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कृषि कानून वापसी के 5 फैक्टर, प्रधानमंत्री मोदी के मास्टर स्ट्रोक की इनसाइड स्टोरी

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संदीपसिंह सिसोदिया

प्रधानमंत्री मोदी ने शुक्रवार सुबह राष्ट्र के नाम 18 मिनट के संबोधन में विवादों में रहे कृषि कानूनों वापस लेने का ऐलान करते हुए कहा कि सरकार ये कानून किसानों के हित में नेक नीयत से लाई थी, लेकिन हम कुछ किसानों को समझाने में नाकाम रहे। उन्होंने आगे कहा कि साथियों, मैं देशवासियों से क्षमा मांगते हुए, सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गई होगी जिसके कारण मैं कुछ किसानों को समझा नहीं पाया। मैं आंदोलनकारी किसानों से घर लौटने का आग्रह करता हूं और तीनों कानून वापस लेता हूं। इस महीने के अंत में संसद सत्र शुरू होने जा रहा है उसमें कानूनों को वापस लिया जाएगा।
 
राजनीतिक मामलों के जानकार कहते हैं कि यह फैसला अब तक अपने निर्णयों पर अडिग रहने भाजपा शीर्ष नेतृत्व के लिए भले ही मुश्किल भरा रहा हो, लेकिन आने वाले समय में यह गेम चेंजर साबित हो सकता है। दरअसल किसानों के लगातार डटे रहने और नित नए विवादों के चलते भाजपा खुद ही पशोपेश में थी।  
 
हालांकि मोदी सरकार के उच्च पदस्थ सूत्र बताते हैं कि इन कानूनों में संशोधन से लेकर वापसी की चर्चा अभी से नहीं बल्कि पिछले कई महीनों से जारी थी। हाल ही में हुई कुछ घटनाओं से इस मुद्दे पर सरकार लगातार ब्रेनस्टॉर्मिंग कर रही थी। कृषि कानूनों के मसले पर 5 ऐसे बड़े फैक्टर रहे हैं, जिन्होंने इस कानून वापसी का रास्ता दिखाया है। 
 
सबसे पहला फैक्टर है सुप्रीम कोर्ट द्वारा 12 जनवरी 2021 को कृषि कानूनों को लागू करने पर रोक लगाना, कोर्ट ने मामले के समाधान के लिए एक 3 सदस्यीय कमेटी का भी गठन किया है। इस मामले पर सभी पक्षों से बातचीत करने के बाद कमेटी ने इसी साल मार्च में अपनी रिपोर्ट कोर्ट को सौंप दी थी जिसे अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।
 
सुप्रीम कोर्ट में अभी भी मामला विचाराधीन है। भाजपा और संघ में कई लोगों का मानना था कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने किसानों के पक्ष में फैसला दिया तो केंद्र सरकार की परेशानी बढ़ना तय है। वैसे भी कृषि कानूनों के लागू होने पर रोक के बाद मोदी सरकार के पास इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ बचा नहीं था। 
 
दो और महत्वपूर्ण फैक्टर हैं- किसानों द्वारा लगातार प्रदर्शन और इस मुद्दे पर होने वाली हिंसा :  एक साल से भी अधिक समय से किसान इन कानूनों के विरोध में लामबंद थे। 11 दौर की बातचीत के बावजूद भी कोई हल न निकलने से सरकार भी हैरान थी। इतने लंबे आंदोलन की उम्मीद सरकार ने कभी नहीं की थी। कोरोना से लेकर, गर्मी-ठंड का भी आंदोलन पर कोई असर नहीं हुआ। इतना लंबा स्टैंडऑफ इसके पहले देश ने शायद ही कभी देखा हो।  
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26 जनवरी 2021 को गणतंत्र दिवस पर किसानों की ट्रैक्टर परेड के दौरान पुलिस के साथ झड़प के बाद किसानों ने लाल किले पर निशान साहिब फहरा दिया। इस हिंसा के बाद लगने लगा था कि किसान आंदोलन का पटाक्षेप होने वाला है, लेकिन 28 जनवरी को गाजीपुर बार्डर पर राकेश टिकैत के आंसू छलक पड़े और देखते-देखते पूरा मामला पलट गया। इसने आग में घी का काम किया और घर को निकल पड़े हजारों किसान फिर से रातों-रात गाजीपुर बॉर्डर पहुंच गए। 
 
