रूस यूक्रेन युद्ध : जो अमेरिका और यूरोप नहीं कर पाए वह नरेन्द्र मोदी ने कर दिखाया

राम यादव
रूस द्वारा यूक्रेन पर 24 फ़रवरी के आक्रमण के बाद से, भारत सहित कई देशों के सर्वोच्च नेता, दोनों को समझाने-बुझाने और बीच-बचाव करने के प्रयास कर चुके हैं, पर किसी की दाल अभी तक गली नहीं है। 
 
यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के दो सप्ताहों के भीतर ही जिन देशों के शीर्ष नेताओं ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की से संपर्क किये, उनमें भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संभवतः सबसे पहले नेता थे। उन्होंने युद्ध छिड़ने के पहले दिन ही, यानी 24 फ़रवरी की रात, रूसी राष्ट्रपति से टेलीफ़ोन पर बात की और उनसे ''बलप्रयोग को तुरंत रोकने तथा राजनयिक वार्ताओं के रास्ते पर लौटने'' की अपील की। मोदीजी ने कहा कि ''रूस और नाटो गुट के बीच जो भी मतभेद हैं, उन्हें ईमानदार और निष्कपट वार्ताओं द्वारा ही सुलझाया जा सकता है।'' भारत में यूक्रेनी राजदूत ने और कुछ दिन बाद यूक्रेनी विदेशमंत्री द्मीत्रो कुलेबा ने भी, भारत से अनुरोध किया कि रूस के साथ अपने विशेष संबंधों को देखते हुए उसे युद्ध को रुकवाने का प्रयास करना चाहिए।  
 
रूसी-यूक्रेनी युद्ध के पहले दो सप्ताहों में ही मोदीजी रूसी राष्ट्रपति को तीन बार फ़ोन कर चुके थे। 7 मार्च के तीसरे फ़ोन में रूसी राष्ट्रपति पुतिन से उन्होंने कहा कि मानवीय संकट पैदा कर रहे इस झगड़े के अंत के लिए वे यूक्रेनी राष्ट्रपति से सीधे बात करें। प्रधानमंत्री मोदी ने यूक्रेनी राष्ट्रपति को भी फ़ोन किया और वहां फंस गए भारतीय छात्रों को सुरक्षित निकालने के अभियान में उनकी सहायता के लिए धन्यवाद दिया। दोनों राष्ट्रपतियों ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे भारतीय छात्रों की निकासी में हर संभव सहयोग देंगे। 
 
रूसी-यूक्रेनी युद्ध छिड़ने के बाद से प्रधानमंत्री मोदी बहुत सक्रिय अवश्य रहे हैं, तब भी इस प्रशंसनीय सक्रियता को मध्यस्थता का रंग देना तथ्यसंगत नहीं लगता। उनकी मुख्य चिंता कोई मध्यस्थता नहीं, यूक्रेन में फंस गए क़रीब 16 हज़ार भारतीय छात्रों को सुरक्षित स्वदेश वापस लाना थी। इसके लिए भारत और यूक्रेन के पड़ोसी देशों के बीच उड़ानों का जो अपूर्व 'हवाई पुल' बना, वह एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक कार्य था। किसी दूसरे देश नें अपने नागरिकों को यूक्रेन से वापस लाने के लिए ऐसी लगन से और इतने बड़े पैमाने पर काम नहीं किया। यूरोप और अमेरिका तक के देशों ने अपने दूतावास धड़ाधड़ बंद कर दिए या कीव से हटा दिए। अपने नागरिकों से कहा कि वे स्वयं देखें कि यूक्रेन से कैसे बाहर निकल सकते हैं। भारत के इतने बड़े अभियान 'ऑपरेशन गंगा' का पश्चिमी मीडिया ने शायद ही कभी उल्लेख किया, क्योंकि इससे भारत की छवि चमकीली और पश्चिमी देशों की नाक नीची होती थी।
 
रूसी राष्ट्रपति के नाम प्रधानमंत्री मोदी के 7 मार्च वाले तीसरे फ़ोन से दो दिन पहले, उनके मित्र इसराइली प्रधानमंत्री नफ्ताली बेनेट मॉस्को जाकर पुतिन से मिले थे। उसी दिन बाद में बर्लिन पहुंचकर उन्होंने जर्मनी के नए चांसलर (प्रधानमंत्री) ओलाफ़ शोल्त्स को पुतिन के साथ तीन घंटे चली अपनी बातचीत से अवगत किया था। बेनेट ने यूक्रेनी राष्ट्रपति को भी टेलीफ़ोन द्वारा बताया कि मॉस्को में उनकी बातचीत कैसी रही। उन्होंने ने यह आकस्मिक पहल अपने मन से की थी।
 
