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शुरू हो गया हाइड्रोजन ट्रेनों का युग

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राम यादव

जलवायु परिवर्तन और तापमानवर्धन की रोकथाम एक ऐसी अपूर्व चुनौती है जिसका नित नए चिंतन और नई तकनीकों द्वारा उत्तर देना अनिवार्य हो गया है। 
 
रेल की पटरियों पर दुनिया की पहली रेलगाड़ी ठीक 300 वर्ष पूर्व 1722 में चली थी। ब्रिटेन के स्कॉटलैंड प्रदेश में चली वह पहली गाड़ी केवल 1 डिब्बे वाली ट्राम के समान थी और उसे खींच रहे थे घोड़े। भाप के इंजन से चलने वाली पहली रेलगाड़ी भी ब्रिटेन में ही चली थी, 82 वर्ष बाद 1804 में। 85 वर्ष और लगे और तब आई बिजली से चलने वाली पहली गाड़ी- ब्रिटेन में नहीं, जर्मनी में। बनाया था सीमेंस ने। जर्मनी में ही पहला डीज़ल इंजन भी बना 1898 में। बनाया था रूडोल्फ़ डीज़ल ने। 
 
उस ज़माने में जलवायु परिवर्तन और तापमानवर्धक गैसों वाली कोई समस्या नहीं थी। देशों की जनसंख्या भी आज की तुलना में बहुत कम होती थी। यातायात और परिवहन के ये सभी माध्यम अब 'क्लाइमेट किलर' (जलवायु मारक) कहे जाने लगे हैं। अब मांग है ऐसे वाहनों, रेलगाड़ियों, विमानों और पानी के जहाज़ों की, जो तथाकथित 'ग्रीन एनर्जी' (हरित ऊर्जा) से चलते हों। सूर्य में हर क्षण जलकर हीलियम बन रही हाइड्रोजन गैस को अब वह जादुई मंत्र बताया जा रहा है, जो हमारे इस समय के सभी यातायात एवं परिवहन साधनों को जलवायुसम्मत बना देगा।
 
जहां तक रेलगड़ियों को जलवायुसम्मत बनाने का प्रश्न है तो यह काम यूरोप में इस बीच गति पकड़ता दिख रहा है। 2016 में बर्लिन के 'इनोट्रांस' नाम के मेले में फ़्रांसीसी कंपनी अल्स्टॉम ने पहली बार तरल हाइड्रोजन गैस से चलने वाली 'कोराडिया आईलिंट' नाम की अपनी ट्रेन प्रदर्शित की। कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) के उत्सर्जन से मुक्त इस ट्रेन को डीज़ल ट्रेनों का विकल्प कहा जा सकता है। अल्स्टॉम, हाइड्रोजन-आधारित यात्री ट्रेन बनाने वाली दुनिया की पहली रेलवाहन निर्माता कंपनी बन गई है। 2018 से यह ट्रेन जर्मनी में चल रही है।
 
'कोराडिया आईलिंट' दुनिया की पहली यात्री ट्रेन है, जो प्रणोदन के लिए हाइड्रोजन ईंधन सेल द्वारा विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करती है। ऊर्जा की उत्पत्ति से आवाज़ नहीं होती, केवल जलवाष्प बनती है और ठंडा होने पर वह पानी बन जाती है। आईलिंट में ऊर्जा का स्वच्छ रूपांतरण होता है। बैटरी में ऊर्जा-संचय लचीले ढंग से होता है। गति के लिए आवश्यक शक्ति और उपलब्ध ऊर्जा का युक्तिसंगत प्रबंधन स्वचालित ढंग से होता है। इस ट्रेन को विशेष रूप से ऐसे रेलमार्गों के लिए बनाया गया है, जहां बिजली के तार नहीं हैं।
 
2018 और 2020 के बीच उत्तरी जर्मनी में सफल परीक्षण ऑपरेशन के बाद अल्स्टॉम की कोराडिया आईलिंट, 1 सितंबर 2020 से ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में चलना शुरू हुई। 23 जून 2021 से वह पोलैंड में भी चल रही है। ऑस्ट्रियाई संघीय रेलवे उसे नियमित यात्री सेवा में लगाने जा रही है। अल्स्टॉम द्वारा उसका निर्माण जर्मनी के लोअर सैक्सोनी राज्य में स्थित ज़ाल्त्सगिटर में किया जाता है। वहां इस समय 14 नई ट्रेनें बनाई जा रही हैं।
 
