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अटल बिहारी वाजपेयी : कवि से लेकर प्रधानमंत्री बनने का सफर

हमें फॉलो करें अटल बिहारी वाजपेयी : कवि से लेकर प्रधानमंत्री बनने का सफर
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का 16 अगस्त को निधन हो गया। 93 वर्ष की उम्र में उन्होंने एम्स में अपनी अंतिम सांस ली। 

धूल और धुएं की बस्ती में पले एक साधारण अध्यापक के पुत्र अटल बिहारी वाजपेयी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बने। उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को हुआ। अपनी प्रतिभा, नेतृत्व क्षमता और लोकप्रियता के कारण वे चार दशकों से भी अधिक समय से भारतीय संसद के सांसद रहे।
 
उनमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की संकल्पशक्ति, भगवान श्रीकृष्ण की राजनीतिक कुशलता और आचार्य चाणक्य की निश्चयात्मिका बुद्धि थी। वे अपने जीवन का क्षण-क्षण और शरीर का कण-कण राष्ट्रसेवा के यज्ञ में अर्पित करते रहे। उनका उद्‍घोष रहा है- हम जिएंगे तो देश के लिए, मरेंगे तो देश के‍ लिए। इस पावन धरती का कंकर-कंकर शंकर है, बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
 
पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी ने पोखरण में अणु परीक्षण कर संसार को भारत की शक्ति का एहसास करा दिया था। कारगिल युद्ध में पाकिस्तान के छक्के छुड़ाने वाले तथा उसे पराजित करने वाले भारतीय सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए अटलजी अग्रिम चौकी तक गए थे। उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था- 'वीर जवानों! हमें आपकी वीरता पर गर्व है। आप भारत माता के सच्चे सपूत हैं। पूरा देश आपके साथ है। हर भारतीय आपका आभारी है।' 
 
अटलजी के भाषणों का ऐसा जादू रहता था कि लोग उन्हें सुनते ही रहना चाहते थे। उनके व्याख्यानों की प्रशंसा संसद में उनके विरोधी भी करते थे। उनके अकाट्‍य तर्कों का सभी लोहा मानते थे। उनकी वाणी सदैव विवेक और संयम का ध्यान रखती थी। बारीक से बारीक बात वे हंसी की फुलझड़ियों के बीच कह देते थे। उनकी कविता उनके भाषणों में छन-छनकर आती रहती थी।
 
अटलजी का कवि रूप भी शिखर को स्पर्श करता रहता था। सन् 1939 से लेकर अद्यावधि तक उनकी रचनाएं अपनी ताजगी के साथ टाटक सामग्री परोसती आ रही हैं। उनका कवि युगानुकूल काव्य-रचना करता रहा। वे एक साथ छंदकार, गीतकार, छंदमुक्त रचनाकार तथा व्यंग्यकार थे। यद्यपि उनकी कविताओं का प्रधान स्वर राष्ट्रप्रेम का है तथापि उन्होंने सामाजिक तथा वैचारिक विषयों पर भी रचनाएं कीं। 
 
जन्म बाल्यकाल और शिक्षा : उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के सुप्रसिद्ध प्राचीन तीर्थस्थान बटेश्वर में एक वैदिक-सनातन धर्मावलंबी कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार रहता था। श्रीमद्‍भगवतगीता और रामायण इस परिवार की मणियां थीं। अटलजी के पितामह पं. श्यामलालजी बटेश्वर में ही जीवनपर्यंत रहे किंतु अपने पुत्र कृष्ण बिहारी को ग्वालियर में बसने की सलाह दी। ग्वालियर में अटलजी के पिता पं. कृष्ण बिहारी जी अध्यापक बने। अध्यापन के साथ-साथ वे काव्य रचना भी करते थे। उनकी कविताओं में राष्ट्रप्रेम के स्वर भरे रहते थे। 'सोते हुए सिंह के मुख में हिरण कहीं घुस जाते' प्रसिद्ध पंक्ति उन्हीं की है। वे उन दिनों ग्वालियर के प्रख्यात कवि थे। अपने अध्यापक जीवन में उन्नति करते-करते वे प्रिंसिपल और विद्यालय-निरीक्षक के सम्मानित स्‍तर पर पहुंच गए थे। ग्वालियर राज दरबार में भी उनका मान-सम्मान था अटलजी की माताजी का नाम श्रीमती कृष्णा देवी था।
 
