हम सब एक ऐसी राख का ढेर हैं जो हवा के झौंके से कम होते जाएंगे

नवीन रांगियाल
कल लोग हंस रहे थे। बातें कर रहे थे। अपने बच्‍चों के साथ खेल रहे थे। परिवार के साथ मौज-मस्‍ती कर रहे थे। काम पर जा रहे थे। मंदिर में पूजा कर रहे थे। यज्ञ में शामिल हुए थे। अपने परिवार की खुशहाली के लिए भगवान के दर में खड़े थे।

वे सब कल जिंदा थे इसलिए खास थे। आज नहीं है, इसलिए खाक हो गए...

जिंदा और हंसते- खेलते लोग कब और किस वक्‍त श्‍मशान भूमि में एक राख के ढेर में तब्‍दील हो जाते हैं, यह किसी को नहीं पता।

शायद इसीलिए किसी ने कहा था--- मौत सबको आनी है, कौन उससे छूटा है, तू फना नहीं होगा ये ख्याल झूठा है।

ये जिंदगी का कटु सत्‍य है, इसे माना जाए या न माना जाए, ये सत्‍य हर किसी की जिंदगी में घटता है। एक दिन घटेगा। किसी के साथ अभी, किसी के साथ कल और किसी के साथ परसों। ये टल नहीं सकता। यही जिंदगी है, जिसके पहलू में मौत बंधी हुई है।

इंदौर के बेलेश्‍वर महादेव मंदिर में बावड़ी की छत धंस जाने से हुए हादसे में 36 लोगों की जान चली गई। इस विभत्‍स हादसे में मौत ने किसी को नहीं बख्‍शा। उसकी मार में अभी-अभी दुनिया में आए मासूम बच्‍चे भी थे, नाजुक महिलाएं भी थीं और कुछ ही दिन या साल-महीने रहने वाले बेहद कमजोर बुर्जुग भी थे। इन सबको मौत ने एक सिरे से चुन लिया। एक साथ। एक ही क्षण में। पलक झपकते ही। मौत ने किसी की उम्र नहीं देखी, किसी का चेहरा नहीं देखा। किसी की कट्टरता नहीं देखी किसी की मासूमियत नहीं देखी। कोई लिंग-भेद नहीं किया। वो आई और उस क्षण में मौजूद सभी को बहा ले गई। जो उस क्षण में वहां मौजूद थे।

अंतत: सबसे आखिरी में इन सभी मरने वालों का जो चेहरा शेष बचा रह गया, वो राख का एक ढेर था। कुछ अस्‍थि-पंजर के साथ श्‍मशान घाट में धूसर भूरी राख का महज एक ढेर।

जिंदगी में कितनी चीजें होती हैं। एक जीवंत जिंदगी में कितने तत्‍व, कितने आयाम होते हैं। हंसी-खुशी। सुख-दुख। अच्‍छा-बुरा। रिश्‍ते-नाते। प्‍यार। अपना-पराया। घर- परिवार। मोह- माया और लगाव। उत्‍सव और उत्‍साह सबकुछ। कितना कुछ होता है एक जीती जागती और भागती हुई जिंदगी में।

इंदौर के पटेल नगर में पटेल समाज के इन परिवारों में भी कितना कुछ था, जिसे पूरा और संपूर्ण कहा जा सकता है। सबकुछ पूरा। कहीं कोई अधूरापन नहीं। कहीं कोई कमी नहीं। लेकिन जब इन परिवारों पर मौत का वज्र टूटा तो आखिरी में क्‍या रह गया...  सिर्फ राख का ढेर। जीते जागते आदमी का बिखरा हुआ वजूद। दरअसल वजूद भी नहीं। कुछ भी नहीं।

जिसके आसपास कल सैकड़ों लोगों की भीड़ थी। उनके मृत देह में तब्‍दील हो जाने के बाद भी उसके पास कुछ लोगों का जमावड़ा था। लेकिन आज कुछ भी नहीं है। वे एक नितांत अकेलेपन में एक ऐसे श्‍मशान में पड़े है, जिसकी तरफ कोई देखना भी नहीं चाहता। वे अब एक राख के ढेर के सिवाए कुछ भी नहीं। कोई उनके पास नहीं। वे अब एक ऐसी राख का ढेर हैं जो हवा के झोंके से कम होते जाते हैं। वो राख का ढेर भी धीमे- धीमे कम होता जाएगा। जिंदा होने की वजह से जो कल खास थे। आज वे खाक हो गए। यही जिंदगी और मौत के बीच फर्क है। कुछ होना और कुछ भी नहीं होना।

... तो फिर सत्‍य क्‍या है? अपने अकेलेपन में हवा के झोंके से कम होता हुआ इसी राख का ढेर, जिसे कोई सत्‍य नहीं मानता... क्‍योंकि हम सब जिंदगी में खोए हुए लोग हैं, इसलिए मृत्‍यु अब भी एक कल्‍पना है।

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