28 अगस्त 2021 को करनाल में प्रदर्शनकारी किसानों पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया। कई घायल हो गए। करनाल एसडीएम आयुष सिन्हा का वीडियो वायरल हुआ। सरकार ने मामले की जांच के आदेश दिए। इसके बाद 3 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी में किसानों पर गाड़ी चढ़ाने और उसके बाद हुई हिंसा में 8 लोगों की मौत के बाद से ही केंद्र सरकार बैकफुट पर आ गई। पूरे प्रकरण में केंद्रीय मंत्री के बेटे के आरोपी होने से भाजपा के प्रति नकारात्मक संदेश आम लोगों में गया। 
 
संयुक्त किसान मोर्चा ने 500 किसानों को शीतकालीन सत्र में रोजाना शांतिपूर्ण ट्रैक्टर मार्च करने का फैसला किया था। 26 नवंबर को किसान आंदोलन के एक साल पूरे होने पर भी बड़े प्रदर्शन की तैयारी थी। किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का दावा है कि इस आंदोलन में करीब 700 किसानों की मौत हो चुकी है। 
 
उल्लेखनीय है कि एनडीए के कई नेता किसानों के बारे में विवादित बयान दे चुके हैं। हरियाणा के सीएम आंदोलन के खालिस्तानी कनेक्शन  पर बोले थे तो भाजपा नेता मीनाक्षी लेखी ने किसान प्रदर्शनकारियों को मवाली तक कह दिया था। इसके बाद से ही पंजाब में भी बीजेपी नेताओं को भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा था, कुछ जगहों पर तो बीजेपी नेताओं से मारपीट की भी खबरें आईं। 
 
इसके अलावा किसान आंदोलन के बहाने खालिस्तान का नाम लिया जाना भी आने वाले समय में मुसीबत का इशारा कर रहा था। ड्रग्स और अवैध हथियारों की समस्या से जूझते हुए पंजाब जैसे सीमावर्ती राज्य में अशांति कोई भी केंद्र सरकार नहीं चाहेगी। 
 
5 राज्यों में होने वाले विस चुनाव एक बड़ा फैक्टर है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में भाजपा की सरकार है, जबकि मणिपुर में भाजपा की गठबंधन सरकार है। एकमात्र पंजाब ही ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस की सरकार है। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के लिए इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे काफी महत्त्वपूर्ण हैं। केंद्र सरकार ने भले ही मजबूरी में ही यह फैसला लिया, मगर यह उसका चुनावी राज्यों में मास्टरस्ट्रोक साबित हो सकता है। 
 
प्रधानमंत्री मोदी के तीन कृषि कानून वापस लेने की घोषणा के साथ ही उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव का सियासी पारा शिखर पर पहुंच जाएगा। विपक्ष किसानों के कृषि आंदोलन रद्द करने को समर्थन देते हुए जो सियासी रोटी सेंक रहा था, अब तीन कृषि कानून वापसी की घोषणा के बाद धड़ाम से गिर गया है।
 
उत्तर प्रदेश की बड़ी बेल्ट गन्ना और धान किसानों की है। जाटलैंड कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर और बागपत सहित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 6 मंडल मेरठ, सहारनपुर, बरेली, मुरादाबाद, अलीगढ़ और आगरा की बात करें तो यहां के 26 जिलों में जाटों की बहुलता है। यहां के 26 जिलों से जुड़े जाट यहां की राजनीति पर निर्णायक प्रभाव डालते है। यूपी के विधानसभा चुनाव में कृषि कानून वापसी के चलते भाजपा राजनीतिक सियासत के समीकरण बदल सकती है। 
 
