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अब असली मीडिया यही है, जो दिख रहा है वही पढ़ना भी है?

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श्रवण गर्ग

, शुक्रवार, 28 अगस्त 2020 (11:49 IST)
संकट की इस घड़ी में हम मीडिया के लोग अपने ही आईनों में अपने ही हर घड़ी बदलते हुए नक़ली चेहरों को देख रहे हैं। ये लोग किसी एक क्षण अपनी उपलब्धियों पर ताल और तालियां ठोकते हैं और अगले ही पल छातियां पीटते हुए नज़र आते हैं! इस पर अब कोई विवाद नहीं रहा है कि मीडिया चाहे तो देश को किसी भी अनचाहे युद्ध के लिए तैयार कर सकता है या फिर किसी समुदाय विशेष के प्रति प्रायोजित तरीक़े से नफ़रत भी फ़ेला सकता है। किसी अपराधी को स्वच्छ छवि के साथ प्रस्तुत कर सकता है और चाहे तो निरपराधियों को मुजरिम बनवा सकता है। मुंबई की अदालत का ताज़ा फ़ैसला गवाह है।

मीडिया की इस विशेषज्ञता को लेकर विदेशों में किताबें/उपन्यास लिखे जा चुके हैं जिनमें बताया गया है कि प्रतिस्पर्धियों से मुक़ाबले के लिए बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों के द्वारा किस तरह से अपराध की घटनाएं स्वयं के द्वारा प्रायोजित कर उन्हें अपनी एक्सक्लूसिव ख़बरों के तौर पर पेश किया जाता है।

ताज़ा संदर्भ एक फ़िल्मी नायक की मौत को लेकर है। चैनलों के कुछ दस्ते युद्ध जैसी तैयारी के साथ नायक की महिला मित्र और कथित प्रेमिका को उसकी मौत के पीछे की मुख्य ‘खलनायिका’ घोषित करने का तय करके सुबूत जुटाने में जुट जाते हैं। कोई ढाई महीनों तक वे इस काम में लगे रहते हैं। अपनी समूची पत्रकारिता की कथित ईमानदारी को दांव पर लगा देते हैं।

देश के चौबीस करोड़ दर्शक उनके कहे पर यक़ीन करने लगते हैं। अचानक से उन्हीं चैनलों में किन्हीं एक-दो के ‘अब तक' मौन चेहरों का ज़मीर या तो स्वयं जागता है या फिर जगवाया जाता है। उसके बाद एक झटके में ही ‘खलनायिका’ ही ‘विक्टिम’ और ‘नायिका’ घोषित हो जाती है। करोड़ों दर्शक अपने आप को ठगा हुआ मानकर सिर पीटने लगते हैं। कुछ आत्मग्लानि से अपने ही कपड़े भी फाड़ने लगते हैं।
मीडिया वही है पर घटनाक्रम के क्लायमेक्स पर पहुंचने के ठीक पहले वह अब दोनों ही तरफ़ की एक्सक्लूसिव ख़बरें दर्शकों को परोसेगा और दोनों ही पक्षों की सहानुभूति भी बटोरेगा। दर्शक कभी समझ ही नहीं पाएगा कि मीडिया उसके ही द्वारा बिना किसी मुक़दमे के अब तक आरोपी और खलनायिका घोषित की जा चुकी और अब ‘विक्टिम’ स्थापित की जा रही महिला की विश्वसनीयता के लिए काम कर रहा है या स्वयं की विश्वसनीयता को बचाने में जुट गया है।

दर्शक यह भी नहीं समझ पाएंगे कि इनमें अपने पेशे के प्रति ईमानदार कौन हैं और कौन बेईमान? आरुषि हत्याकांड के मीडिया कवरेज को याद किया जा सकता है। मीडिया की असली ताक़त को तो वही समझ सकता है जो सत्ता में रहता है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

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