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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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पद्मावती भी थीं और रत्नसिंह भी, ऐतिहासिक तथ्य

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संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्‍मावती' विवाद में क्या घिरी पूरे देश में यह साबित करने की होड़-सी मची हुई है कि पद्मावती या पद्मिनी तो एक काल्पनिक पात्र है, जिसे मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने काव्यग्रंथ 'पद्मावती' की नायिका के रूप में गढ़ा था। इस दौड़ में ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी भी शामिल हैं, जिन्हें इतिहास की समझ तो है ही नहीं, बल्कि उनकी सोच का नजरिया भी एक खास विचारधारा पर आधारित है। 
 
पद्‍मावती से जुड़े विवाद पर जब नटनागर शोध संस्थान के निदेशक इतिहासविद् डॉ. मनोहरसिंह राणावत से बात की तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पद्मिनी काल्पनिक पात्र नहीं बल्कि पूरी तरह से ऐतिहासिक चरित्र है। वे कहते हैं कि एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह भी है कि इस देश का इतिहास भी विचारधाराओं के चंगुल में फंसा हुआ है। एक ओर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के मुगलकालीन इतिहास के प्रोफेसर नजफ हैदर रानी पद्मावती को एक काल्पनिक पात्र मानते हैं, वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय के ही प्रोफेसर रजीउद्दीन अकील पद्मावती को एक ऐतिहासिक पात्र मानते हैं। महानगरों और मीडिया में सिमटी बहस के बीच वास्तविकता की तरफ शायद कोई देखना भी नहीं चाहता।
 
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इतिहास पर कई प्रामाणिक पुस्तकें लिखने वाले डॉ. राणावत ने कहा कि राजपूतों का इतिहास सातवीं शताब्दी से शुरू होता है और रानी पद्मावती के जौहर का किस्सा 14वीं शताब्दी के प्रारंभ का है। चित्तौड़ के शासक रावल समरसिंह के पुत्र रावल रतन सिंह 1302 में चित्तौड़ के शासक बने थे। दिल्ली में उस समय अलाउद्दीन खिलजी की सल्तनत थी। जनवरी, 1303 में दिल्ली का सुल्तान खिलजी चित्तौड़ पर आक्रमण के लिए रवाना हुआ था।
 
फरवरी के अंत में उसने चित्तौड़ पर घेरा डाला था, लेकिन दुर्ग की भौगोलिक स्थिति के कारण आक्रमण नहीं कर पाया था। लिहाजा, उसने छह महीने तक घेरा डाले रखा। इस घेरे के कारण चित्तौड़ की रसद आपूर्ति ठप हो गई थी, लिहाजा रतनसिंह के पास लड़ने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा था। खिलजी के मुकाबले रतनसिंह की सेना बहुत छोटी थी और उसका जीतना संभव नहीं था।
 
उन्होंने कहा कि उस दौर में तब महिलाएं एक तरह से सम्पत्ति की ही तरह मानी जाती थीं लिहाजा दुश्मन लूटपाट में महिलाओं और बच्चों को भी निशाना बनाते थे। महिलाएं समाज में सम्मान का भी प्रतीक रही हैं। लिहाजा, रानी पद्मावती के नेतृत्व में किले में मौजूद करीब सोलह हजार महिलाओं ने 25 अगस्त, 1303 को जौहर किया था। इसके अगले दिन 26 अगस्त को किले के द्वार खोले गए। रतनसिंह ने परिवार सहित किले में मौजूद हर पुरुष ने लड़ाई लड़ी और वीरगति को प्राप्त हुए। खिलजी जब किले में पहुंचा तो उसे किले में कोई भी जीवित नहीं मिला था। न कोई महिला न कोई बच्चा।
डॉ. राणावत ने कहा कि राजपूतों में महिलाओं के जौहर की परंपरा आठवीं सदी से शुरू हुई थी। संकट में शत्रु के हाथ पड़ने से बेहतर राजपूत महिलाएं आत्मदाह कर लिया करती थीं। हालांकि वे कहते हैं कि इतिहास में रानी पद्मावती की सुंदरता पर रीझ कर खिलजी के आक्रमण का कोई प्रमाण नहीं है। यह आक्रमण उसके साम्राज्य के विस्तार का ही हिस्सा था। 
 
वे कहते हैं कि 1296 में खिलजी ने रणथंभौर और 1308 में जालौर पर भी आक्रमण किया था। पद्मावती की सुंदरता और उस पर खिलजी के रीझने की कल्पना तो सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने ढाई सौ साल बाद 1540 में की थी। डॉ. राणावत अपनी बात के पक्ष में तर्क देते हैं कि नटनागर शोध संस्थान में राजपूतों के इतिहास से लेकर अकबर के काल की भी कई हस्तलिखित पांडुलिपियां मौजूद हैं। इसके अलावा राजस्थान की बड़वा जाति के लोगों के वे ग्रंथ भी उपलब्ध हैं जिनमें वे राजाओं की वंशावली लिखा करते थे। ऐसे में यह कहना कि रतनसिंह और पद्मावती काल्पनिक पात्र हैं, पूरी तरह गलत है। 
 
हिन्दुस्तान में मौजूद है लिखित इतिहास : डॉ. राणावत ने कहा कि जाहिर है हिन्दुस्तान में लिखा हुआ इतिहास भी मौजूद है, लेकिन दिक्कत यह है कि देश के अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी अंग्रेजों द्वारा लिखे गए इतिहास को ही इतिहास मानते हैं। इसके अतिरिक्त सब कल्पना। उन्होंने कहा कि यही कारण है कि देश में ऐसी पाठ्यपुस्तकें भी तैयार हुईं हैं जिनमें भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों को आतंकी और लुटेरा ठहरा दिया जाता है। 
 
जब उनसे पूछा कि क्या कुछ ऐसे ग्रंथों का नाम बता सकते हैं, जिनमें पद्मावती का उल्लेख हुआ हो? इस पर डॉ. राणावत ने कहा कि चित्तौड़ उदयपुर पाटनामा, सिसोदिया री ख्यात, राज प्रशस्ति महाकाव्य के अलावा कई अन्य ग्रंथ भी हैं जिनमें पद्मावती या पद्मिनी का उल्लेख है। 
 
उल्लेखनीय है कि नटनागर शोध संस्थान मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले की सीतामऊ कस्बे में स्थित है और यहां इतिहास की एक बड़ी और प्रमाणिक लायब्रेरी है। संस्थान में राजपूतों का संपूर्ण इतिहास उपलब्ध है। इसकी स्थापना प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रघुवीरसिंह ने की थी।
(इतिहासविद् डॉ. मनोहरसिंह राणावत से वृजेन्द्रसिंह झाला की बातचीत पर आधारित) 


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