केन्द्र में भगवा ब्रिगेड यानी नरेन्द्र मोदी की महाविजय के बाद कांग्रेस में खलबली मची हुई है। परिणामों के बाद देश की सबसे पुरानी पार्टी के खेमे की बेचैनी साफ पढ़ी जा सकती है। अब तो लोगों के मन भी में यह सवाल उठने लगे हैं कि कहीं यह कांग्रेस के अंत की शुरुआत तो नहीं है? ध्यान रखने वाली बात है कि मोदी कई बार कांग्रेस मुक्त भारत की बात कर चुके हैं।
हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में कांग्रेस को 8 सीटें ज्यादा मिली हैं। लेकिन, पिछली बार 44 सीटें जीतने वाली कांग्रेस इतनी परेशान नहीं थी। इस बार 17 राज्यों- आंध्रप्रदेश, हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, मणिपुर, नगालैंड, मिजोरम, दिल्ली, ओडिशा, सिक्किम, राजस्थान, चंडीगढ़, दादर एवं नगर हवेली, दमन एवं दीव, लक्षद्वीप में कांग्रेस खाता भी नहीं खोल पाई।
गुजरात में 62.2 प्रतिशत वोट हासिल कर भाजपा ने सभी 26 सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा। कांग्रेस के लिए सबसे शर्मनाक स्थिति मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में रही जहां उसने 2018 के अंत में सरकारें बनाई थीं। राजस्थान में कांग्रेस सभी सीटों पर हारी, यहां तक कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने बेटे वैभव को भी जोधपुर से नहीं जिता पाए। इसी तरह मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दिग्गज करीब सवा लाख वोट से चुनाव हार गए। कमलनाथ जैसे-तैसे अपने बेटे नकुल को ही चुनाव जिता पाए, जबकि उनके बूढ़े कंधों पर पूरे प्रदेश की जिम्मेदारी थी।
उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से कांग्रेस महज अपनी एक सीट रायबरेली बचा पाई। सबसे आश्चर्यजनक कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का अमेठी से हारना रहा। वे अपनी परंपरागत सीट को भी नहीं बचा पाए। राहुल की हार का अंतर 55 हजार से भी ज्यादा था। राहुल की हार से अब उन बातों की भी पुष्टि हो गई, जिनमें कहा गया था कि अमेठी में हार के डर से राहुल केरल की वायनाड सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। बिहार में भी कांग्रेस समर्थित पूरा का पूरा गठबंधन धराशायी हो गया। 40 में से मात्र 1 सीट कांग्रेस के खाते में आई।
कांग्रेस में निराशा का माहौल तो इतना है कि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपना इस्तीफा दे दिया। इसके बाद तो इस्तीफों का सिलसिला ही शुरू हो गया। राहुल तो यहां तक कह चुके हैं कि अब गांधी से परिवार से बाहर के व्यक्ति को पार्टी अध्यक्ष बनाना चाहिए। हालांकि यह कहा जा रहा है कि राहुल मान जाएंगे और पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे। इतना ही नहीं, राहुल ने पुत्रमोह के लिए अशोक गहलोत, कमलनाथ और पी. चिदंबरम को भी आड़े हाथों लिया।
हालांकि ऐसा भी नहीं लगता कि कांग्रेस अपनी पिछली गलतियों से कोई सबक सीख रही है। चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी 'चौकीदार चोर है' से आगे नहीं बढ़ पाए, बल्कि इस मामले में उन्हें सुप्रीम कोर्ट में माफी भी मांगनी पड़ी। इस मामले में उनकी काफी किरकिरी हुई। बेरोजगारी जैसे मुद्दे को राहुल अपने पक्ष में नहीं भुना पाए। युवा होने के बावजूद वे युवाओं से कनेक्ट नहीं कर पाए।
तुरुप के इक्के की तरह प्रियंका गांधी वाड्रा की एंट्री हुई। मंदिरों और दरगाहों में माथा टेकने के बावजूद वे कुछ भी करिश्मा नहीं कर पाईं। काशी में मोदी के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने का उन्होंने माहौल बनाया, लेकिन ऐन मौके पर प्रियंका ने अपने पांव पीछे खींच लिए। इससे मतदाताओं में गलत संदेश गया। यदि वे मोदी के सामने अड़ जातीं तो हो सकता है कि कांग्रेस को यूपी में कुछ सीटों पर फायदा मिल सकता था, भले ही वे हार जातीं। लेकिन, उनकी शुरुआती हवा आखिर में 'हवाहवाई' ही साबित हुई।
कांग्रेस को यदि वाकई एक बार मुकाबले में आना है तो अपने संगठनात्मक ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। वर्षों से पदों पर जमे नेताओं को हटाकर उनके स्थान पर युवा चेहरों को मौका देना होगा। साथ ही चुनावी रणनीति में भी बदलाव करना होगा। खुद को ऐसे धर्मनिरपेक्ष दल के रूप में पेश करना होगा, जिसका झुकाव किसी वर्ग विशेष की ओर न हो।
सबसे अहम, ज्यादा अच्छा होगा कि राहुल के स्थान पर प्रियंका को कांग्रेस की जिम्मेदारी सौंप दी जाए और अभी से ही वे 2024 के चुनाव की तैयारी में जुट जाएं। मोदी से पार पाना है तो मोदी स्टाइल में ही चुनाव लड़ना होगा। अन्यथा कांग्रेस के अंत की शुरुआत तो हो ही गई है।