नई दिल्ली। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के पूर्व प्रमुख मोहम्मद असद दुर्रानी ने यह स्वीकार किया कि इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) ने ही घाटी में हुर्रियत का बीज बोया था। पाकिस्तान की तरफ से अपनी तरह का यह पहला कबूलनामा है।
दुर्रानी वर्ष 1990 से 92 के बीच आईएसआई के प्रमुख थे, इसी दौरान कश्मीर घाटी में इतने बड़े पैमाने पर हथियारबंद अलगाववादियों का तांडव शुरू हुआ था। वे कहते हैं, मुझे लगता है कि तहरीक (आंदोलन) को एक राजनीतिक दिशा देने के लिए हुर्रियत का गठन एक अच्छा आइडिया था।'
दुर्रानी हुर्रियत के गठन का सेहरा भले ही अपने सर बांधते हैं, लेकिन इसे खुली छूट देने का उन्हें अफसोस है। दरअसल खुफिया एजेंसियों और उनके कारनामों पर आधारित किताब 'Spy Chronicles RAW, ISI and the Illusion of Peace' में पत्रकार आदित्य सिन्हा के साथ दुर्रानी और पूर्व रॉ प्रमुख एएस दुलत की चर्चा में यह बात उजागर हुई।
इस किताब में दुर्रानी और दुल्लत के बीच कश्मीर, हुर्रियत, अफगानिस्तान, ओसामा बिन लादेन, परवेज मुशर्रफ, अजित डोभाल, अटल बिहारी वाजपेयी, परवेज मुशर्रफ और वाजपेयी के बीच हुई आगरा वार्ता और नरेंद्र मोदी को लेकर हुई बातचीत का विस्तार से जिक्र है।
यहां एक दिलचस्प बात यह भी है कि 1990 के दशक में दुर्रानी जब आईएसआई का जिम्मा संभाल रहे थे, तब दुलत भी खुफिया ब्यूरो (आईबी) के संयुक्त निदेशक के रूप में कश्मीर में तैनात थे।दुर्रानी से भारत के खिलाफ मुहिम में आईएसआई की नाकामी को लेकर सवाल किया गया, तो उन्होंने बातों-बातों में बताया कि आईएसआई ने कैसे हुर्रियत का गठन किया और कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन के शुरुआती दिनों में उसकी मदद की।
दुर्रानी ने कहा, सबसे बड़ी नाकामी यह थी कि कश्मीर में जब आंदोलन शुरू हुआ, तो हमें यह कतई अंदाजा नहीं था कि यह कितना आगे जाएगा। वे आगे कहते हैं, यह चीज़ें अमूमन छह महीने या एक साल तक चलती हैं, लेकिन जब यह लंबा खिंचने लगा, तो हमें इस बात की फिक्र होने लगी कि इसे अपने काबू में कैसे रखा जाए। हम यह कभी नहीं चाहते थे कि यह बेकाबू हो जाए, क्योंकि इससे जंग छिड़ने का खतरा था और दोनों में कोई भी देश जंग तो नहीं ही चाहता था।
दुर्रानी आगे बताते हैं कि वे सबसे पहले कश्मीर के कुपवाड़ा में रहने वाले अमानतुल्ला गिलगिती से मिले, जिसने कश्मीर के पहले हथियारबंद अलगाववादी समूह जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) की स्थापना में मदद की। इसके साथ ही वे कहते हैं, मुझे आज भी इस बात का मलाल है कि हमने अमानतुल्ला को उतनी गंभीरता से नहीं लिया। उसके ग्रुप ने आंदोलन की शुरुआत की थी... आजादी के उसके तीसरे ऑप्शन ने कीचड़ फैलाना शुरू कर दिया और इस आजादी का मतलब भी क्या था भला?
दुर्रानी यह मानते हैं कि हुर्रियत की स्थापना से 'तहरीक' को एक दिशा मिली। वे कहते हैं, 90 के दशक पर नजर दौड़ाने से मुझे यही लगता है कि कि तहरीक को राजनीतिक दिशा देने के लिए हुर्रियत का गठन एक अच्छा आइडिया था लेकिन उस पर से काबू छोड़ देना... उसे जो मर्जी वह करने देना- ठीक नहीं था।
आईएसआई के इस पूर्व प्रमुख का भले ही यह कहना है कि पाकिस्तान अब हुर्रियत या कश्मीर के दूसरे अलगाववादी समूहों के संपर्क में नहीं रहा, लेकिन ऐसे कई दस्तावेजी सबूत हैं, जो कश्मीर में चरमपंथ की राह पर चल पड़े युवाओं को हथियार और दूसरी मदद में इस्लामाबाद की भूमिका की तस्दीक करते हैं। गिलगिती, सैयद सलाउद्दीन और हाफिज सईद जैसे कश्मीर में चरमपंथ के शुरुआती दिनों में खड़े हुए आतंकवादी आज भी पाकिस्तान में फलफूल रहे हैं।
इस किताब में भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख दुलत के हवाले से कहा गया कि कश्मीर में पाकिस्तान का इंटरेस्ट एक बार बढ़ता दिख रहा है। दुलत कहते हैं, पिछले तीन वर्षों में हमने जो वहां अनिश्चितता की स्थिति पैदा की उससे यह फिर शुरू होता दिखा है। हमने वहां यथास्थिति बना रखी है, उससे पाकिस्तान ने एक बार उधर ध्यान देना शुरू कर दिया है। दुलत कहते हैं, हुर्रियत पाकिस्तानी टीम है... इंडिया की अपनी टीम है, और इन सबके बीच में कश्मीरी पिस रहे हैं।