वो अहंकार जिसने आजम का 'गढ़' खत्म कर दिया

विभव देव शुक्‍ला
देश में हुए उपचुनाव की एक ऐसी सीट जहां मुस्लिम- यादव (एमवाई) निर्णायक भूमिका में और दलित अहम भूमिका में। जिस सीट की पहचान समाजवाद के गढ़ के तौर पर होती थी, जिस सीट पर उम्मीदवारी अपने साथ अहंकार लेकर आती है। जहां की सभाओं में बिरहा और बिरादरी का शोर कम नहीं होता है। सीट का नाम है आजमगढ़।

भोजपुरी सिनेमा का नामी चेहरा दिनेश लाल यादव उर्फ़ 'निरहुआ' उत्तर प्रदेश की आजमगढ़ सीट से चुनाव जीत चुके हैं, लेकिन इस जीत की उम्मीद सभी ने नहीं की थी। शायद भाजपा के खेमे में भी बहुत से चेहरे इस जीत के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थे फिर भी आजम अब 'गढ़' नहीं रह गया है। समाजवाद का तो कतई नहीं, इसके बावजूद हर चर्चित चुनावी चेहरे ने अपने अपने हिस्से की लड़ाई बख़ूबी लड़ी। बसपा के शाह आलम उर्फ़ गुड्डू जमाली हों या भाजपा के निरहुआ। यही बात सपा के धर्मेंद्र यादव के साथ उतनी अर्थपूर्ण नहीं है और उसके अपने मजबूत कारण हैं।

भाजपा और निरहुआ ने पूरी ताकत से चुनाव लड़ा, गुड्डू जमाली ने ताकत और पूर्ववर्ती 'गुडविल' से चुनाव लड़ा। धर्मेंद्र यादव के मामले में न तो शक्ति प्रदर्शन (पार्टी की तरफ से भी) था और न ही गुडविल थी। बल्कि आजमगढ़ की सीट का उपचुनाव शुरू ही इस बिंदु पर होता है। धर्मेंद्र यादव पर दो तोहमतों का बोझ चुनाव प्रचार के समय से ही था, पहला वह भोजपुरी भाषा नहीं समझते और दूसरा भाषा नहीं समझते तो जनता का मिजाज़ क्या समझेंगे? इन दोनों बातों का संयुक्त अर्थ हुआ कि आजमगढ़ में धर्मेंद्र यादव पर 'बाहरी' का तमगा पूरी चुनावी कसरत में हट नहीं पाया। निरहुआ भी आजमगढ़ के लिए बाहरी ही थे, लेकिन भाषा उनके मामले में सकारात्मक पहलू था। बल्कि निरहुआ ने कई बार चुनाव के दौरान 'भोजपुरी प्राइड' को हवा दी और लोग भावुक भी हुए, बहुत तो नहीं पर हुए। जितनी बार उनकी भोजपुरी इंडस्ट्री का हवाला देकर उन पर तंज किए जाते उतनी बार निरहुआ ने पूरे चुनाव को 'भोजपुरिया समाज की लड़ाई' बता दिया।

यानी इस चुनाव में इकलौता स्थानीय और दिग्गज चेहरा गुड्डू जमाली थे। न तो उनके साथ भाषाई समस्या थी और न ही बाहरी होने की पीड़ा, वह जनता के शुरुआती पैमानों पर बराबर खरे उतरते थे। गुड्डू जमाली को मिला वोट प्रतिशत एक और बात साफ करता है कि भले ही उपचुनाव था पर इसमें मुस्लिमों के पास विकल्प था। बसपा ने आजमगढ़ की जनता के बीच एक मजबूत चेहरा उतारा लिहाज़ा सपा को मिलने वाला मुस्लिम वोट प्रतिशत कम हुआ। इसका एक और अर्थ है कि बेहतर विकल्प होने की स्थिति में मुस्लिम वर्ग सपा का परंपरागत वोट बैंक नहीं कहा जा सकता है। इस चुनाव में सपा के राजनीतिक अहित का दायरा बढ़ाने वाले और भी कई कारण थे मसलन शिवपाल यादव और आज़म खान सरीखे दिग्गज चेहरों की अनदेखी।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2012 में सपा को बहुमत मिला था, सामाजिक और राजनीतिक विमर्शों में शोर यही था कि नए/युवा चेहरे के नाम पर मतदान हुआ। चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश की मुख्यमंत्री उम्मीदवारी भी साफ हो चुकी थी, लेकिन इन सब के बीच एक बात पर जनता का ध्यान कम गया। मुलायम सिंह यादव जनसभाओं में अक्सर यह कहते सुने गए, ‘शिवपाल के बिना जीत संभव नहीं थी, शिवपाल ने बहुत मेहनत रही, सभी को लेकर चला।‘

