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हमारे पास आज है, कल भी आज ही होगा

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अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

, मंगलवार, 14 जुलाई 2020 (11:21 IST)
सनातन समय से हम यानी मनुष्यों को आध्यात्मिक वृत्ति के दार्शनिक चिंतक-विचारक समझाते रहे हैं कि हमें वर्तमान में जीना चाहिए। वस्तुत: हम पूरा जीवन वर्तमान में ही जीते हैं। हमारे पूरे जीवनकाल में वर्तमान ही होता है यानी हमारे पास आज है, कल भी आज ही होगा। कल, आज और कल। हमारी समझ के लिए काल की सबसे आसान गणना। दो कल के बीच आज। पर आज सनातन रूप से आज ही होता है।
 
कल आता-जाता आभासित होता रहता है, पर आज न आता है, न जाता है और वह हमेशा बना रहता है। जैसे सूरज है, सदैव है, पर हमें यह आभास होता है कि वह उदित और अस्त हो रहा है। जैसे हम रोज जागते हैं और सोते हैं, पर सोते और जागते समय हम हमेशा होते तो हैं, पर कहीं नहीं जाते। हम रोज कहते हैं कल आएगा, पर कल कभी आता नहीं, हमेशा आज ही होता है। जब हम हमेशा आज में ही जीते हैं तो यह बात या दर्शन क्यों उपजा कि वर्तमान में जीना चाहिए। आज हमेशा है, पर हम आज का जीवन कल की चिंता में जी ही नहीं पाते।
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जब तक हम जीते हैं आज साक्षात हमारे साथ होता है, पर हम आज के साथ हर क्षण जीते रहने के बजाय कल की परिकल्पना या योजना से साक्षात्कार में ही प्राय: लगे होते हैं। हमारी सारी कार्यप्रणाली, कामनाएं, योजनाएं व भविष्य को सुरक्षित करने का सोच व चिंतन कल को सुरक्षित रखने के संदर्भ में ही होती हैं। यही हम सबकी जीवन यात्रा का एक तरह से निश्चित क्रम बन गया है। ऐसा क्यों क्रम बना, यही वह सवाल है जिसका उत्तर विचारक, दार्शनिक व आध्यात्मिक संत-परंपरा के गुणीजन हमको आज में आनंद अनुभव करने का सूत्र समझाते हैं।
 
आज के आनंद का अनुभव हम कल की चाहना में ले ही नहीं पाते। हम जब तक हैं, हम सब आज ही हैं। जब हम न होंगे, तो कल का खेल शुरू होगा और हम न होंगे।
आज और कल का यह खेल सरल भी है और जटिल भी है। सहज भी है और विकट भी है। जैसे जीवन सरल भी है और जटिल भी है। हम आज को समझ नहीं पाते और कल की चिंता में आज की सहजता के साक्षात स्वरूप को भी समझ या देख नहीं पाते। आज प्रत्यक्ष या साक्षात उपस्थित है और कल तो पूरी तरह काल्पनिक हो संभावना का खेल है। हमको साक्षात से ज्यादा संभावनाओं की जिज्ञासा है।
 
यही कारण है कि हम सब आज से ज्यादा काल्पनिक कल की कल्पनाओं में ही खोए रहते हैं। आज साक्षात या प्रत्यक्ष अनुभूति है और कल साक्षात्कार से परे की विकट परिकल्पना है। आज को पूर्णता से महसूस करना ही जीवन की पूर्ण और प्राकृतिक समझ है। इसे यों भी समझा जा सकता है कि जीवन समझने की नहीं, स्वयं स्फूर्त और निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जिसके रूप-रंग अनंत हैं, पर स्वरूप एक ही है।
हम अपने बाल स्वरूप में आजकल के चक्र से परे या अनभिज्ञ होते हैं। बचपन केवल आज में केवल भूख-प्यास जैसी ही अन्य प्राकृतिक हलचलों तक ही सीमित होता है। रोना, हंसना और किलकारी भरना ही हमारी प्राकृतिक हलचलें होती हैं, जो हमारे परिजनों के आनंद या चिंता के विषय होते हैं। जैसे-जैसे हमारे स्वरूप का विस्तार होता है, हमारा आजकल का चक्र प्रारंभ हो जाता है।
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हमारे प्रत्यक्ष अनुभव हमें चिंतन की अनवरत धारा का राही बना देते हैं। अब हमारे जीवन के कालक्रम में इतने सारे सवाल, जिज्ञासा और संकल्प उभरने लगते हैं जिनके चक्रव्यूह में हम जीवनभर घूमते ही रहते हैं। इस तरह हमारा आजकल के सवालों से निपटने की तैयारी में इतनी तेजी से गुजरने लगता है कि आज के आनंद की अनुभूति ही नहीं हो पाती।
 
हम नींद से जागते हैं और हमारा रोज का जीवन जितना शांत और एकाग्रचित्त होता है, उतना हमारा जीवन वायु की तरह प्राणवान होता है। हमारी निरंतर गतिशीलता बनी रहती है, पर यदि कल की चिंता मन में आती तो फिर हमारी एकाग्रता, निरंतरता और गतिशीलता बार बार रुक-सी जाती है और 'कल की चिंता में आज व्यर्थ गया' यह भाव मन को अशांत कर निराशा का भाव आ जाता है।
 
कोई यह कह सकता है कि यह कहना बहुत सरल है कि शांतचित्त और एकाग्र रहो, पर यह प्राय: हो नहीं पाता, क्योंकि हमारे अनुभवों के निरंतर विस्तारित होते रहने से हम शांत और एकाग्रचित्त नहीं रह पाते। हमारे आवेग, हमारे मनोभाव और हमारे अंतहीन विचार हमारे आज के जीवन को तय करते हैं। आज यदि कल की चिंता या चिंतन में ही लगा रहा तो आज अपने मूल स्वरूप से दूर चला जाता है।
 
आज की हमारी संकल्पना क्या है? क्या जीवन का होना आज माना जा सकता है? जीवन और आज एक ही बात है, यह हम समझ सकते हैं। तो बात एकदम सरल हो सकती है, समझने के लिए भी और निरंतर वर्तमान में आनंद से जीने के लिए भी। जो गुजर गया वह अनुभव है, जो प्रत्यक्ष है वह ही जीवन है। इसे जीवन के संदर्भ में समझें।
 
केवल आज ही जीवन है अत: आज और जीवन को कल की सुरक्षा के लिए जीना किसी के लिए संभव ही नहीं हो सकता। तब हम यह बात एकदम सरलता से समझ सकते हैं कि प्रत्यक्ष जीवन में कल जैसा कुछ संभव ही नहीं है, जो कुछ है वह केवल आज ही है। कल तो जीवन में प्रत्यक्ष आता ही नहीं है।
 
कल की कल्पना आभासी है। किसी भी जीवन का साक्षात्कार कल से संभव ही नहीं है। इसी से मनीषियों का चिंतन जीवन के हर क्षण जीवंत बने रहने के संदर्भ में है। किसी भी क्षण जीवन को स्थगित कर कल जीने या कल के जीवन की सुरक्षा के लिए संसाधनों के संग्रह की प्रयोजनहीनता को स्पष्ट समझाने हेतु कहा है।
 
मनुष्य के पास जीवन की क्षणभंगुरता की समझ आदिकाल से है। यही समझ उसे आज का आनंद उपलब्ध करवाती है। कल के लिए न तो कुछ योजना बनानी चाहिए और न कल के लिए कुछ लंबित रखना चाहिए।
 
हमारी लोक समझ का दर्शन है-
 
'काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में परलय होयगी, तो बहुरी करेगा कब।'

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