ग्वालियर में शिंदे की छावनी में 25 सितंबर सन् 1924 को ब्रह्ममुहूर्त में अटलजी का जन्म हुआ था। पं. कृष्ण बिहारी के चार पुत्र अवध बिहारी, सदा बिहारी, प्रेम बिहारी, अटल बिहारी तथा तीन पुत्रियां विमला, कमला, उर्मिला हुईं। परिवार भरापूरा था।
 
परिवार का विशुद्ध भारतीय वातावरण अटलजी की रग-रग में बचपन से ही रचने-बसने लगा था। वे आर्यकुमार सभा के सक्रिय कार्यकर्ता थे। परिवार 'संघ' के प्रति विशेष निष्ठावान था। परिणामत: अटलजी का झुकाव भी उसी ओर हुआ और वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बन गए थे। वंशानुक्रम और वातावरण दोनों ने अटलजी को बाल्यावस्था से ही प्रखर राष्ट्रभक्त बना दिया था। अध्ययन के ‍प्रति उनमें बचपन से ही प्रगाढ़ रुचि थी। 
 
अटलजी की बीए तक की शिक्षा ‍ग्वालियर में ही हुई थी। वहां के विक्टोरिया कॉलेज (आज लक्ष्मीबाई कॉलेज) से उन्होंने उच्च श्रेणी में बीए उत्तीर्ण किया। वे विक्टोरिया कॉलेज के छात्र संघ के मंत्री और उपाध्यक्ष भी रहे। वे वाद विवाद प्रतियोगिताओं में सदैव भाग लेते थे। वे ग्वालियर से उत्तरप्रदेश की व्यावसायिक नगरी कानपुर के प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र डीएवी कॉलेज आए थे। उन्‍होंने राजनीतिशास्त्र से प्रथम श्रेणी में एमए की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। एलएलबी की पढ़ाई को बीच में ही विराम देकर वे संघ के काम में लग गए थे।
 
पिता-पुत्र ने की कानून की पढ़ाई साथ-साथ : अटलजी और उनके पिता दोनों ने कानून की पढ़ाई में एक साथ प्रवेश लिया था। हुआ यह कि जब अटलजी कानून पढ़ने डीएवी कॉलेज, कानपुर आना चाहते थे, तो उनके पिताजी ने कहा था, मैं भी तुम्हारे साथ कानून की पढ़ाई शुरू करूंगा। वे तब राजकीय सेवा से निवृत्त हो चुके थे। अस्तु, पिता-पुत्र दोनों साथ-साथ कानपुर आ गए थे। उन दिनों कॉलेज के प्राचार्य श्रीयुत कालकाप्रसाद भटनागर थे। जब ये दोनों लोग उनके पास प्रवेश हेतु पहुंचे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। दोनों लोगों का प्रवेश एक ही सेक्शन में हो गया था। जिस दिन अटलजी कक्षा में न आएं, प्राध्यापक महोदय उनके पिताजी से पूछें- आपके पुत्र कहां हैं? जिस दिन पिताजी कक्षा में न जाएं, उस दिन अटलजी से वही प्रश्न 'आपके पिताजी कहां हैं?' फिर वही ठहाके। छात्रावास में ये पिता-पुत्र दोनों साथ ही एक ही कमरे में छात्र रूप में रहते थे। झुंड के झुंड लड़के उन्हें देखने आया करते थे।
 
अटलजी की प्रथम जेल यात्रा : बचपन से ही अटलजी की सार्वजनिक कार्यों में विशेष रुचि थी। उन दिनों ग्वालियर रियासत दोहरी गुलामी में थी। राजतंत्र के प्रति जनमानस में आक्रोश था। सत्ता के विरुद्ध आंदोलन चलते रहते थे। सन् 1942 में जब गांधीजी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा दिया तो ग्वालियर भी अगस्त क्रांति की लपटों में आ गया। छात्र वर्ग आंदोलन की अगुवाई कर रहा था। अटलजी तो सबके आगे ही रहते थे। जब आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया तो पकड़-धकड़ होने लगी। 
 
कोतवाल, जो उनके पिताश्री कृष्ण बिहारी के परिचित थे, ने पिताजी को बताया कि आपके चिरंजीवी कारागार जाने की तैयारी कर रहे हैं। पिताजी को अटलजी के कारागार की तो चिंता नहीं थी, किंतु अपनी नौकरी जाने की चिंता जरूर थी। इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को अपने पैतृक गांव बटेश्वर भेज दिया। वहां भी क्रांति की आग धधक रही थी। अटलजी के बड़े भाई प्रेमबिहारी उन पर नजर रखने के लिए साथ भेजे गए थे। 
 
