Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

राज, समाज की बाजार निष्ठा ने जीवन और अखबारों को व्यावसायिक उत्पाद बना डाला!

हमें फॉलो करें राज, समाज की बाजार निष्ठा ने जीवन और अखबारों को व्यावसायिक उत्पाद बना डाला!
webdunia

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

भारतीय समाज के रूप-स्वरूप और सोच-व्यवहार में पिछले 100-150 सालों में जमीन-आसमान का अंतर आया है। जैसे समाज बदला वैसे अखबार भी बदला। आजादी आए 75 साल हो गए और आजादी से पहले के 75 सालों से आजादी के बाद के 75 सालों में सबकुछ बदल गया सारे संदर्भ और निजी व सार्वजनिक जीवन के सारे सरोकार ही बदल गए।

गुलाम भारत यानी अंग्रेजी राज की पत्रकारिता, पत्रकार, पाठक तथा राज और समाज का रूप-रंग ही नहीं, समूची तासीर ही बदल गई। आजादी के पहले की पत्रकारिता गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने का आजीवन संघर्ष था। आज की पत्रकारिता बाजार की चकाचौंध में बिकने वाली कलमकारी बन गई है। आपकी लेखनी कमाल की है यह आज पत्रकारिता का मापदंड न होकर आप विज्ञापन जुटाने में क्या और कितना कर सकते हैं, यह आपकी पत्रकारिता का मुख्य मापदंड बन गया है।

आप क्या और कैसे लिख-पढ़ सकते हैं यह आज की पत्रकारिता में मायने नहीं रखता, पर बाजार और राज्य से आप कैसे संसाधन जुटा सकते हैं। यह पत्रकारिता में सफलता का पहला सूत्र हो गया। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बाजार निष्ठा ने पाठक और दर्शक की भूमिका और हैसियत को ही बदल डाला है। जब राज ही बाजार की चाकरी में लग गया तो लेखक, पत्रकार बाजार में खड़े होने से क्योंकर परहेज करें?

दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव सूचना प्रौद्योगिकी के कारण देखने को मिला। अब हर पल खबरें आपके मोबाइल पर आती रहती हैं। दूरदर्शन पर, खबरिया चैनलों पर हर खबर ब्रेकिंग न्यूज के विशेषण के साथ हर समय हमारे सामने आती रहती है। इस कारण भी प्रातःकाल और सायंकाल के अखबारों की जिज्ञासा पूर्ण प्रतीक्षा पाठकों के मन में रहती थी, वह पूरी तरह लुप्त होती जा रही है। साथ ही खबरों के चौबीसों घंटों, बारहों महीने प्रसारण होते रहने से खबरें सुनने-देखने की जरूरत ही मन में महसूस ही नहीं होती है।

इस कारण पाठक और दर्शक खबरें और लेखन की चर्चा ही नहीं करते हैं क्योंकि खबरें और लेखन हर कहीं और हर किसी के पास हर समय उपलब्ध हैं। एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि सूचना प्रौद्योगिकी के वैश्विक ढांचे के कारण आपका लिखा-बोला दुनिया में कहीं भी कोई भी देख-सुन-पढ़ सकता है पर आपको पता नहीं होता कि आपका पाठक-दर्शक कौन और कहां है?

दकियानूसी सोच से लेकर प्रगतिशील या सांप्रदायिक सोच तक या उससे भी आगे वैकल्पिक पत्रकारिता तक सभी बाजारवाद के कारिंदे हो गए। अब हर कोई पाठक या दर्शक से हाथ जोड़कर यही निवेदन करते हैं कि उनको सब्सक्राइब न किया हो तो कृपया तत्काल सब्सक्राइब करें ताकि आप तो हम पर आर्थिक मेहरबानी करने से रहे, पर बाजार हमें निरंतर विज्ञापन देता रहे।

ऐसी कामना या याचना करना सूचना प्रौद्योगिकीजन्य पत्रकारिता का घोष वाक्य बन गया। ले-दे के लेखक-पत्रकार अखबार का समूचा तंत्र और देश-समाज की समूची सोच बाजार केन्द्रित हो गई है। तो फिर प्रेस की स्वाधीनता और लेखन या पत्रकारिता की शुचिता का रोना-धोना या हल्ला-गुल्ला क्यों करें? जैसे बाजार की संकल्पना ही खरीदने-बेचने की विशेष उपलब्धि हासिल करने में निहित है वैसे ही अख़बार विचार लेखन सब बाजार के उत्पादों में बदल गए तो अचंभा और क्लेश क्यों?

जब हम सबने आज की आधुनिक दुनिया में ज़िन्दगी को ही बाजार या व्यवसाय बना लिया तो अपने किए-धरे पर रोना-धोना क्यों? जब हम सब सर्वप्रभुतासम्पन्न लोकतांत्रिक समाजवादी गणराज्य के स्वतंत्र चेता नागरिक के बजाय मुक्त व्यापार की विश्व व्यवस्था के उपभोक्तामात्र बनने को सहर्ष राजी हैं तो फिर लेखक, पत्रकार, अखबार और प्रेस की स्वाधीनता का शोर क्यों?

