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हाइफा में भारतीय सैनिकों के पराक्रम का इतिहास, भाले, तलवार से दी मशीनगन को मात

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, सोमवार, 15 जनवरी 2018 (12:18 IST)
इसराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भारत दौरे पर हैं। भारत और इसराइल के संबंधों को मजबूत करने के लिए दिल्ली के तीन मूर्ति स्मारक के ऐतिहासिक शहर 'हाइफा' का नाम जोड़ दिया। अब इस चौक का नाम 'तीन मूर्ति हाइफा' हो गया है। बेंजामिन नेतन्याहू, उनकी पत्नी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीन मूर्ति हाइफा चौक पर शहीदों को श्रद्धांजलि भी दी। आखिर जानिए क्या है हाइफा की लड़ाई की पूरी कहानी? यह भारतीय सैनिकों के पराक्रम की कहानी है।
 
प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के दौरान भारतीय सैनिकों ने पराक्रम का परिचय देते हुए इसराइल के हाइफा शहर को आजाद कराया था। भारतीय सैनिकों की टुकड़ी ने तुर्क साम्राज्य और जर्मनी के सैनिकों से मुकाबला किया था। माना जाता है कि इसराइल की आजादी का रास्ता हाइफा की लड़ाई से ही खुला था, जब भारतीय सैनिकों ने सिर्फ भाले, तलवारों और घोड़ों के सहारे ही जर्मनी-तुर्की की मशीनगन से लैस सेना को धूल चटा दी थी। इस युद्ध में भारत के 44 सैनिक शहीद हुए थे।
 
 
यह बात 1918 की है, जब दुनिया में प्रथम विश्वयुद्ध का दौर अपने अंतिम चरण में चल रहा था। उस समय हाइफा पर जर्मन और तुर्की सेना का कब्जा था और भारतीय सैनिकों को बहाई समुदाय के आध्यात्मिक गुरु अब्दुल बहा को रिहा कराकर हाइफा को आजाद कराने का काम रॉयल ब्रिटिश इंडियन आर्मी ने सौंपा था। भारतीय सैनिकों को हाइफा, नाजेरथ और दमश्कस को जर्मन-तुर्की सेना के कब्जे से आजाद कराना था, जो कि आज इसराइल और सीरिया में स्थित है।
 
 
23 सितंबर 1918 को हाइफा के अंदर जर्मन और तुर्की सैनिक मशीनगन और आधुनिक हथियार लेकर तैयार खड़े थे। उनके सामने हाइफा की लड़ाई में भारतीय सैनिक थे जिनके पास कोई ऑटोमेटिक हथियार नहीं था। ये लोग घोड़ों पर सवार थे और भाले और तलवारें लिए हुए थे। उस दिन दुनिया को एक घुड़सवार सेना के वे पराक्रम देखना थे, जो इतिहास में कभी दोहराए नहीं जा सके। जर्मन और तुर्की सैनिकों के कुछ समझने से पहले ही 15वीं घुड़सवार ब्रिगेड ने दोपहर 2 बजे हाइफा पर धावा बोल दिया।
 
उधर जोधपुर के सैनिक माउंट कार्मेल की ढलानों से हमला कर रहे थे, वहीं मैसूर के सैनिकों ने पर्वत के उत्तर तरफ से हमला किया। युद्ध की शुरुआत में ही भारतीय सेना के एक कमांडर कर्नल ठाकुर दलपतसिंह मारे गए। इसके बाद उनके डिप्टी बहादुर अमनसिंह जोधा आगे आए। मैसूर रेजीमेंट ने 2 मशीनगनों पर कब्जा करके अपनी पोजीशन प्राप्त कर ली और इस तरह हाइफा में घुसने का रास्ता साफ हो गया।
 
हाइफा की लड़ाई में भारतीय सैनिकों ने आधुनिक हथियार और मशीनगन से लैस जर्मन और तुर्की सैनिकों को बुरी तरह हराया था। भारतीय सैनिकों ने हाइफा को अपने कब्जे में लेकर 1350 जर्मन और तुर्की सैनिकों को बंदी बना लिया। इस हाइफा की लड़ाई में 8 भारतीय सैनिकों को वीरगति प्राप्त हुई थी और 34 सैनिक घायल हुए थे, वहीं 60 घोड़े मारे गए और 83 घायल हुए थे। बाद में भारतीय सैनिकों की वीरता की याद में 1922 में यहां पर तीन मूर्ति स्मारक भी बनाया गया। भारतीय सैनिकों के पराक्रम की ये घटना आज भी दुनिया के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है।

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