अटलजी पुलिस की लपेट में आ गए थे। उस समय वे नाबालिग थे। इसलिए उन्हें आगरा जेल की बच्चा-बैरक में रखा गया था। चौबीस दिनों की अपनी इस प्रथम जेलयात्रा के संस्मरण वे हंस-हंसकर सुनाते थे।
 
राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य और दैनिक स्वदेश का संपादन : पं. दीनदयाल उपाध्यान सन् 1946 में अटलजी को लखनऊ ले आए थे। लखनऊ में वे राष्ट्रधर्म के प्रथम संपादक नियुक्त किए गए थे। उनके परिश्रम और कुशल संपादन से 'राष्ट्रधर्म' ने कुछ ही समय में अपना राष्ट्रीय स्वरूप बना लिया था। लखनऊ के साहित्यकारों में अपनी पहचान बनाने में उन्हें अधिक समय नहीं लगा।
 
ओटीसी के शिविर में कविता पाठ : जिन दिनों अटलजी इंटरमीडिएट में पढ़ते थे, उसी दि‍नों उन्‍होंने अपनी प्रसिद्ध कविता हिंदू, तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय' लिखी थी। सन् 1942 में लखनऊ के कालीचरण कॉलेज में ओटीसी का कैंप लगाया गया था। परमपूज्य गुरुजी के समक्ष जब उन्होंने अपनी यह कविता पढ़ी तो श्रोता बड़े प्रभावित हुए थे। जिस समय वे हवा में हाथ लहराते हुए, मुद्रा विशेष में, तेवर के साथ निम्नलिखित पंक्तियां पढ़ रहे थे, तो सभी श्रोता रोमांचित हो उठे थे : 
 
होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं जग को गुलाम।
मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
 
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किए?
कब दुनिया को हिंदू करने घर-घर में नरसंहार किए? 
कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी तोड़ीं मस्जिद?
भू-भाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय। 
हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय।
 
दैनिक स्वदेश और वीर अर्जुन का संपादन : हिन्‍दी पत्रकारिता के क्षेत्र में राष्ट्रीय ख्‍याति प्राप्त करने वाले अटलजी ने सन् 1950 ई. में 'दैनिक स्वदेश' के संपादक का कार्यभार पुन: संभाला था। जिस दिन इसका उद्‍घाटन कार्यक्रम संपन्न हुआ वे लखनऊ शहर के लिए एक ऐतिहासिक दिन था। हिन्‍दी पत्रकारिता के दधीचि संपादकाचार्य पं. अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी के साथ-साथ प्रख्यात विद्वान डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी भी वहां उपस्थित थे। लखनऊ के ही नहीं, प्रदेश के अनेक विद्वान, कवि, साहित्यकार, राष्ट्रभाषा-प्रेमी और राष्ट्रभक्त वहां बड़े उत्साह से आए थे। पत्र कुछ दिन तक जोरशोर से निकलता रहा, ले‍किन आर्थिक संकट धीरे-धीरे पत्र को घेरने लगे थे। सरकारी विज्ञापन मिलते ही नहीं थे। बड़े दुखी मन से अटलजी को इसे बंद करना पड़ा। अपने अंतिम संपादकीय 'अलविदा' में उन्होंने मन की पीड़ा को व्यक्त किया था।
 
लखनऊ से अटलजी दिल्ली चले आए थे। वहां उन्होंने 'वीर अर्जुन' के संपादक का दायित्व संभाला था। अनुभव की परिपक्वता, विचारों की गंभीरता और भाषा की स्पष्टता ने 'वीर अर्जुन' की ख्‍याति बढ़ा दी थी। इस पत्र के संपादकीय की दिल्ली के बुद्धिजीवियों और राष्ट्रीय राजनेताओं में खूब चर्चा होती थी। अटलजी की कलम में कुछ ऐसा जादू रहा कि पत्र की प्रति हाथ में आते ही लोग पहले संपादकीय पढ़ते थे, बाद में समाचार आदि। वे जो कुछ भी लिखते थे, वह औरों से भिन्न और चिंतनपरक होता था। उन्होंने कलम की साधना की थी, ग्रंथों का अनुशीलन किया था। 
 