जर्मनी में फ्रैंकफ़र्ट के आसपास के 'राइन-माइन क्षेत्रीय परिवहन संघ' के लिए भी 27 हाइड्रोजन ईंधन-सेल वाली ट्रेनों का निर्माण होना है। हर ट्रेन की क़ीमत क़रीब 1 करोड़ 30 लाख यूरो बैठेगी। अल्स्टॉम की ट्रेनों ने पिछले वर्ष पोलैंड के अलावा स्वीडन और फ्रांस में भी अपना प्रीमियर (पदार्पण) मनाया।
 
इस बीच जर्मनी की सीमेंस कंपनी ने भी हाड्रोजन से चलने वाली एक ट्रेन बनाई है। 5 मई को उसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया। फ़िलहाल 2 वैगनों वाली इस ट्रेन को 'मीरेओ प्लस एच' (Mireo Plus H) नाम दिया गया है। 'सीमेंस मोबिलिटी' के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने बताया कि उनकी यह ट्रेन रोज़मर्रा के उपयोग के लिए है और पूरी गति के साथ एकबार में 800 किलोमीटर दूर तक जा सकती है। उसकी अधिकतम गति 160 किलोमीटर प्रतिघंटा होगी।
 
सीमेंस कंपनी का दावा है कि अपने पूरे जीवनचक्र के दौरान यह ट्रेन, किसी डीजल ट्रेन की तुलना में 15,000 टन कार्बन डाई ऑक्साइड बचाएगी। इस ट्रेन में तरल हाइड्रोजन गैस भरने के लिए एक ट्रेलर पर लगा ऐसा मोबाइल हाइड्रोजन टैंक भी बनाया गया है, जो साथ के मोबाइल फिलिंग स्टेशन के द्वारा 15 मिनट में ट्रेन के लिए ज़रूरी सारी हाइड्रोजन भरना संभव बनाता है। ट्रेन एक इलेक्ट्रिक ड्राइव, ईंधन-सेल और एक बैकअप बैटरी से लैस है। वह 2024 से नियमित सेवारत हो जाएगी। आशा है कि सीमेंस को जल्द ही 7 और ट्रेनों का ऑर्डर मिलेगा।
 
वास्तव में बिजली वाले मार्गों पर ट्रेनें सबसे अधिक कुशलता से चलती हैं। बिजली-बैटरी वाला ऐसा हाइब्रिड संचालन भी समान रूप से किफायती है जिसमें ट्रेनें ओवरहेड लाइनों से बिजली पाती हैं। ट्रेन की बैटरी वहां काम आती है, जहां ओवरहेड लाइन नहीं होती। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो हाइड्रोजन ट्रेनें केवल तीसरी पसंद हो सकती हैं। उनकी तकनीक अभी बहुत महंगी है। तरल हाइड्रोजन भी बहुत महंगी पड़ती है। इन ट्रेनों के उपयोग का सीमित यात्री-संख्या वाले ऐसे मार्गों पर करने में ही तुक है, जहां बिजली की ओवरहेड लाइनें नहीं हैं या उन्हें लगाना उपयुक्त नहीं है। लगभग 150 किलोमीटर तक की सीमित दूरी के कारण बैटरी से चलने वाली ट्रेनें केवल आंशिक समाधान हो सकती हैं बाकी रास्तों पर हाइड्रोजन ट्रेनों की सार्थक उपयोगिता हो सकती है।
 
सीमेंस कंपनी अब कथित रूप से बेहतर तकनीक के साथ फ्रांसीसियों की बराबरी करना चाहती है। मुख्य आवश्यकताएं हैं लंबी दूरी तक पहुंच, तेजी से ईंधन भरने की संभावना और ट्रेन के जीवनचक्र पर न्यूनतम संभव लागत। किसी सामान्य ट्रेन को लेकर उसे डीजल के बजाय ईंधन-सेल, बैटरी और इलेक्ट्रिक मोटर से लैस करने से अच्छा है, एक पूरी तरह से नई ट्रेन बनाना। उसका आंतरिक लेआउट एल्युमीनियम का हो, हाइड्रोजन टैंक स्टील के बदले कार्बन फाइबर से बने हों और उन्हें हल्का बनाने का हरसंभव प्रयास किया गया हो तो ट्रेन की ईंधन-सेल कुशलता अपने आप बढ़ जाएगी। जर्मन रेलवे नहीं चाहती कि 2040 के बाद उसके पास ऐसी कोई ट्रेन हो, जो डीज़ल वाले दहन इंजन से चलती हो।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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