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वीर सावरकर : इतिहास की काल कोठरी में दमकता हुआ हीरा

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

भारतीय राजनीति में स्वातन्त्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर का नाम सदैव चर्चा में रहता है। मात्र चौदह वर्ष की अल्पायु से अपना जीवन स्वतन्त्रता की बलिवेदी में आहुत कर देने वाले सावरकर।

अपने भाई बाबाराव सावरकर सहित पूरे के पूरे परिवार क्रान्तिकारी कार्य में हवन करने वाले सावरकर। जिन्होंने राष्ट्र को जीवन के केन्द्र में रखने और राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का आजीवन व्रत लिया और सभी को इसकी प्रेरणा दी।

उन सावरकर को भी कुटिल राजनीति अपनी सत्ता व स्वार्थ सिध्दि के लिए अपमानित करने का अवसर ढूंढ़ती रहती है, जिन्हें दो-दो आजन्म कारावास की सजा अँग्रेजों ने सुनाई हो। और जिनके लेखों, वक्तव्यों,पुस्तकों से अंग्रेज सरकार इतनी भयभीत रहती थी कि उन्हें जब्त करने, बोलने, प्रकाशन रोकने और मुकदमा लगाकर जञ्जीरों में बांध देती थी।

वह सावरकर जिनकी क्रान्तिकारी व सामाजिक -राजनैतिक गतिविधियों का अंग्रेज सरकार ने नृशंसता पूर्वक दमन किया और उनके भाईयों -सहयोगियों को जेल में डाल दिया। घर के आर्थिक संसाधनों को नष्ट कर दिया हो और उनके जीवन के अठ्ठाईस वर्षों तक उन्हें कालापानी की कैद व सख्त निगरानी में रखकर महाराष्ट्र के रत्नागिरी की सीमाओं में कैद करके उनके क्रान्तिकारी, सामाजिक कार्यों पर अंकुश लगाने,यातना देने में जिन क्रूरताओं के साथ सावरकर व उनके परिवार को प्रताड़ित किया,स्वातन्त्र्य भारत के इतिहास में ऐसा अन्य कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता है।

यह सावरकर के क्रान्तिकारी विचारों,कार्यों,दर्शन व भारतीय संस्कृति, हिन्दू राष्ट्र के प्रति उनकी अगाध,असंदिग्ध श्रध्दा का ही परिणाम है कि वे जनमानस के ह्रदय में अपना अद्वितीय स्थान तो बनाए ही हुए हैं, और उत्तरोत्तर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मस्तक उन्नत ही होता जा रहा है।

साथ ही उनका अनादर व अपमान करने वालों के लिए भी वे वर्षों से पत्थर में सर पीटने का विषय बने हुए है। हालांकि इसके केन्द्र स्वार्थ पिपासु राजनीति है जिसे पता है कि सावरकर के दर्शन में कितना अपार ओज और तेज है- उन्हें यह भी पता है कि सावरकर के विचारों- सिध्दान्तों को लोक द्वारा आत्मसात करने पर भारत-भारतीयता और भारतीय संस्कृति की ध्वज पताका सदैव फहराती रहेगी। जिससी उसी सत्ता की प्रतिष्ठा होगी जो भारत की सनातन संस्कृति के प्रति निष्ठावान होगी।

इस कारण से सावरकर सदैव उनके निशाने पर रहते हैं। हमें यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि सावरकर उस समय ही क्रान्तिकारियों के महान आदर्शों में स्थापित हो चुके थे,जब स्वतन्त्रता आन्दोलन के बहुचर्चित नेता चाहे गांधीजी हों, सुभाषचंद्र बोस हों, सरदार पटेल हों, नेहरू हों,  इन सभी का उभार नहीं हो पाया।

महात्मा गांधी तो दक्षिण अफ्रीका से सन् उन्नीस सौ पन्द्रह में भारत वापस आए थे। किन्तु सावरकर उन्नीस सौ के प्रवेश के साथ ही क्रान्तिकारी कार्यों में अपने अपूर्व तेज के साथ गतिमान थे।