जनसंघ के संस्थापक सदस्य रहे अटलजी : जनसंघ के संस्थापक सदस्य होने के नाते अटलजी के कंधों पर अब गुरुतर भार आ गया। भारतीय मनीषा के आचार्य, राष्ट्रीय मान-सम्मान के संरक्षक पूज्य डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को एक ऐसे कर्मठ, निष्ठावान और भारतीय संस्कृति के ज्ञाता को अपने निजी सचिव के रूप में रखने की आवश्यकता प्रतीत हुई। उन्होंने उन सभी गुणों और संभावनाओं को तरुण अटल में भांप लिया और अपने निजी सचिव के रूप में रख लिया। अटलजी महान नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ छाया की तरह लगे रहे। उनके व्याख्यानों के आयोजन का प्रबंध अटलजी ही करते थे।
 
डॉ. मुखर्जी की सभाओं में जनता का मेला उमड़ता था। अटलजी भी इन सभाओं को संबोधित करते थे। उनके व्याख्यानों की शैली डॉ. मुखर्जी को बहुत पसंद थी। अपना हाथ हवा में लहराते हुए, विनोदपूर्ण शैली में जब वे चुटीले व्यंग्य करते थे, तो तालियों की गड़गड़ाहट से सभास्थल गूंज उठता था। 
 
राजनीति में प्रवेश : कवि और पत्रकार अटलजी सक्रिय राजनीति में आ गए थे। सन् 1955 में श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित ने लोकसभा की सदस्यता से त्याग पत्र दे दिया था। वे लखनऊ से सांसद थीं। चुनाव की तिथि घोषित हुई। अटलजी जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में कूद पड़े, किंतु साधनहीनता के कारण वे विजयी न हो सके। इससे उनके उत्साह में कमी नहीं आई, क्योंकि उनके चुनाव भाषणों में श्रोताओं, विशेषकर युवकों की भीड़ अधिक रहती थी।
 
सन् 1957 में द्वितीय आम चुनाव हुए। अटलजी बलरामपुर से संसद के लिए जनसंघ के प्रत्याशी थे। इस चुनाव में हिंदू मतदाताओं के साथ मुसलमान मतदाताओं ने भी उन्हें अपना मत दिया। उनकी सभाओं की भीड़ देखकर विरोधी दलों के छक्के छूटने लगे। ‍प्रतिद्वंद्वी दलों का एक न एक राष्ट्रीय नेता अटलजी को पराजित करने के लिए वहां चुनाव सभा करता रहा, किंतु विजयश्री ने अटलजी का ही वरण किया। अपनी विजय पर उन्होंने अपार जनसमूह की सभा में कहा था- यह विजय मेरी नहीं, यह बलरामपु‍र क्षेत्र के समस्त नागरिकों की है। आपने मुझे प्यार-दुलार दिया। मैं वचन देता हूं कि एक सांसद के रूप में इस क्षेत्र की सेवा एक राष्ट्रभक्त सेवक के रूप में करूंगा। ऐसा ही किया भी उन्होंने।
 
संसद में प्रथम भाषण : धोती, कुर्ता और सदरी पहने, भरे-भरे गोल चेहरे वाले गौरवर्णी अटलजी संसद में अपना प्रथम भाषण देने जब उठते थे तो उस ठवनि से युवा मृगराज भी लजा जाता था। सभी दृष्टियां उन पर टिक जाती थीं। लोग हिन्‍दी में उन्हें नहीं सुनना चाहते थे किंतु वे क्यों मानते। उन्होंने तो राष्ट्रभाषा की सेवा का व्रत ही ले रखा था। उनका संबोधन हिन्दी में सुनकर अनेक सांसद उठकर बाहर चले गए, पर अटलजी अबाध रूप से बोलते रहे। ये दिन उनके धैर्य और संयम के थे। उन्होंने हिन्दी के अलावा अंग्रेजी में न बोलने का दृढ़ संकल्प ले लिया था। एक दिन ऐसा आया कि संसद सदस्यों ने उनकी भाषणशैली और तथ्य प्रस्तुति कला की प्रशंसा करना शुरू कर दिया और उसके बाद जब तक अटलजी संसद में रहे, उनके भाषण सुनने के लिए सांसद दौड़-दौड़कर संसद कक्ष में पहुंच जाते। वे एक सर्वमान्य सर्वश्रेष्ठ सांसद रहे, जिनके भाषण के समय न कोई टोका-टाकी होती और न ही कोई शोरशराबा। उस समय पत्रकार दीर्घा भी खचाखच भरी रहती थी। 
 
