मीठा बचपन, गुलाबी हंसी, चहकती किलकारियां... ये मैं किसकी बात कर रही हूं, कौन सा जमाना था वो जब ये हमारी जिंदगी की खूबसूरती को बढ़ाने का अहम हिस्सा हुआ करती थी.. आसिफा, गुड़िया, फलक, ट्विंकल, कठुआ, अलीगढ़, उज्जैन... और निरंतर क्रंदन, कसक, कुत्सित कृत्य और समाज में जुड़ता काला अध्याय...ये है आज का सच... नन्ही कोपलें, ललछोहीं रेशमी किसलय अंकुरिताएं...देखने भर से जो सकुचा कर सिमट जाए.. ऐसी कच्ची कोमल पंखुरियों को कुचलने वाला हमारा आज का समाज और निरंतर उबकाई देते घृणित समाचारों के बीच बेबस से हम... आखिर कब तक? आखिर क्यों? आखिर किस हद तक... कितना बर्दाश्त करें और क्यों करें?
आलम यह है कि कहीं कोई गरीब बाप अपनी बेटी को साइकल पर भी ले जा रहा होता है तो मैं शक्की हो उठती हूं, देर तक घूरती रहती हूं, कहीं कोई गलत तो नहीं होने जा रहा है, क्या इस मासूम को बचाए जाने की जरूरत है? क्या यह सुरक्षित है, क्या यह असुरक्षित है... कितने क्या, क्यों और कैसे मेरे आसपास मंडराते हैं और मैं फिर आगे बढ़ जाती हूं, ये कैसा समाज, परिवेश, मूल्य और संस्कार है मेरे आसपास?
बाहर जब भी गुलाबी कलियों, लाड़लियों को देखती हूं तो भरोसा नहीं कर पा रही हूं उनके ही सगे, गहरे और पावन रिश्तों पर... कैसे-कैसे नरपिशाचों के बीच रहने को बाध्य हैं मेरे देश के नवांकुर... तरुणाई की स्वस्थ और भरपूर फसल की उम्मीद कैसे करें हम जबकि एक कोई घटना का तमाचा हमारे गाल पर पड़ता है और सन्न और सुन्न रह जाता है पूरा का पूरा समाज... कहां से आ रही है इतनी विकृतियां, इतनी कुत्सित सोच, इतना गंदा और गलीज दिमाग... हम जड़ पर प्रहार क्यों नहीं कर पा रहे?
एक सुंदर सुव्यवस्थित समाज की राहों में ये इतने जहरीले कांटे कौन बो रहा है? नशा? इंटरनेट पर बिखरी अश्लील सामग्री? पारिवारिक मूल्यों का निरंतर विघटन, समाज के विचारशील लोगों की चुप्पी? बढ़ते मोबाइल, फैलते वैचारिक प्रदूषण...आखिर कहां पर जाकर हम अपराधी को तय करें और फिर मुक्त हो जाएं अपनी जिम्मेदारी से... खबर दर खबर ये नृशंसताएं कलेजा चीर देती है...मासूम मुस्कुराहटें, खनकती खिलखिलाहटें कब और किनकी वजहों से चीत्कार और चीख बन जाती है... जब तक हम समझ नहीं पाएंगे...ये कुंठाओं का दौर नहीं थम सकेगा...मेरी बच्चियों तुम्हें मैं अपनी बाहों में भर लेना चाहती हूं...ले जाना चाहती हूं उस खुले और सुरक्षित आकाश में मजबूत पंखों के साथ, जहां तुम दूर तक और देर तक उन्मुक्त उड़ान भर सको...।
ये धरती तो तुम्हारे क्या हमारे ही रहने काबिल नहीं बची... हम अपनी ही सामूहिक शर्म के लिए कोना खोज रहे हैं... तुम्हें छुपाने का नहीं खुद को कोसने का बहाना खोज रहे हैं। समाधान के लिए तुम अजन्मी मत रहो, बार बार जन्मों, खूब जन्मों और नवदुर्गा के सहस्र रूपों में जन्मों... नवरात्रि में कन्या पूजन के बजाय उसके सशक्तिकरण पर प्रयास हो पर तुम तो नाजुक फूल की नितांत कच्ची कलियां हो तुम्हारे लिए हम क्या करें सिवाय इस अफसोस के की नाकाम हैं हम अपनी ही बगिया की सुरक्षा करने में... नाकाम हैं हम अपने ही समाज को स्वस्थ और उज्ज्वल चरित्र का बनाने में, हां नाकाम हैं हम तुम्हारे बचपन को बचाने में... अंधी दौड़ में हम भूल गए कि पैरों तले कुछ कुचल रहा है और जो कुचल रहा है वह भी हम हैं जिन्हें कुचला जा रहा है वहां भी हम हैं...फिलवक्त इस रुलाई का भी हक़ खो दिया है हमने...फिर भी कुछ तो कहूं कि आखिर मेरे देश की नाजुक कलियां मसली जा रही हैं और हम सबके दिल फट रहे हैं ...।
शायद ही गुनगुना सकूं किसी नन्ही बच्ची के साथ में यह कविता...
* ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार, हाउ आई वंडर व्हाट यू आर...।