मुलायम सिंह की निगाह में इतनी अहमियत रखने वाले शिवपाल कायदे से न तो 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में नज़र आए और न 2022 लोकसभा उपचुनाव में। वही स्थिति रही आज़म खान की, गिनी चुकी जनसभाओं को हटा दिया जाए तो ऐसी तस्वीरें खोजना कठिन है जिनमें शिवपाल- अखिलेश और आज़म- अखिलेश एक मंच पर मन से मुस्कराते नज़र आएं।

आज़मगढ़ को तकनीकी भाषा में अभी के लिए 'पॉलिटिकल लेबोरेट्री' कहना गलत नहीं होगा। एक ऐसी लेबोरेट्री जिसमें जानकारों और तजुर्बेकारों का दख़ल पहले होना चाहिए। दख़ल न होने की वजह से संभवतः धर्मेंद्र और अखिलेश में वैसी निकटता नहीं नज़र आई जैसी निरहुआ और योगी आदित्यनाथ में नज़र आई। प्रदेश संगठन में निरहुआ का कद क्या और कितना है, यह अलग विषय है लेकिन जनसभाओं में मंचों पर नेताओं का संख्याबल कम न हुआ। ज़रूरत पड़ी तब खुद योगी आदित्यनाथ खुद ने मोर्चा संभाला। वहीं धर्मेंद्र यादव के चुनावी मंचों पर नेता नज़र तो आए पर संख्या उतनी न रही। नेता भी कई नज़र आए पर जिसकी आशा और आवश्यकता (अखिलेश) सबसे अधिक थी उनकी मौजूदगी होकर भी नहीं के बराबर थी। यह बात धर्मेंद्र यादव से ज़्यादा सपा के ज़मीनी कार्यकर्ताओं का मन दुखाने वाली होगी कि जहाँ अखिलेश यादव की मौजूदगी हर क्षण महसूस हुई चाहिए थी वहाँ उनके मुखिया गिने चुने मौकों पर नज़र आए।

अखिलेश यादव के संबंध में इन सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात, समाजवादी विचारधारा के अगुवा, तमाम युवाओं के कथित आदर्श, अखिलेश यादव का अहंकार। यह बात चुनाव से पहले शायद ही कोई स्वीकारता पर अब अच्छे अच्छों को स्वीकारनी पड़ेगी यहां तक कि खुद समाजवादी चिंतकों को भी। पत्रकारों को जवाब देने का तरीका (बिके हुए पत्रकार), चुनावी मंचों पर भाषण के दौरान भाषा शैली (कुंडा में कुंडी), सदन के भीतर बात रखने का तरीका (तुम अपने पिता जी से पैसे लाते हो ये सब/सड़क बनाने के लिए)।

इसके अलावा अनेक दृष्टांत हैं, जिनमें अखिलेश यादव अपनी विनम्रता की प्रत्यंचा चढ़ाते देखे जा सकते हैं। जबकि बड़े सियासी घराओं से आने वाले युवराजों को विशेष ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे बयान, ऐसी बातें चुनाव हराने में निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं। कुल मिला कर आजमगढ़ का चुनाव भी उत्तर प्रदेश का परंपरागत चुनाव साबित हुआ जहाँ हर प्रकार के आकलन धरे के धरे रह जाते हैं। जातीय समीकरण, ध्रुवीकरण, वोट बैंक, पिछड़ा, अल्पसंख्यक, सवर्ण, दलित जैसे शब्द सुनाई तो कई बार देते हैं पर इनकी कोई विशेष गंभीरता नहीं रहती है। पार्टियां बड़े बड़े माइक लगा कर भले कितना शोर कर लें, ‘चुनाव जनता का है।‘ असल मायनों चुनाव बड़े बड़े दलों, उनके दिग्गज चेहरों, चेहरों के काफ़िलों और हवाई बयानबाजी का है।

नोट :  आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्‍यक्‍त विचारों से सरोकार नहीं है।

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