बालगंगाधर तिलक उनसे इतना अधिक प्रभावित थे कि श्यामजीकृष्ण वर्मा द्वारा लन्दन में भारतीय छात्रों के लिए हॉस्टल के रुप में स्थापित 'इण्डिया हाउस' जो वास्तव में भारतीय क्रान्तिकारी निर्माण की फैक्ट्री थी। तिलक ने उन्हें पढ़ने के उद्देश्य से क्रान्तिकारी गतिविधियों के प्रसार के लिए भेजा था।

सन् उन्नीस सौ चार में लन्दन में अपनी पढ़ाई के दौरान ही अभिनव भारत जैसे क्रांतिकारी संगठन को खड़ा करने वाले सावरकर। लाला हरदयाल, सेनापति बापट, भाई परमानंद और भगत सिंह के गुरू - मार्गदर्शक करतार सिंह सराभा के प्रेरणास्रोत सावरकर। लन्दन के विभिन्न पुस्तकालयों के पन्ने-पन्ने को पढ़कर तथ्यात्मक और प्रमाणिक 'सन् अठारह सौ सन्तावन का स्वातन्त्र्य समर' लिखकर इतिहास के गौरव बोध को भरने वाले सावरकर।

यह कोई सामान्य पुस्तक भर नहीं थी,बल्कि इस पुस्तक ने अनेकानेक क्रान्तिकारियों को क्रान्ति की नई राह दिखलाई।गदर पार्टी के जन्म के पीछे यही पुस्तक है। अंग्रेजी सरकार इससे इतना भयभीत हुई कि प्रकाशन के पूर्व ही उन्हें जब्त कर ली थी।

किन्तु सावरकर अंग्रेजों की मानसिकता व योजना को पूर्व में ही भाँपकर इसकी तीन प्रतियां तैयार की थीं,जोकि उन्होंने मराठी भाषा में लिखी थी।और उन्होने भारत में अपने बड़े भाई  गणेश सावरकर, फ्रांस में भीकाजी कामा व एक प्रति डॉ. कुटिन्हों के पास भेजकर उसके व्यापक प्रकाशन व प्रसारण की रणनीति तैयार की थी।

इसकी विचार दृष्टि की क्रान्तिकारी उपयोगिता इतनी अधिक थी कि इसके विविध भाषाओं में अनेकानेक संस्करण प्रकाशित हुए। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इसके तमिल संस्करण को प्रकाशित करवाया, तो भगत सिंह ने इसके अन्य संस्करणों को राजाराम शास्त्री की सहायता से प्रकाशित करवाने व अधिकाधिक प्रसारण कार्य को करवाने में जुटे रहे।

रासबिहारी बोस से लेकर राजर्षि पुरुषोत्तम दास दण्डन सहित अनेकानेक क्रान्तिकारियों के लिए गौरवपूर्ण इतिहास बोध से परिपूर्ण इस पुस्तक ने क्रान्तिकारियों को आत्मबल व पुरुषार्थ के साथ त्याग और बलिदान का साहस प्रदान किया। सन् उन्नीस सौ पाँच में सर्वप्रथम बंगाल विभाजन का विरोध करते हुए विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर प्रखर प्रतिशोध दर्ज करवाने वाले सावरकर। जिसे आगे चलकर महात्मा गांधी ने बाईस अगस्त सन् उन्नीस सौ इक्कीस को 'स्वदेशी' अभियान में विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर अपनाया।

सन् उन्नीस सौ सात में अंग्रेजों द्वारा जब भारत के अठारह सौ सन्तावन के स्वतन्त्रता संग्राम को कुचलने की लन्दन में झांकी प्रस्तुत की गई तो वे इससे उद्वेलित व विचलित हो गए और सर्वप्रथम दस मई सन् उन्नीस सौ सात को उन्होंने गर्वपूर्ण ढंग से इण्डिया हाउस में अपने सहयोगी साथियों के साथ अंग्रेजों से आंखें तरेरते हुए उन्होंने वहां भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाने का साहसिक कार्य किया। और यही प्रेरणा उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखने के लिए बनी जिसे सन् उन्नीस आठ में तथ्यात्मक ढंग से भारतीय स्वतन्त्रता के अप्रतिम संग्राम को उन्होंने पुस्तकाकार रुप दिया।

