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पुणे की जातीय हिंसा के पीछे बड़ी साजिश

हमें फॉलो करें पुणे की जातीय हिंसा के पीछे बड़ी साजिश
, बुधवार, 3 जनवरी 2018 (12:30 IST)
महाराष्ट्र के पुणे में भीमा-कोरेगांव युद्ध की 200वीं सालगिरह पर हुई जातीय हिंसा के मामले में गुजरात के नवनिर्वाचित निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी और जेएनयू में देशविरोधी नारे मामले से चर्चित हुए छात्रनेता उमर खालिद के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई है। इससे इस बात को पूरी तरह बल मिलता है कि इस पूरे मामले के पीछे गहरी साजिश है। 
 
शिकायतकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि जिग्नेश मेवाणी और उमर खालिद ने कार्यक्रम के दौरान भड़काऊ भाषण दिया था, जिसके चलते दो समुदायों में हिंसा हुई। पुणे में आयोजित हुए इस कार्यक्रम में जिग्नेश, उमर के अलावा बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर, हैदराबाद यूनिवर्सिटी में खुदकुशी करने वाले दलित छात्र रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला भी शामिल हुईं, जिन्होंने बौद्ध धर्म अंगीकार कर रखा है। उल्लेखनीय है कि रोहित वेमुला के मामले में हुई जांच से यह स्पष्ट हो चला है कि वे दलित नहीं थे।

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वहां जितने भी लोग इकट्‍ठे हुए में वे दलित नहीं बौद्ध थे। लेकिन कुछ मीडिया समूह द्वारा इस कार्यक्रम को दलितों का कार्यक्रम मान लेने से और इसे दलित सवर्ण का झगड़ा मान लेने से भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई, जिसके चलते समाज में यह संदेश गया कि दलितों ने यह हंगामा खड़ा किया है। दरअसल जहां भी बौद्ध धर्म के कार्यक्रम में विवाद होता है उस कार्यक्रम को दलित कार्यक्रम का नाम दे दिया जाता है। इससे नवबौद्धों का मकसद आसान हो जाता है।
 
 
ऐसे ही एक कार्यक्रम में उमर खालिद और जिग्नेश शामिल हुए थे। आरोप है कि जिग्नेश मेवानी ने अपने भाषण के दौरान एक खास वर्ग के लोगों को सड़क पर उतरने के लिए उकसाया था। उमर खालिद ने भी अपने भाषण में जाति विशेष के लोगों को उकसाने वाली बातें कही थी।
 
इन दोनों लोगों के भाषण के बाद एक खास वर्ग के लोग विरोध करने के इरादे से सड़क पर निकलने लगे, जो बाद में हिंसक रूप ले लिया। आरोप है कि विधायक जिग्नेश 14 अप्रैल को नागपुर में जाकर आरएसएस मुक्त भारत अभियान की शुरुआत करने की भी बात कही थी।
 
 
हिंसा की शुरुआत पुणे के कोरेगांव-भीमा से सोमवार को तब शुरू हुई, जब कुछ बौद्ध संगठनों ने एक जनवरी 1818 में यहां पर ब्रिटिश सेना और पेशवा के बीच हुए युद्ध की वर्षगांठ मनाने जुटे। इस युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकला था, लेकिन बिटिश सेना ने इस दिन को अपनी 'जीत का दिन' घोषित कर दिया था।
 
ब्रिटिश सेना की ओर से हिन्दुओं की महार जाति के जवानों ने भी भाग लिया था। वर्तमान में महार जाति के अधिकतर लोग बौद्ध बन चुके हैं। यहीं कारण है कि इन नवबौद्धों ने इस दिन की इस वर्ष सालगिरह मनाने का फैसला किया जहां भड़काऊ भाषण के बाद भड़की हिंसा में नांदेड़ के रहने वाले 28 वर्षीय राहुल फंतागले की मौत हो गई, जबकि 50 से अधिक वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया था। सवाल यह उठता है कि क्या हमें ब्रिटिश सेना की जीत का जश्न मनाना चाहिए? क्या यह देशद्रोही कार्य नहीं है?
 
 
हिन्दू समाज के दलितों के नाम पर राजनीति करके समाज में फूट डालने का प्रचलन सदियों से रहा है। वर्तमान में जबसे नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं तभी से वे लोग ज्यादा सक्रिय हो गए हैं जो हिंदू धर्म और आरएसएस के विरोधी हैं। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ चाहे कुछ भी हो लेकिन इस देश में कभी भी धर्मनिरपेक्ष राजनीति नहीं हुई है। पक्ष और विपक्ष दोनों में ही जाति और धर्म को तोड़कर राजनीति करने का चलन रहा है। यह खतरनाक चलन देश के सामाजिक ताने-बाने, शांति और समृद्धि के लिए अच्छा नहीं है।
 
 
वर्तमान में नवबौद्धों द्वारा बुद्ध के शांति संदेश के बजाय नफरत को ज्यादा प्रचारित किया जा रहा है। इसमें उनका मकसद है हिन्दू दलितों को बौद्ध बनाना। नवबौद्धों को भड़काने में वामपंथी और कट्टर मुस्लिम संगठनों का हाथ भी निश्‍चित तौर पर देखा जा सकता है। साम्यवाद, समानता और धर्मनिरपेक्षता की बातों को प्रचारित करके उसकी आड़ में जो किया जा रहा है वह किसी से छुपा नहीं है। नीयत पर तब शक ज्यादा होता है जबकि कभी नहीं मनाई गई सालगिरह को अब मनाया गया और वह भी उमर खालिद और जिग्नेश मेवाणी के नेतृत्व में। 
 
भारत के इस दौर में नया तबका पैदा हो गया है जिसको भारतीय धर्म और इतिहास की जरा भी जानकारी नहीं है। जिसमें 20 से 35 साल के युवा, अनपढ़ और गरीब ज्यादा हैं। इतिहास और धर्म की जानकारी से इन अनभिज्ञ लोगों को षड़यंत्रों के संबंध में बताना थोड़ा मुश्किल ही होगा क्योंकि दलितों की आड़ में जाति और धर्म की राजनीति करने वाले नेता बड़ी-बड़ी बातें करते हैं तो इन अनभिज्ञ लोगों को अच्छा लगता है। वे सभी इनके बहकावे में आ जाते हैं। भड़काकर ही धर्मांतरण या राजनीतिक मकसद को हल किया जा सकता है।

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