लखनऊ। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर उपचुनाव के नतीजों ने कहीं न कहीं भारतीय जनता पार्टी को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि इतने लंबे समय से गोरखपुर सीट पर राज्य करने वाली भारतीय जनता पार्टी आखिरकार हारी तो कैसे हारी?
इस हार पर राजनीतिक विश्लेषकों को इसलिए भी आश्चर्य है कि 2014 के चुनावों में स्वयं योगी इस सीट पर 3 लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीते थे। पार्टी सूत्रों की मानें तो इस हार के जिम्मेदार खुद उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री व प्रत्याशी उपेंद्र शुक्ला ही हैं।
सूत्रों के अनुसार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पसंद उपेंद्र शुक्ला कभी थे ही नहीं। और तो और, एक समय ऐसा भी आया था जब चुनाव के दौरान उपेंद्र शुक्ला ने योगी आदित्यनाथ का खुलकर विरोध किया था और उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इस तरह इन दोनों के बीच मनमुटाव शुरू से चला आ रहा है। सूत्र तो बताते हैं कि ब्राह्मणों को खुश करने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने उपेंद्र शुक्ला को प्रत्याशी घोषित किया था। लेकिन पार्टी ब्राह्मणों को एक करने में सफल नहीं हो पाई और कहीं न कहीं जो भी ब्राह्मण वोट निकला उसने अपना वोट समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी को दे डाला और भारतीय जनता पार्टी को कमजोर करने का काम किया।
सूत्रों ने तो यहां तक बताया कि योगी आदित्यनाथ की तरफ से गोरखपुर के लोकसभा उपचुनाव को लेकर धर्मेंद्र सिंह का नाम पार्टी के आलाकमान को भेजा गया था जिसके चलते धर्मेंद्र सिंह ने गोरखपुर में तैयारियां भी शुरू कर दी थी लेकिन हुआ उसके विपरीत।
पार्टी आलाकमान ने ब्राह्मणों के अंदर पार्टी के प्रति जाग रहे गुस्से को देखते हुए मजबूत नेता उपेंद्र शुक्ला को घोषित करते हुए ब्राह्मणों को खुश करने का काम किया था लेकिन ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मणों को खुश करने में असफल साबित हुए उपेंद्र शुक्ला। कहीं न कहीं यह गुस्सा उपेंद्र शुक्ला को लेकर नहीं था, जो भी था उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर ब्राह्मणों के बीच था।
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं। इस बात को लेकर जब वरिष्ठ पत्रकार व दैनिक अमर भारती के समाचार संपादक सीमांत शुक्ला से फोन पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि ब्राह्मण बनाम ठाकुर की लड़ाई आज की नहीं है। दशकों पहले ये लड़ाई शुरू हुई थी, जो आज भी जारी है।
गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजय नाथ हुआ करते थे। गोरखपुर के ब्राह्मणों के बीच पं. सुरतिनारायण त्रिपाठी बहुत प्रतिष्ठित थे। किसी वजह से दिग्विजय नाथ ने सुरतिनारायण त्रिपाठी का अपमान किया था। वहीं से क्षत्रिय बनाम ब्राह्मण का गणित शुरू हो गया। इसके बाद उस वक्त के युवा नेता हरिशंकर तिवारी ने दिग्विजय नाथ के खिलाफ आवाज उठाई। आगे चलकर ठाकुरों का नेतृत्व वीरेंद्र शाही के हाथ आया, लेकिन हरिशंकर तिवारी का ‘हाता’ और अवैद्यनाथ के ‘मठ’ के बीच गोरखपुर में वर्चस्व की लड़ाई चलती रही।
90 के दशक में योगी आदित्यनाथ के हाथ मठ की कमान आई। योगी ने ‘मठ’ की ताकत बढ़ाई। उनकी हिंदू युवा वाहिनी आसपास के कई जिलों में सक्रिय हुई। गोरखपुर में ब्राह्मणों और राजपूतों के बराबर वोट हैं, लेकिन योगी आदित्यनाथ की ताकत लगातार बढ़ी, ब्राह्मण नेतृत्व कमजोर होता गया। इसके साथ ही ‘हाता’ का असर कम होता गया। उस वक्त शिवप्रताप शुक्ला ब्राह्मणों के सर्वमान्य और ताकतवर नेता थे लेकिन योगी की बढ़ती ताकत के साथ ही उनका राजनीतिक पतन होता चला गया।
हालत तो ये हुई कि कुछ वर्षों के लिए शिवप्रताप शुक्ला राजनीतिक पटल से ही ओझल हो गए। इस बीच राज्य से लेकर केंद्र तक योगी आदित्यनाथ का राजनीतिक कद लगातार बढ़ता रहा, जो कहीं न कहीं आज तक अंदरखाने साफतौर से देखा जा सकता है।