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प्रज्ञा पाठक

जब बात अपनी रूचि या शौक की हो,तो उसे पूर्ण करने के लिए अपनी संपूर्ण क्षमता झोंक देना चाहिए। अलग-अलग लोग, पृथक-पृथक रूचियां।कोई लेखन में सुखी है तो कोई चित्रांकन में। किसी को नृत्य में रस आता है तो किसी को यात्रा में। कोई बागवानी में आनंद पाता है तो कोई योग में।
 
किसी का भाग्य इतना प्रबल होता है कि उसे अपनी रूचि का काम करने के लिए अवसर और साधन भी भरपूर उपलब्ध हो जाते हैं और कोई किस्मत का इतना निर्धन होता है कि इन दोनों से ही वंचित अपना पूरा जीवन दाल-रोटी की चिंता में ही निकल जाता है।
 
यहां ये उपदेश देना समीचीन ना होगा कि अपने परिवार के जीवन-संचालन की चिंता परे रख रुचि को वरीयता देना चाहिए क्योंकि प्राथमिकता सूची में परिवार को सदा प्रथम ही रखना चाहिए। लेकिन एक मार्ग अवश्य संभव है। हम जिस समय को आराम या टी.वी.अथवा मोबाइल में व्यस्त रह कर खो देते हैं, उसका कुछ अंश स्वरुचि को देना चाहिए।
 
बेशक उपर्युक्त सब काम भी करें ,लेकिन थोड़ा समय अपने शौक को देंगे तो आपको अपना आराम और मनोरंजन पूर्ण महसूस होगा। जिस प्रकार हम अपने घर और कार्यस्थल संबंधी सभी दायित्वों के साथ-साथ अनेक बार सामाजिक लोकाचारों(यथा-सगाई,विवाह, जन्मदिन,नामकरण संस्कार ,उपनयन संस्कार आदि) के निर्वाह हेतु भी समय निकालते हैं ,उसी प्रकार अपनी रुचि को जीने के लिए भी कुछ समय सुरक्षित रखा जा सकता है ।

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वस्तुतः अपना मन जिस कार्य को कर प्रसन्नता पाता है ,उसे जीवन की आपाधापी में ना कर पाने की टीस निरंतर कसकती रहती है। 
 
दिल में कुछ दुखता हुआ-सा, चुभता हुआ-सा महसूस होता रहता है।
 
हम जीवन में भौतिक सफलताएं कितनी ही प्राप्त कर लें, लेकिन अपने मन का कार्य न कर पाने पर इन सफलताओं का सुख अधूरा ही रहता है। मेरे विचार से सफलताएं मस्तिष्क को सुख देती हैं, लेकिन मन का सुकून अपनी रुचि को जी लेने में बसा है।
 
समयाभाव का बहाना हम सभी के पास स्थाई रूप से रहता है , लेकिन सच तो यह है कि यदि हम चाहें तो एक व्यवस्थित समय-तालिका बनाकर अपने सभी कार्य पूर्ण करने के साथ-साथ अपने शौक को भी ज़िंदा रख सकते हैं।
 
बेशक महिलाओं को इसमें थोड़ी समस्या आती है क्योंकि उनके दायित्व घर से बाहर तक विस्तारित हैं। इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं उनका परिवार ही स्वरुचि के आड़े आ जाता है। ऐसी परिस्थिति में अधिक समझदारी और थोड़ी सख़्ती से काम लेना चाहिए। समझदारी ,अपने सभी पारिवारिक कार्यों को उचित ढंग से पूर्ण करने की और सख़्ती,अपनी रुचि के क्षणों में परिवार के किसी भी सदस्य के दख़ल न दे पाने की।
 
आप अपने दायित्वों को इस प्रकार पूर्ण करें कि किसी को कोई शिकायत ना हो। फिर बचे हुए समय को अपने आराम और शौक़ में विभाजित कर लें। यदि इस बीच परिवार का कोई विवेकहीन अथवा कुटिल सदस्य (इस शब्दावली के लिए मुझे क्षमा करें लेकिन कई परिवारों में ऐसे व्यक्ति भी होते हैं) आपको बाधा दे, तो उससे शालीनतापूर्ण सख़्ती से निपटें। परिवार की अतिरिक्त अपेक्षाओं को अनदेखा करना भी सीखें। ऐसा करने पर ही जीवन में संतुलन आएगा और आपके शौक ज़िंदा रहकर आप को सुकून दे पाएंगे ।
 
एक अटल सत्य को हम सभी स्मरण रखें कि जो व्यक्ति अपने दायित्वों के साथ अपने मन (रूचि) को भी जीता है वही सच्चे आनंद में रहता है और निश्चित रूप से ऐसा आनंदित व्यक्ति अपने परिवार को भी समग्रतः खुश रख पाता है।
 
तो आइए,आज से न केवल हम सभी अपनी रुचि को जीयें बल्कि अन्यों को भी ऐसा करने में हार्दिक सहायता दें ताकि आनंद एक ही स्तर तक सीमित न रहकर बहुगुणित हो जाए। संभवतः तब हम उस ख़ुशहाल समाज को साकार कर पाएंगे,जो फिलहाल तो कल्पना का ही विषय है।

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