हवा में जहर! बिना किसी खास वजह के बदनाम है बेचारी पराली

गिरीश पांडेय
stubble problem: एक गाना है। 'मुन्नी बदनाम हुई...'। मुन्नी क्यों बदनाम हुई, यह तो फिल्म बनाने और गाना गाने वाले ही जानें। पर बेचारी पराली बिना किसी खास वजह के बदनाम हुई जा रही है। पिछले कई वर्षों से नवंबर-दिसंबर में बदनामी का यह सिलसिला शुरू हो जाता है। आरोप है कि दिल्ली से लगे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा पराली (धान काटने के बाद उसका बचा हिस्सा) जलाए जाने से दिल्ली की हवा जहरीली हो जाती है। 
 
वैसे हवा दिल्ली की ही नहीं पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) की खराब हो जाती है। सिर्फ एनसीआर (नेशनल कैपिटल रीजन) क्यों? नासा ने जो तस्वीर ली है, उसके मुताबिक पाकिस्तान के पंजाब से लेकर पूरे इंडो गंगेटिक बेल्ट के करीब सात लाख वर्ग किलोमीटर तक आसमान पर धुंध की चादर सी पड़ी दिख रही है। पर दिल्ली देश की राजधानी है तो लाजिम है, इसकी चर्चा भी  सर्वाधिक होगी।
 
प्रदूषण का जीवन और स्वास्थ्य पर असर : यह सच है कि वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली की हवा दमघोंटू हो चुकी है। वायु प्रदूषण का असर लोगों के जीवन की प्रत्याशा और स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली का प्रदूषण जब चरण पर होता है तो वह स्वास्थ्य को उतना ही नुकसान पहुंचाता है, जितना एक दिन में 30 सिगरेट।
 
रिपोर्ट तो यह भी है कि वायु प्रदूषण से दिल्ली वालों की उम्र करीब 12 साल घट गई है। अलग-अलग तरह के पल्मोनरी रोग बढ़े हैं। सांस के रोगियों और जिनको मधुमेह है, बच्चे व बूढ़े जिनकी प्रतिरोधक (इम्यूनिटी) क्षमता कमजोर होती है, उनके लिए प्रदूषण का यह स्तर जानलेवा भी हो सकता है। हो भी रहा है। पिछले साल की एक रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण भारत में 1.16 लाख बच्चों की मौत हुई। इससे होने वाली बीमारियों पर होने वाला खर्च अलग से। अगर हम गौर से देखें तो वहां की सरकार से बिजली, पानी आदि के मद में हम जो ले रहे हैं उससे अधिक वायु प्रदूषण के नाते गवा रहे हैं।
 
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी हालात की गंभीरता का सबूत : हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि मामला देश की शीर्ष अदालत तक पहुंच गया और उसकी बेहद तल्ख टिप्पणी किसी भी संवेदनशील सरकार के लिए शर्म की बात हो सकती है। मालूम हो की सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा, 'प्रदूषण को देखते हुए हमारा सब्र खत्म हो रहा है। अगर हमने एक्शन लिया तो हमारा बुलडोजर रुकने वाला नहीं। हम लोगों को प्रदूषण के नाते मरने के लिए नहीं छोड़ सकते'। यह टिप्पणी सामयिक और जरूरी भी थी। क्योंकि हर अक्टूबर के अंतिम से नवंबर तक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली के दम घुटने की खबर सुर्खियों में रहती है। 
वर्षों से जारी इस संकट पर सरकारें सिर्फ एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ती रहीं : इस मामले से जुड़ी सरकारों के प्रयास का उतना ही नतीजा निकला जितना किसी बंदर के इस डाली से उस डाली तक उछलकूद का। जवाबदेही कोई नहीं लेना चाहता। सब एक-दूसरे को टोपी पहनाने के चक्कर में रहते हैं।
 
समस्या का हल आसान है, कोई रॉकेट साइंस नहीं : अब बात पराली की, जो इस प्रदूषण की वजह से सर्वाधिक बदनाम होती है। यह सच है कि किसान समय से गेहूं बोने के लिए धान की पराली जलाते हैं। उनके पास इससे आसान और सस्ता कोई विकल्प भी नहीं है। पर हर चीज की तरह धान की बोआई का भी एक समय होता है। स्वाभाविक रूप से कटाई का भी समय होता है। यह मुश्किल से दो से तीन हफ्ते का। लेट हुआ तो चार हफ्ते भी हो सकते हैं। 
 
तो क्या सिर्फ अकेले पराली ही है गुनाहगार : यहीं यह सवाल उठता है कि क्या पराली जलाने के इस एक महीने की अवधि के अलावा दिल्ली में वायु प्रदूषण मानक के अनुरूप होता है। जवाब है, नहीं। साल 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार मात्र 68 दिन ही दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर सामान्य या संतोषजनक रहा। यह रिपोर्ट बताती है कि दोष सिर्फ पराली का नहीं है। एनसीआर के हजारों भट्ठे, वाहनों की बढ़ती संख्या में भी इसकी वजह खोजनी होगी। प्यास लगने पर कुंआ खोदने या एक-दूसरे के सर ठीकरा फोड़ना इस समस्या का समाधान नहीं है। किसान तो बेचारा है। पराली तो और भी बेचारी है।
 
फसलों की कटाई के लिए पूरी सख्ती से ऐसे कंबाइन अनिवार्य कर दीजिए जो किसी भी फसल को जड़ से काटे। कटाई का किराया तय कर दें तो और बेहतर। यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है। शर्त है कि जिसे यह करना है उसमें यह इच्छाशक्ति होनी चाहिए। साथ ही इससे होने वाली क्षति के प्रति संवेदना भी। जवाबदेही तो जनता की भी बनती है, क्योंकि यह मामला सीधे उसकी जिंदगी और सेहत से जुड़ता है। सुप्रीम कोर्ट की अपनी सीमा है। उसके फैसले पर अमल सरकारों को ही करना होता है और इसके लिए जनता ही सरकारों को मजबूर कर सकती है।
 

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