लन्दन के इण्डिया हाउस से भारत की स्वतन्त्रता के लिए अनवरत- अथक रणनीति और आन्दोलनों की पटकथा रचने वाले सावरकर ने चाहे भारत में हो या विदेश भूमि में या जेल की कोठरी में; वे अपने स्वतन्त्रता के व्रत को किसी न किसी रणनीति के माध्यम से पूर्ण करने के लिए सदैव उद्दत रहे।

क्रान्तिकारी कवि,उपन्यासकार, इतिहासकार, विद्वान, दार्शनिक, कानूनविद्, समाजसुधारक व अखण्ड भारत के जाज्वल्यमान स्तम्भ सावरकर ने अपना सर्वस्व राष्ट्र के लिए सौंप दिया। उन सावरकर का भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान अतुलनीय है,जिसे अकादमिक तौर पर सत्तासंरक्षण में विकृत करने के अनेकानेक षड्यन्त्रों के उपरान्त भी वामपंथी मिटा पाने में असफल ही रहे। हालांकि जब सावरकर के समक्ष वे किसी पसंघे में नहीं टिक पाए तो वे सभी सावरकर पर माफी मांगने व गाँधीजी की हत्या में संलिप्तता, भारत विभाजन के दुष्प्रचार और मिथ्यारोप लगाने में वर्षों से अनवरत जुटे हुए हैं किन्तु वे न तो कभी सावरकर को समझ सकते हैं और न ही भारतीय जनमानस के अन्दर सावरकर के प्रति आदर व श्रध्दा को कम कर सकते हैं।

सावरकर ने अपनी याचिकाओं के सम्बन्ध में स्वयं ' मेरा आजन्म कारावास' में लिखा है। और उनकी सभी याचिकाएं उसी फॉर्मेट में हैं,जिस फॉर्मेट में उस समय राजनैतिक बन्दी याचिकाएं प्रस्तुत करते हैं। छठवीं याचिका के लिए महात्मा गाँधी ने स्वयं सलाह दी थी,और सावरकर बन्धुओं की मुक्ति के लिए अपने स्तर पर प्रयासरत थे। और उन्होंने स्वयं छब्बीस मई सन् उन्नीस सौ बीस व सन् उन्नीस सौ इक्कीस में अपने पत्र ' यंग इण्डिया' में लेख लिखकर सावरकर बन्धुओं के विषय में विस्तृत विवेचन के साथ अंग्रेज सरकार से उन्हें छोड़ने के लिए कहते हैं।

यह सबकुछ ऐतिहासिक तौर पर दर्ज है,कोई भी इसका अवलोकन कर सकता है। तथ्यों के आलोक में जहाँ सावरकर के प्रति दुस्प्रचार करने वाले बेदम पिटते हैं। तो वहीं गांधी हत्या के आरोप में भले ही उन्हें जेल जानी पड़ी हो लेकिन अन्ततोगत्वा भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की अग्निपरीक्षा से भी सावरकर  तपकर कुन्दन की भांति निष्कलंक निकल कर आते हैं।

सावरकर के विषय में यदि हम आधुनिक सन्दर्भ में बात करें तो न्यायपालिका हर बार उन्हें निर्दोष सिध्द करती है, किन्तु सावरकर के विरुद्ध ऐतिहासिक रुप से पर्याप्त कानूनी प्रमाण है,  ऐसा उनको अपमानित करने वाली कुंठित बिरादरी  हमेशा कहती रहती है। यदि सावरकर के विरुद्ध गांधी हत्या में संलिप्त होने के कोई भी प्रमाण होते तो क्या न्यायपालिका संज्ञान में लेकर उन्हें अपराधी सिध्द नहीं करती? यदि सावरकर गाँधीजी की हत्या में संलिप्त होते तो क्या सन् पैंसठ में गठित कपूर आयोग उन्हें दोषी सिध्द नहीं करता?