समझा जाता है कि बेनेत भी अपने आप को एक मध्यस्थ के तौर पर पेश करना चाहते हैं। इसराइल के रूस और यूक्रेन, दोनों के साथ अच्छे संबंध हैं। यूक्रेनी राष्ट्रपति तो खुद भी यहूदी हैं। रूस में अब भी बहुत से यहूदी रहते हैं। इसलिए दोनों के बीच मध्यस्थता में बेनेट की दिलचस्पी होना स्वाभाविक भी है। भारतीय प्रधानमंत्री की तरह ही इसराइली प्रधानमंत्री के भी दोनों पक्षों के साथ टेलीफ़ोन संपर्क बने हुए हैं, पर कोई उल्लेखनीय परिणाम अभी तक सामने नहीं आया है। 
 
एक समय लग रहा था कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों रूस को मनाने और यूक्रेन को बचाने में लगे हुए हैं। युद्ध छिड़ने से ढाई सप्ताह पहले, 7 फ़रवरी के दिन मॉस्को जा कर कई घंटों तक उन्होंने रूसी राष्ट्रपति के साथ माथापच्ची की। पर, परिणाम यही रहा कि 24 फरवरी को युद्ध का छिड़ना रोक नहीं पाए। उसके बाद भी वे दो या तीन बार पुतिन को फ़ोन कर चुके हैं, घंटों बातें की हैं, पर उन्हें टस-से-मस नहीं कर पाए। 
 
संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनियो गुतेरेश 25 अप्रैल को मॉस्को में रूसी राष्ट्रपति से और अगले दिन, 26 अप्रैल को कीव में यूक्रेनी राष्ट्रपति से मिले। मॉस्को में उन्होंने युद्ध से पैदा हो रही मानवीय त्रासदी और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट को मुद्दा बनाया और कीव में संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए जा रहे राहत कार्यों की समीक्षा की। मॉस्को में उनकी एक नहीं चली और कीव में वे एक रूसी रॉकेट हमले का शिकार होने से बाल-बाल बचे। इस हमले के द्वारा रूस ने जता दिया कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव यदि अपना भला चाहते हैं तो किसी मध्यस्थता की बात भूल जाएं।  
 
यूरोपीय संघ और अमेरिका इस युद्ध में यूक्रेन के पैरोकार हैं। वे निष्पक्ष मध्यस्थता कर नहीं सकते। इसलिए यूरोपीय संघ के विदेश नीति प्रभारी जोसेफ़ बोरेल का सुझाव है कि यह काम चीन को सौंपा जाए। बोरेल का कहना है कि हमने चीन से यह आग्रह अभी नहीं किया है और न उन्होंने (चीनियों ने) इसका अनुरोध किया है। लेकिन चीन ही इसे कर सकता है।... कोई महाशक्ति ही यह काम कर सकती है।
 
बोरेल कोई बहुत साफ़-सुथरे व्यक्ति नहीं हैं और न ही विदेश नीति के कोई जाने-माने ज्ञाता हैं। रूस और यूक्रेन के बीच झगड़े का मध्यस्थ चीन को बनाना, बकरे को बगीचे का माली बनाने के समान है। चीन ने हालांकि खुलकर अब तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है, पर मन ही मन लड्डू ज़रूर फोड़ रहा होगा। चीन ने आरंभ में यह ज़रूर कहा कि विवाद का समाधान शांतिपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिये। सभी देशों की 'सार्वभौमता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान होना चाहिए,'  पर यदि वह स्वयं इन आदर्शों की परवाह कर रहा होता तो आज उसके पड़ोसी देश विस्तारवादी बता कर उसे कोस नहीं रहे होते।
 