संसद में अटलजी : 1957 से 1962 दूसरी लोकसभा (बलरामपुर), 1962 से 1967 राज्यसभा (उत्तरप्रदेश), 1967 से 1971 चौथी लोकसभा (बलरामपुर), 1972 से 1977 पांचवीं लोकसभा (ग्वालियर), 1977 से 1979 छठी लोकसभा (नई दिल्ली), 1979 से 1984 सातवीं लोकसभा (नई दिल्ली), 1986 से 1991 राज्यसभा (मध्यप्रदेश), 1991 से लेकर वर्ष 2004 तक के लोकसभा चुनाव लखनऊ से लड़ते और जीतते रहे और इसके बाद उन्होंने स्वास्थ्‍य कारणों से सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया था।
 
भारतीय जनता पार्टी के प्रथम राष्ट्रीय अध्‍यक्ष : 6 अप्रैल 1980 का दिन अटलजी के जीवन में विशेष महत्वपूर्ण था। इसी दिन बंबई में भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ और अटलजी इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए थे। इस महाधिवेशन में उनका जो भव्य स्वागत किया गया, वह ऐतिहासिक था। शोभायात्रा में देश के कोने-कोने से आए पच्चीस हजार से अधिक लोगों ने अपने जननायक को अभूतपूर्व सम्मान प्रदान किया था।
 
अभिनंदन और सम्मान : 25 जनवरी, 1992 को उन्हें पद्‍म विभूषण से अलंकृत किया गया था। 28 सितंबर, 1992 को उन्होंने उत्तरप्रदेश हिन्‍दी संस्थान ने 'हिन्‍दी गौरव' के सम्मान से सम्मानित किया  था। 20 अप्रैल 1993 को उन्हें कानपुर विश्वविद्यालय ने मानद डी.लिट्‍ की उपाधि प्रदान की थी। 1 अगस्त 1994 को वाजपेयी को 'लोकमान्य तिलक सम्मान' पारितोषिक प्रदान किया गया, जो उनके सेवाभावी, स्वार्थत्यागी तथा समर्पणशील सार्वजनिक जीवन के लिए था। 17 अगस्त, 1994 को संसद ने उन्हें सर्वसम्मति से 'सर्वश्रेष्ठ सांसद' का सम्मान दिया था। 
 
प्रकाशित रचनाएं : 1. मृत्यु या हत्या 2. अमर बलिदान 3. कैदी कविराय की कुंडलियां 4. न्यू डाइमेंसन ऑफ फॉरेन पॉलिसीज 5. लोकसभा में अटलजी 6. अमर आग है 7. मेरी इक्यावन कविताएं 8. कुछ लेख, कुछ भाषण 9. राजनीति की रपटीली राहें 10. बिन्दु-बिन्दु विचार 11. सेक्युलरवाद 12. मेरी संसदीय यात्रा 13. सुवासित पुष्प 14. संकल्प काल 15. विचार बिंदु 16. शक्ति से शांति 17. न दैन्यं न पलायम् 18. अटलजी की अमेरिका यात्रा 19. नई चुनौती : नया अवसर।
 
अटलजी के लेख और कविताएं राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य, नई कमल ज्योति, धर्मयुग, कादम्बिनी, नवनीत आदि में प्रकाशित होते रहे।
 
भारत के प्रधानमंत्री बने : अटलजी 11वीं लोकसभा में लखनऊ से सांसद के रूप में विजयी हुए थे और भारतीय लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बने थे। राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें 16 मई, 1996 को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई थी, किंतु उन्होंने विपरीत परिस्थितियों के कारण 28 मई, 1996 को स्वयं त्याग पत्र दे दिया था। 
 
दोबारा प्रधानमंत्री बने : सन् 1998 के चुनावों में भी भारतीय जनता पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। चुनावों के पूर्व उसने देश की अन्य कई पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़े थे। भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को राष्ट्रपति महोदय ने सरकार बनाने के लिए उपयुक्त पाया और अटलजी को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया था। अटलजी ने 19 मार्च 1998 को दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी।
 
तीसरी बार प्रधानमंत्री बने : 13 अक्टूबर 1999 को अटलजी ने तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी और इस सरकार ने अपना पांच वर्षों का कार्यकाल पूरा किया था।

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