और ऊपर से कपूर आयोग की रिपोर्ट पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा के शासनकाल में आई थी,ऐसे में यदि सावरकर नाममात्र के लिए भी संलिप्त होते तो ,क्या तत्कालीन इन्दिरा गांधी सरकार सावरकर को दोषी नहीं ठहराती? किन्तु 'सांच को आंच' क्या की भांति सावरकर सर्वोच्च न्यायालय, जांच आयोगों के द्वारा सदैव दोषमुक्त सिध्द हुए। बल्कि इन्दिरा गांधी ने वीर सावरकर के अप्रतिम योगदान को ध्यान में रखते हुए सन् उन्नीस सौ सत्तर में महान क्रान्तिकारी, राष्ट्रवादी, कवि के रुप में याद करते हुए 'डाक टिकट' जारी करती हैं और इतना ही नहीं  वे 'सावरकर ट्रस्ट' को अपने निजी कोष से ग्यारह हजार रुपये भी देती हैं।

साथ ही सन् उन्नीस सौ तिरासी में उन्होंने भारतीय फिल्म डिवीजन को वीर सावरकर पर एक वृत्तचित्र बनाने का आदेश  देते हुए कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को 'इस महान क्रांतिकारी' के बारे में न सिर्फ पता चल सके बल्कि पीढ़ियां जान सकें कि वीर सावरकर ने देश की आजादी में क्या और किस तरह से योगदान दिया।

यदि सावरकर दोषी होते तो क्या सर्वोच्च न्यायालय उन्हें अपराधी सिध्द नहीं करता? यदि सावरकर दोषी या क्रान्तिकारी नहीं होते तो क्या लालबहादुर शास्त्री के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार उन्हें शासकीय कोष से पेंशन देती? जैसा कि वर्तमान में कांग्रेस के दिग्भ्रमित,विचारशून्य कथित नेता और वामपंथियों द्वारा वीर सावरकर के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है।

तब क्या नेहरू जी की पुत्री इन्दिरा गांधी उनके सम्मान में डाकटिकट, वृतचित्र व बीस मई सन् उन्नीस सौ अस्सी को अपने पत्र के माध्यम से सावरकर स्मारक के सचिव बाखले को वीर सावरकर की 'सौ' वीं जयन्ती पर शुभकामना सन्देश भेजकर कहती कि "मुझे आपका आठ मई सन् उन्नीस सौ अस्सी को भेजा हुआ पत्र प्राप्त हुआ है। वीर सावरकर का अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध बहादुरी पूर्ण प्रतिकार करना भारत के स्वतन्त्रता के आन्दोलन में अपना एक महत्वपूर्ण व अहम स्थान रखता है। मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें और भारत माता के इस महान सपूत की सौ वीं जयन्ती के उत्सव को अपनी योजनानुसार पूरी भव्यता के साथ मनाएं।"

तो पूरी कांग्रेस और वामपंथी गिरोह क्या इन्दिरा गांधी से अधिक बुध्दिमान व शक्तिशाली हैं? क्या इन्दिरा गांधी को सत्य और असत्य का ज्ञान नहीं था? जो उन्होंने वीर सावरकर का सदैव सम्मान करती रहीं और उन्हें प्रेरणास्रोत बतलाया।

सन् दो हजार तीन में अटल बिहारी सरकार में प्रणब मुखर्जी व शिवराज पाटिल की समिति द्वारा संसद भवन के सेन्ट्रल हॉल में वीर सावरकर के पोर्टरेट लगाने को लेकर समिति ने अपना प्रस्ताव पारित कर लोकसभा अध्यक्ष को स्वीकृति को भेजा था। इसी कारण बाद में सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी व शिवराज पाटिल को डांटा भी था कि आप लोग समिति में होकर यह प्रस्ताव कैसे दे सकते हैं। कांग्रेस द्वारा पोर्टरेट अनावरण समारोह का बहिस्कार करने के बाद प्रणब मुखर्जी व शिवराज पाटिल भी नहीं पहुंचे थे,किन्तु तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे कलाम ने संसद जाकर विधिवत सावरकर के पोर्टरेट का अनावरण किया।

