेक किताबें लिखी गई हैं। अब लोग उन्हें जानने लगे हैं। मगर अब भी समाज के बड़े तबके को उनके योगदान को स्वीकार करने में दिक्कत है।