यात्रा वृत्तांत : उदयपुर का वैभवशाली, शौर्य से भरा इतिहास

अंजू निगम
म्हारा राजस्थान। नाम सुनते ही अभूतपूर्व, वैभवशाली इतिहास के कई सुनहरे पन्नों से स्वत: ही साक्षात्कार होता है। साकार हो उठते हैं रणभूमि में खड़े कतारबद्ध वे रणबांकुरे, जो अपनी रगों में बहने वाले राजपुताना रक्त की आन के लिए अपने को न्योछावर करने के लिए तत्पर रहते थे। जहां की धरती गर्व करती थी ऐसे वीर सपूतों पर, जिनसे लोहा लेना दुश्मनों के लिए दुरूह था। जिनको परास्त करने के लिए राजनीति की मोहरें बिछाई जाती थीं। ऐसी मेवाड़ की धरती पर कदम रखने की अनूभुति ने अभिभूत कर दिया। आंखों के आगे साक्षात हो उठीं शौर्य की अद्भुत गाथाएं और रणभूमि में राजपुताना पराक्रम का बेमिसाल इतिहास। वीरांगनाओं के जौहर और अद्वितीय रूप-वैभव को प्रस्तुत करते शानदार किले, महल व बावड़ियां। इस समस्त को समेटने की इच्छा बलवती हो उठी।
 
राजस्थान के एक अहम पन्ने से साक्षात्कार होने के लिए हमने सर्वप्रथम उदयपुर से 50 किलोमीटर दूर हल्दी घाटी जाने का निश्चय किया। हल्दी घाटी का नाम सुनकर ही रगों में सिहरन-सी दौड़ गई और शौर्यवीरता का वह इतिहास साकार हो उठा।
 
सबसे पहले हम हल्दी घाटी संग्रहालय गए। बताती चलूं कि यह संग्रहालय एक स्कूल टीचर डॉ. श्रीमाली द्वारा बनवाया गया था। डॉ. श्रीमाली ने बिना किसी सरकारी मदद के इस संग्रहालय को बनवाने का सारा खर्च वहन किया। संग्रहालय इस रोचक तरीके से बनवाया गया है कि इसमें हल्दी घाटी का पूरा इतिहास सिमट आए।
 
करीब 35 लोगों के समूह को सिलसिलेवार तरीके से हल्दी घाटी का पूरा इतिहास बताया जाता है। पहले कमरे में प्रवेश करते ही सलीकेदार तरीके से महाराणा प्रताप द्वारा युद्ध में प्रयुक्त नख से शिख तक के सारे अस्त्र दर्शाए गए हैं। इसके अलावा 15 मिनट के वृत्तचित्र में हल्दी घाटी के इतिहास की रोचक प्रस्तुति होती है।
 
राजा उदयपुर के सुपुत्र राणा प्रताप बेहद साहसी और शूरवीर थे। अकबर ने जब सारे हिन्दुस्तान को अपने हक में करने की मुहिम छेड़ी, तब राणा प्रताप के पास भी संदेशा आया, मगर उन्होंने किसी के भी आगे घुटने टेकने से साफ इंकार किया। तब अकबर ने मेवाड़ की ओर आधुनिक हथियारों से लैस एक बड़ी सेना भेजी। हालांकि इस युद्ध में अकबर खुद शामिल नहीं हुए।
 
अकबर को शायद ये गुमान था कि राणा प्रताप को उनकी विशाल सेना यूं ही परास्त कर देगी, मगर उनकी ये सोच आगे चलकर इतिहास में निर्णायक मोड़ साबित हुई। अकबर पर यह गर्व कुछ इस वजह से भी चढ़ा होगा कि इसके पहले लड़े गए तकरीबन सारे युद्ध अकबर की सेना के हक में हुए थे।
 
राणा की सेना से अकबर की सेना बीस ही पड़ रही थी। अकबर की सेना में विशाल सैनिकों के अलावा हाथियों का एक विशाल दस्ता था। राणा प्रताप के पास उनका अदम्य साहस एवं राजा पुंजा का साथ था जिनकी सेना गुरिल्ला युद्ध में पारंगत थी।
 
हल्दी घाटी दर्रे से कुछ आगे जाकर एक गुफा पड़ती है। इसी गुफा में राणा प्रताप अपने वफादार साथियों के साथ मिलकर गुप्त मंत्रणा करते थे। आज भी वो जगह ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। अपने जीवन के अंत तक राणा प्रताप ने अकबर के आगे घुटने नहीं टेके।
 
इतिहास से कुछ अलग जाने की सोची तो यह रोचक जानकारी मिली। हल्दी घाटी से वापस उदयपुर आते समय सड़क के दोनों ओर गुलाब के फूलों के अनगिनत पौधे मिले। पता चला कि ये पौधे सालभर फूल देते हैं और इन्हें 'चैत्री गुलाब' कहा जाता हैं। मूलत: ये अप्रैल के महीने में बोए जाते हैं।

हल्दी घाटी के बाद हम लोग सिटी पैलेस की तरफ बढ़े। फतेहसागर झील से मात्र 3 किमी दूर बना सिटी पैलेस। अपार वैभव की स्मरणीय प्रस्तुति। उदयपुर का पूरा इतिहास मानो इसमें सिमट आया हो। प्रवेश फीस 260 एवं 280 रु. क्रमश: रखी गई हैं। चार मंजिला इस पैलेस के ठीक पीछे पिछोला झील दिखाई पड़ती है और दिखाई पड़ता है उदयपुर पैलेस। इन मंजिलों में अपनी-अपनी खासियत लिए कई संग्रहणीय वस्तुएं दर्शनीय हैं, जैसे पहली मंजिल में उदयपुर के इतिहास के बारे में पूरा वर्णन है। एक बड़े फ्रेम में उदयपुर के तब से लेकर अब तक के सारे राजाओं के विषय में जानकारी दी गई है। कहा जाता है कि राजा संग्राम सिंह की कोई औलाद नहीं हुई अत: उन्होंने दत्तक पुत्र को गोद लिया, जो परिवार का ही अंग था।
 