यदि सावरकर गांधी हत्या के दोषी होते तो क्या प्रणब मुखर्जी व शिवराज पाटिल की समिति उस प्रस्ताव को पारित करती? क्या कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व,वामपंथी गिरोह पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी व एपीजे अब्दुल कलाम से अधिक विद्वान हैं ?  चाहे एपीजे कलाम हों या प्रणब मुखर्जी हों जो भारतीय स्वतन्त्रता में सावरकर के योगदान को जानते व समझते थे, वे सावरकर का आदर करना जानते थे, इसीलिए उन्हें कोई नहीं डिगा सका।
किन्तु इन सबके उपरान्त भी 'वीर सावरकर' के विरुद्ध विष वमन करने वाला गिरोह जब उन पर लगातार गांधी हत्या का बेबुनियाद आरोप लगाता है, तो क्या यह सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवमानना नहीं है? अक्सर सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान व जनभावनाओं का आदर करने का ढोंग रचने वाला यह गिरोह सावरकर पर दोषारोपण करने के लिए इस सीमा तक गिर जाता है कि वह सावरकर के विषय में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को मानने को तैयार नहीं होता है,और न ही सावरकर की जनस्वीकार्यता को पचा पाता है।

लेकिन सावरकर का नाम जब भी चर्चा में आता है तब उनके ऊपर मनगढ़न्त तरीके से मिथ्यादोषारोपण के लिए पूरी की पूरी फौज अपने लाव-लश्कर के साथ राजनीति के अखाड़े में कूद पड़ती है। इसके पीछे उस फौज में चाहे कांग्रेसी हों, चाहे वामपंथी हों या अन्य मुखौटाधारी।

ये सब अपने कुकर्मों से बचने के लिए बेबुनियाद तर्कों की ओट में उन्हें लांछित करने के लिए उतर पड़ते हैं। सावरकर पर अपने-अपने मिथ्यारोपों को गढ़ने के लिए ये कभी गांधी का सहारा ले लेते हैं तो कभी भगत सिंह के बरक्स सावरकर को खड़ा कर अपनी कुत्सित राजनीति को सिध्द करने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन जो सावरकर, भगत सिंह के गुरू, प्रेरक रहे करतारसिंह सराभा के प्रेरणास्रोत रहे हों। जिन सावरकर के साहित्य का प्रकाशन व प्रसारण कार्य भगत सिंह ने करवाया हो। जिन सावरकर के साथ सुभाषचन्द्र बोस ने ब्रिटिश साम्राज्य के शत्रु देशों व नेताओं की भारतीय स्वतन्त्रता के लिए सहायता लेने की कार्ययोजना बनाई हो।

जिन सावरकर ने सशस्त्र व सैनिक विद्रोह के लिए ब्रिटिश सेना में शामिल होकर उसे खोखला करने की दूरगामी रणनीति बनाई हो। उन सावरकर को अपमानित करने के लिए जब एक गिरोह बेबुनियाद आरोप मढ़कर अपना एजेण्डा साधना चाहता है,तब ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी क्रान्तिकारियों व महापुरुषों का कितना सम्मान करते हैं। ये सभी न तो गांधी के अनुयायी हैं, न भगत सिंह के,न अम्बेडकर के, न सुभाष के और न ही अन्य सभी क्रान्तिकारियों के। ऐसा कुकृत्य करने वाले इन्हीं के सहारे अपने प्रोपेगैण्डा को चलाने के लिए जी जान लगाए रहते हैं।

किन्तु सावरकर के त्याग,बलिदान,साहस-शौर्य और उनकी राष्ट्रनिष्ठा पर जब भारतीय सर्वोच्च न्यायालय तथा जनमानस ने खरे होने की बारम्बार मुहर लगा दी है,तब वीर सावरकर को किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है। भले ही उन पर बौध्दिक जुगाली के कीचड़ उछालने के कितने भी प्रयास किए जाएं,लेकिन वे सावरकर के अवदान को कभी भी कम नहीं कर सकते।