इसके अलावा उत्तर प्रदेश से सटे उत्तराखंड के इलाकों के किसान भी कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं। हिमाचल में उपचुनावों में मिली हाल के बाद चुनावी साल में पहाड़ी राज्य में बीजेपी किसान आंदोलन की वजह से कोई जोखिम नहीं लेना चाहेगी।  
 
डैमेज कंट्रोल की तैयारी : पुरानी सहयोगी शिरोमणी अकाली दल कृषि कानूनों के मुद्दे पर एनडीए से पहले ही अलग हो चुकी है। पंजाब में अपने सहयोगी अकाली दल को गंवा चुकी भाजपा के लिए एक सर्वे में अनुमान जताया गया है कि पंजाब विधानसभा चुनाव में शायद पार्टी का खाता भी ना खुले। इसके अलावा यहां भाजपा नेताओं के प्रति गुस्सा चरम पर है। 
 
पंजाब के सियासी समीकरण : पंजाब में कुल 117 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से 40 अर्बन, 51 सेमी अर्बन और 26 रूरल सीटें  हैं। रूरल के साथ सेमीअर्बन विधानसभा सीटों पर किसानों का वोट बैंक हार-जीत का फैसला करता है। पंजाब की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। पंजाब में 75% लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर खेती से जुड़े हैं। ऐसे में पंजाब चुनाव से ठीक पहले भाजपा के लिए कानून वापस करना फायदेमंद साबित हो सकता। 
 
परफेक्ट टाइमिंग : मोदी ने फैसले के लिए गुरु पर्व (गुरु नानक जयंती) का दिन चुना। राजनीतिक पंडित भी मानते हैं कि फैसले की टाइमिंग न सिर्फ पंजाब बल्कि अन्य राज्यों की सिख बहुल सीटों पर असर डालेगी और भाजपा के प्रति सिखों की नाराजगी को भी कम करने में मददगार होगी। इसके पहले भी मोदी कई बार गुरुद्वारों में मत्था टिकाते नजर आए हैं।     
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कानून वापसी का एक और सायलेंट फैक्टर है पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, अपनी पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस का बीजेपी के साथ गठबंधन का ऐलान किया। माना जा रहा है कि उन्होंने इसके लिए शर्त रखी कि किसान आंदोलन का समाधान निकाला जाए। कृषि कानूनों को वापस लेने को पंजाब में भाजपा और कैप्टन की जुगलबंदी का बड़ा इशारा माना जा सकता है। पंजाब में बीजेपी की स्थिति ज्यादा मजबूत कभी नहीं रही है लेकिन अमरिंदर सिंह और अकाली दल का साथ पंजाब में भाजपा के लिए सत्ता की राह दिखा सकता है।
 
छवि बदलने की कवायद : नोटबंदी, जीएसटी, सीएए और लॉकडाउन जैसे कड़े फैसले लेने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संभवत: केवल दूसरी बार जनता से माफी मांगी है। इसके पहले मोदी ने कोविड-19 स्थिति मार्च में अपने मासिक रेडियो कार्यक्रम मन की बात में राष्ट्र के नाम एक और संबोधन के दौरान, कोविड -19 महामारी को रोकने के लिए उनकी सरकार द्वारा उठाए गए 'कठोर कदम' के लिए माफी मांगी थी। मोदी का 'मैं माफी मांगता हूं' संबोधन कई मायनों में सीधा आंदोलनकारियों को अपील करेगा बल्कि इसे मोदी को जनता के मन की बात सुनने वाले एक जिम्मेदार नेता के तौर पर प्रचारित करेगा। 
 
आखिर भारत की आत्मा का मूल तत्व ही सत्य, अहिंसा, त्याग, दया, क्षमा हैं तो निश्चित ही प्रकाश पर्व पर मोदी का किसानों से माफी मांगना एक बड़ा मास्टर स्ट्रोक है। 

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