ये पूरा महल 2 हिस्सों में विभाजित है। मर्दाना महल और जनाना महल। मर्दाना महल का एक विशाल हिस्सा उस समय प्रयोग में लाए गए शस्त्रों को समर्पित है। आज की राजपुताना राइफल्स के वंशजों ने ही उदयपुर के इतिहास में अहम भूमिका निभाई, जो अपने शौर्य और वीरता के लिए आज भी जाने जाते हैं। इसका भारतीय सेना में विलय कर लिया गया।
 
मर्दाना महल में एक स्थान ऐसा है जिसमें कुलदेवता का मंदिर है। कहा जाता है कि किसी फकीर ने ये कहा था कि किसी भी युद्ध में जाने से पहले यहां पर माथा टेकने से कभी भी राजा को हार का मुंह नहीं देखना पड़ेगा और होता भी यही था।
 
एक कमरा जो राजा का आरामघर था, आज भी जस-का-तस बना हुआ है। राजा का बिस्तर सुंदर एवं नक्काशीदार बिछोने से ढंका है। पढ़ने की मेज-कुर्सी सब शालीनता से अपनी जगह जमे हुए हैं। कहा यह भी जाता है कि राजा संग्राम सिंह चलने लायक नहीं थे। उस जमाने में वे आज प्रयुक्त होने वाली व्हील चेयर में चला करते थे। उनका स्नानघर तक पाश्चात्य प्रभाव लिए था।
 
चौथी मंजिल तक जाने पर आपको पिछोला झील का विहंगम दृश्य तो दिखेगा, साथ ही सेहन के बीचोबीच फलता-फूलता छोटा-सा बाग भी दिखेगा। उस समय चौथी मंजिल पर इस तरह बाग बनाना भी अपने आप में एक उपलब्धि है।
 
जनाना भाग में कमरे की सुसज्जा की ओर विशेष ध्यान दिया गया था। दीवारें और छत की रंगीन पत्थरों से की गई नक्काशी देखने लायक है।
 
रानी का कमरा भी जस का तस बना है। कहा जाता है कि रानी चूंकि छोटे कद की थी अत: उनका बिस्तर भी उसी आकार का बनाया गया था। बिछौना बहुत ही खुबसूरत नक्काशीदार कपड़े का है। रानी के प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं के अलावा एक वस्तु ने जो सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया, वह था पंखा। आप सोच रहे होंगे कि इसमें अलग क्या? तो ये बताती चलूं कि उस दौरान जब बिजली की व्यवस्था नहीं थी, पंखा चलाने के लिए उसमें तेल डाला जाता था और फिर उसी के भार से इसकी मशीनें चलती थीं। इसमें बिजली या बैटरी जैसी किसी भी चीज का इस्तेमाल नहीं होता था।
 
एक स्थान रसोई के इस्तेमाल के लिए ही था। इसमें उस समय खाना बनाने और खाना खाने दोनों के बर्तन 'डिस्प्ले' किए गए हैं। कहा जाता है कि नवरात्रों में राजा खुद अपने हाथों से अपना खाना बनाते थे और रानी खाना बनाने में हाथ बंटाती थीं।
 
थोड़ा हटकर एक छोटे कमरे में खल-मूसल, हाथ से अनाज पीसने की चक्की, सील-बट्टा रखा है। इसे उस समय की स्त्रियों का 'जिम' भी कह सकते हैं।
 
इसके अलावा तत्कालीन राजा के ससुराल से आने वाली चांदी की बग्गी भी रखी है। कहा जाता है कि इसी बग्गी में रानी पहली बार विदा होकर ससुराल आई थीं। चांदी की बनी कितनी ही वस्तुएं यहां रखी गई हैं। वैभव अपनी पूर्णता में बिखरा है। चांदी का बना हिंडोला भी आपको यहां दिखेगा।
 
एक कमरे में जो रानी के कमरे से सटा था, उसमें लिफ्ट का भी प्रावधान था। उससे ही आगे चलें तो एक कमरे में ऊंचे आसन में राजा और उनकी पटरानी के बैठकर खाने का स्थान बना है। उसके ठीक नीचे अन्य रानियों के खाना खाने की व्यवस्था की जाती थी।
 
बरसात के मौसम में जब सूरज के दर्शन नहीं होते थे, उस समय के लिए दीवार में ही सूरज की बड़ी-सी सोने की बनी आकृति बनाई गई है और राजा और रानी दूर से बैठकर ही इसके दर्शन कर लेते थे।
 
तीसरी मंजिल में एक लंबा और चौड़ा कमरा बनवाया गया था, जहां रंगीन शीशे लगवाए गए थे। यहां से रानियां बैठकर नीचे हो रही गतिविधियां देखती थीं। यहां मोर की पूरी आकृति आपको बारीक शीशे के काम में नजर आएगी।
 
सबसे आखिर में तत्कालीन राजा की बेटी के ब्याह का पूरा मंडप, जो चांदी का बना था, नजर आएगा। यहीं महल में होने वाले हर उत्सव के आयोजन के लिए विशाल प्रांगण बना है। अब इसे किराए पर भी दिया जाने लगा है।
महल का सारा वैभव आत्मसात कर हम महल के बाहर आ गए।
 
उदयपुर का ये सफर तो खत्म  पर हुआ यादों में हमेशा बस जाने के लिए...!

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