उल्टे यह जरूर संभव है कि ऐसा करने वालों का चाल-चरित्र और चेहरा हमेशा बेनकाब होता जाएगा। और उनके इन कुकृत्यों से यह सुस्पष्ट होता है कि ऐसा करने वाले उन्हीं अंग्रेजों की नाजायज़ सन्तानें हैं जिन्होंने वीर सावरकर की क्रान्ति से डरकर उन्हें कठोर सजा सुनाई। सावरकर को लांछित करने के लिए विमर्श चलाने वाले इन पाखण्डियों से यह भी सिध्द होता है कि - ये न तो राष्ट्रभक्त हो सकते, न गांधीभक्त और न ही स्वतन्त्रता संग्राम के हुतात्माओं का आदर करने वाले। ये केवल विकृत मानसिकता के गिरहकट हैं जिन्हें सावरकर के विचार और दर्शन में भारत की उन्नति व भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा होने का भय सता रहा है।

अतएव,ऐसा करने वाले सावरकर को अपमानित करने के सहारे अपनी राजनीतिक प्राण प्रतिष्ठा की उम्मीद लगाकर बैठे हुए हैं। इसके लिए वे किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं। अपने आपको इतिहासकार, प्रोफेसर,पत्रकार, कलाकार, नेता- कहने और कहलाने का प्रपञ्च रचने वाले ये सब वही लोग हैं जिन्होंने कभी भी भारतीय संस्कृति, इतिहास, महापुरुषों का आदर नहीं किया, बल्कि उन्हें अपमानित करने के अपने -अपने स्तर पर कोई भी अवसर नहीं चूके।

मनसा- वाचा -कर्मणा मां भारती के लिए अपनी आहुति देने वाले सावरकर जिन्होंने क्रान्ति की ऐसी ज्वाला सुलगाई कि क्रूर अंग्रेजी सरकार झुलसने लगी। मदनलाल ढींगरा के द्वारा जब सन् उन्नीस सौ नौ में कर्नल वायली की हत्या कर दी गई तो,सावरकर ने मदनलाल ढींगरा के समर्थन में लन्दन टाईम्स में लेख लिखा।
इतना ही नहीं इसके पूर्व और बाद में भी सावरकर ने उन्हें कानूनी और क्रान्ति के लिए सहयोग प्रदान किया।

इस आधार पर वे सन्देह के घेरे में आ गए और सावरकर को मदनलाल ढींगरा को सहयोग देने, वायली की हत्या का षड्यंत्र रचने के आरोप में लन्दन में उन्हें तेरह मई सन् उन्नीस सौ दस को गिरफ्तार कर लिया गया। तत्पश्चात अंग्रेजों द्वारा भारत ले आते समय वे जहाज से समुद्र में कूदकर आठ जुलाई उन्नीस सौ दस को फ्रांस के सीमाक्षेत्र में चले गए। किन्तु बाद में फ्रांस सरकार ने उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया। अंग्रेजों ने षड्यन्त्रपूर्वक ब्रिटिश अधिकारी जैकसन की हत्या में उन्हें दोषी ठहराते हुए चौबीस दिसम्बर सन् उन्नीस सौ दस को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। तत्पश्चात पुनः इकतीस जनवरी उन्नीस सौ ग्यारह को को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

सात अप्रैल सन् उन्नीस सौ ग्यारह को कालापानी की सजा में पोर्टब्लेयर की सेलुलर जेल में दस वर्षों तक अमानवीय यातनाएं दी गईं। वे यातनाएं इतनी क्रूर व वीभत्स थीं कि जिसे आज सोच भर लेने से अन्तरात्मा कांप उठती है। मगर, वह कठोर -क्रूर यातनाएं भी सावरकर को न तो तोड़ पाईं और न ही उनके स्वतन्त्रता और क्रान्ति के व्रत को डिगा पाईं।