चीनी विदेशमंत्री वांग यी ने रूस को 'सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक साथी' बताते हुए हाल ही में कहा कि 'अंतरराष्ट्रीय परिवेश चाहे जितना ख़तरनाक हो जाए, चीन इस साझेदारी को और अधिक बढ़ाएगा।' चीन के एक यूरोपीय मर्मज्ञ का मानना है कि 'रूस जो भी करना चाहे, चीन उसे करने की छूट देगा। अतीत में चीन ने अधिकतर वहीं कोई मध्यस्थता की है, जहां उसकी चलती रही हो और बात उत्तरी कोरिया या पाकिस्तान जैसे छुटभैयों की रही हो। चीन को रूस पर विश्वास करने में कठिनाई होगी और अपनी सफलता के प्रति संदेह भी रहेगा।' 
 
वास्तव में तुर्की वह देश है, जो विगत मार्च महीने में रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थता कर चुका है और आगे भी कर सकता है। यह एक अजीब स्थिति है, लेकिन सच यही है कि तुर्की, रूस के भयस्वप्न नाटो का सदस्य है, यूक्रेन को अब भी हथियार दे रहा है, रूस के विरुद्ध किसी प्रकार के प्रतिबंध लगाने से मना कर देता है, तब भी रूस और यूक्रेन मार्च में उसकी मध्यस्थता स्वीकार कर चुके हैं। तुर्की ने ही पहले अंताल्या में रूसी और यूक्रेनी प्रतिनिधियों के बीच पहले दौर की वर्ताएं आयोजित कीं और 29 मार्च को इस्तांबूल में दोनों देशों के विदेशमंत्रियों को भी मिलवाया।
 
यूक्रेन उस समय नाटो की सदस्यता पाने की अपनी चिरकामना से विदा लेने को भी तैयार हो गया था। उसका कहना था कि उसकी पसंद के कुछ देशों से उसे अपनी सुरक्षा और क्षेत्रीय अखंडता की यदि गारंटी मिले, तो वह नाटो से बाहर रह कर एक तटस्थ देश बनने को तैयार है। लेकिन रूस तब भी संतुष्ट नहीं लगा। यूक्रेनी राष्ट्रपति के सलाहकार मिहाइलो पोदोल्याक ने बताया कि उनका देश रूस, चीन, अमेरिका, फ्रांस, तुर्की, जर्मनी, कैनडा और इसराइल से अपनी सुरक्षा की गारंटी चाहता है। ऐसा लगता है कि रूस यह गारंटी नहीं देना चाहता, इसलिए बात आगे नहीं बढ़ पाई। यूक्रेन की इस सूची में इसराइल का नाम है, लेकिन भारत का नाम नहीं है!
 
भारत का या प्रधानमंत्री मोदी का नाम भारत का मीडिया उछाल रहा था, कोई दूसरा देश नहीं। भारत के हित में भी यही है कि उसे रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थता नहीं करनी पड़े। रूस ने अतीत में कश्मीर से लेकर चीन के साथ सीमा विवाद, गोवा के भारत में विलय से लेकर बांग्लादेश के जन्म और परमाणु परीक्षणों के समय अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों जैसे अनगिनत मौकों पर भारत की लाज जिस तरह बचाई है, अस्त्र-शस्त्र से भारत को जिस तरह शक्तिशाली बनाया है, उस सबको देखते हुए और यह जानते हुए भी, कि रूस ने इस बार भयंकर ग़लती की है, भारत को ऐसे धर्मसंकट से बचना चाहिए, जिसमें रूसी उपकार के आगे किसी अपकार के हो जाने की रत्ती भर भी आशंका हो। ईमानदार मध्यस्थता का यह भी तकाज़ा होगा कि भारत, यूक्रेन को रूसी आक्रमण का शिकार माने। मध्यस्थता के लोभ में नहीं पड़ने से 'आगे कुआं, पीछे खाई' वाली यह दुविधा भी नहीं खड़ी होगी।   
 
पश्चिमी देश चाहते हैं कि जो कोई मध्यस्थ बने, वह पहले रूसी आक्रमण और पुतिन की निंदा करे। जो निंदा करने को तैयार नहीं, उस पर रूस समर्थक या अवसरवादी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है। तुर्की को रूस के किसी उपकार के प्रति कृतज्ञता नहीं दिखानी है। उसके राष्ट्रपति एक सिद्धांतहीन अवसरवादी ढुलमुल नेता के रूप में जाने जाते हैं। उन्हें ही मध्यस्थता की सबसे अधिक भूख भी है। यह काम उन्हें करने देना सबके लिए श्रेयस्कर है। (इस आलेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के अपने। वेबदुनिया इसकी जिम्मेदारी नहीं लेता।)
 

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