बालक नानक के पिता कल्याणराय ने उनका यज्ञोपवीत कराने के लिए अपने इष्ट संबंधियों एवं परिचितों को निमंत्रित किया। बालक नानक को आसन पर बिठाकर जब पुरोहितों ने उन्हें कुछ मंत्र पढ़ने को कहा, तो उन्होंने उसका प्रयोजन पूछा।
पुरोहित समझाते हुए बोले, 'तुम्हारा यज्ञोपवित संस्कार हो रहा है। धर्म की मर्यादा के अनुसार यह पवित्र सूत का डोरा प्रत्येक हिंदू को इस संस्कार में धारण कराया जाता है। धर्म के अनुसार यज्ञोपवित संस्कार पूर्ण होने के बाद तुम्हारा दूसरा जन्म होगा। इसीलिए तुम्हें भी इसी धर्म में दीक्षित कराया जा रहा है।'
'मगर यह तो सूत का है, क्या यह गंदा न होगा?' बालक ने प्रश्न किया।
'हां, पर साफ भी तो हो सकता है।'
'और टूट भी सकता है न?'
'हां, पर नया भी तो धारण किया जा सकता है।'
नानक फिर कुछ सोचकर बोले, 'अच्छा, मगर मृत्यु के उपरांत यह भी तो शरीर के साथ जलता होगा? यदि इसे धारण करने से भी मन, आत्मा, शरीर तथा स्वयं यज्ञोपवित में पवित्रता नहीं रहती, तो इसे धारण करने से क्या लाभ?'
पुरोहित और अन्य लोग इस तर्क का उत्तर न दे पाए। तब बालक नानक बोले, 'यदि यज्ञोपवित ही पहनाना है तो ऐसा पहनाओ कि जो न टूटे, न गंदा हो और न बदला जा सके। जो ईश्वरीय हो, जिसमें दया का कपास हो, संतोष का सूत हो। ऐसा यज्ञोपवित ही सच्चा यज्ञोपवित है। पुरोहित जी! क्या आपके पास ऐसा यज्ञोपवित है?' ...और यह सुन सब अवाक् रह गए, उनसे कोई उत्तर न देते बना।
सच ही कहा गया है कि पूत के पांव पलने में ही दिखाई देने लगते हैं। उन्हें संत ही होना था।