इक्कीस मई सन् उन्नीस सौ इक्कीस तक अंग्रेजों ने उन्हें दस वर्ष अण्डमान के पोर्ट ब्लेयर की सेलुलर जेल में रखा। उसके बाद अंग्रेज अधिकारियों के लिए अण्डमान की जलवायु हानिकारक होने के कारण उन्हें तीन वर्षों के लिए रत्नागिरी की जेल में ही रखा गया,तदुपरान्त सन् उन्नीस सौ चौबीस में वे जेल से छूट जाते हैं ,लेकिन कठोर सख्ती व नजरबन्दी में उन्हें पन्द्रह वर्षों तक रत्नागिरी में ही एक नए तरह की ही कैद में रखा जाता है।

अन्ततोगत्वा अठ्ठाईस वर्षों की लम्बी यातना के बाद भारत शासन अधिनियम सन् उन्नीस सौ पैंतीस के बाद जब बॉम्बे प्रेसीडेंसी में कांग्रेस की सरकार बनी तब उन्हें सन् उन्नीस सौ सैंतीस में एक प्रकार से अंग्रेज़ी सरकार की क्रूर परतन्त्रता से मुक्ति मिली। तत्कालीन कांग्रेस ने उन्हें कांग्रेस में शामिल होने का आमन्त्रण दिया था किन्तु सावरकर ने कांग्रेस का आमन्त्रण अस्वीकार करते हुए कहा था- "कांग्रेसी नेताओं को ये विश्वास था कि हिन्दू मुस्लिम एकता के बिना भारत को स्वतन्त्रता नहीं मिल सकती, मुस्लिम नेता इसी का फायदा उठाते हुए हिन्दुओं के अधिकारों की कीमत पर अपने समुदाय के लिए रियायतें हासिल कर रहे हैं। राष्ट्रवाद के नाम पर -हिन्दुओं की कीमत पर मुसलमानों को तुष्ट करना राष्ट्र के साथ धोखा है। मैं ऐसी स्थिति में कांग्रेस में शामिल नहीं हो सकता। राष्ट्रभक्तों की अन्तिम कतार में खड़े होना भी, मैं राष्ट्रद्रोह करने वालों की पहली कतार में खड़े होने से बेहतर समझता हूं।

विकृत मानसिकता वाले मानसिक गिरोहों के अनुसार यदि सावरकर ने क्रान्तिकारी कार्य छोड़ने की कीमत पर याचिका दायर की थी,तो उनके छूटने के बाद तत्कालीन कांग्रेस उन्हें साथ में शामिल करने व कांग्रेस सरकार में प्रतिनिधित्व के लिए क्यों आमन्त्रित कर रही थी? सावरकर व स्वतन्त्रता संग्राम, कांग्रेस व स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेताओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन में कई सारे आयाम निकलकर आते हैं। सन् उन्नीस सौ सैंतीस में अपनी स्वतन्त्रता के उपरान्त वीर सावरकर पुनः सामाजिक -राजनैतिक - सांस्कृतिक स्तर पर दूरगामी व्यापक कूटनीति एवं रणनीति के अन्तर्गत क्रान्तिकारी कार्य में तत्परता के साथ जुट गए। अपनी कैद के दौरान उन्होंने विपुल साहित्य रचा था और स्वतन्त्रता के पुजारी सावरकर ने अनेकानेक कठोर यातनाओं की त्रासदी को अपने ऊपर वज्रपात की भाँति सह लिया लेकिन उन्होंने अपने सिध्दान्तों व अखण्ड भारत के सपनों से किसी भी परिस्थिति में समझौता नहीं किया। उन्होंने अँग्रेजी शत्रुओं को धोखा देने के लिए  विविध रणनीतियाँ बनाई और अपने जीवन को सार्थकता प्रदान की। 

सावरकर पर चाहे गाँधी हत्या में संलिप्तता के मनगढ़न्त आरोप हों याकि उनकी याचिकाओं को लेकर कुत्सित दुराग्रहों की तुष्टि के यत्न हों - सभी केवल राजनैतिक हित साधने व स्वातन्त्र्य समर के महान क्रान्तिकारी वीर सावरकर को अपमानित करते हुए उनके माध्यम से भारतीय धर्म, संस्कृति व इतिहास पर कुठाराघात करने के षड्यन्त्र ही सिध्द होते हैं।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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