आलू-प्याज कभी यह तय नहीं कर सकते कि उनकी सब्जी कैसी बनाई जाए? खरीददार की मर्जी होगी तो सब्जी बनेगी नहीं तो पड़े-पड़े सड़ जाना भी बाजार की मर्जी ही मानी जाएगी। बाज़ार इतना विशाल है कि उसे बनी-बनाई पर बिना बिकी सब्जियों को कूड़ेदान में फेंककर या बिना बिकी सब्जियों की सेल लगाकर बेचने में भी परेशानी नहीं होती, क्योंकि वहां भी लोभी-लालची चेतनाहीन खरीदारों की भारी भीड़ बाजार को बढ़ावा ही देने में प्राणप्रण से लगी ही रहती है।

सूचना प्रौद्योगिकी के इस आधुनिक काल की यह तो शुरुआत है। इसके कौनसे नए आयाम हम देखेंगे, यह भविष्य के गर्भ में छुपा हुआ है। पर कई सारी बातें एकाएक बदल गई हैं और बदल रही हैं। जैसे पहले राज्य, समाज, सरकार, बाजार यानी पैसे और सत्ता की ताकत ख़बरों को पाठकों या दर्शकों तक पहुंचने से रोक सकते थे, पर अब ऐसी तकनीक हमारे हाथों आ गई हैं कि पाठक या दर्शक सर्वाधिकार सम्पन्न हो गया है।

दूरदर्शन पर प्रसारित किसी चैनल या मोबाइल पर प्रसारित लिखा या छपा या वीडियो हम चाहें तो देखें, पढ़ें या रिमोट कंट्रोल से बदलकर आगे बढ़ें या तत्काल प्रभाव से सामग्री डिलीट करने हेतु स्वतंत्र हैं। पर हम इसका विवेकपूर्ण तरीके से इस आसान तकनीक का इस्तेमाल करने के बजाय स्क्रीन से चिपके रहने के आदी हो चुके हैं और अनर्गल बातों का अंतहीन प्रलाप कर अपने आपको स्वैच्छिक यंत्रवत जीवन में बदल रहे हैं और जानते-बूझते अनजान बने हुए हैं।

क्या-क्या देखना-सुनना यह तय करने और निजी और सार्वजनिक जीवन में स्वयंस्फूर्त चेतना से ओतप्रोत बने रहने के बजाय हम सब मनुष्य समाज को जड़ और यांत्रिक जीवन का अंधानुकरण करने का आदी बनाकर अनर्गल अस्त व्यस्तता को ही जीवन समझने लगे हैं। विवेकपूर्ण चिंतन, मनन, लेखन और सृजन करने के लिए किसी आदेश और अनुमति की जरूरत नहीं है। आप ही अपनी मर्जी के मालिक हैं।

प्रिंट मीडिया ने अपने जीवनकाल में कई बार राज्य सरकार की सेंसरशिप का सामना किया। बाजारवादी व्यवस्था में खबरें भुगतान करने वाले की शर्तों पर प्रचारित-प्रसारित या प्रतिबंधित करने की शैली भी बाजार में उपलब्ध हो गई। विज्ञापन पैसे देकर उसे खबर का कलेवर देकर प्रसारित-प्रकाशित करने का चलन भी बाजार में उपलब्ध हुआ। बाजार की जरूरत ने सेंसरशिप को भी बाजार का उत्पादन बना दिया।

अब सवाल यह है कि क्या आज के सूचना प्रौद्योगिकी के काल में जो प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है उसे गुलामी के दौर में स्वाधीनता संग्राम की स्वचेतना से ओतप्रोत पत्रकारिता से तुलना की जा सकती हैं? तब सबकुछ न्यौछावर कर आजादी पाने का जूनून था और आज कैसे भी और किसी भी प्रकार से सबकुछ खरीदने-बेचने के अंतहीन गुलामी के सिलसिले में खो जाने की नियति में विलीन होने का आजीवन यंत्रवत क्रम हम सब क्यों अपनाते जा रहे हैं?

गुलामी के दौर में जीवन और जीवनी शक्ति का रोमांच था। आज पचहत्तर साल की लोकतांत्रिक आजादी में हम निर्जीव वस्तुओं के आदान-प्रदान और अंतहीन लोभ-लालच के अवसर की प्रतीक्षा या निरंतर तलाश वाली जीवन यात्रा के दीवाने होकर मानवीय मूल्यों को बाजार में बेचते रहने को लालायित क्यों हैं? यह आधुनिक बाजार के स्वतंत्र चेता नागरिक से खुला सवाल है कि आजाद देश का नागरिक बिना किसी भी प्रतिरोध के वैश्विक बाजार का उपभोक्ता बनकर क्यों जीते रहने को तैयार है?

कालक्रम में विकसित तकनीक और पूंजी केन्द्रित सूचना प्रौद्योगिकी ने दुनियाभर में ख़बरों के प्रसारण प्रकाशन की तकनीक में जो बदलाव किया है, उससे व्यक्ति, समाज, राज और बाजार की सीमा रेखा और मान-मर्यादा के साथ ही मौलिकता की सीमाएं आपस में एक-दूसरे में इस कदर समा गई हैं कि हमारा नीरक्षीर विवेक ही लुप्तप्राय: हो गया है।

हम सब तकनीक और यंत्र की कठपुतली बनकर रह गए हैं। यंत्रवत लेखन, चिंतन, मनन और सृजन मनुष्य समाज को जड़ता पूर्ण यांत्रिक स्वरूप में ले जाकर एक ऐसी दुनिया में बदल रहा है जो जैविक रूप में तो चेतन है पर अपनी विशाल वैचारिक विरासत को जड़ता में तेजी से विस्तारित कर रही है। तभी तो पत्रकारिता ही नहीं हमारा जीवन ही व्यापार बन गया है। हम सचेत नागरिक के बजाय भावहीन उपभोक्ताओं के महासागर में दिन-प्रतिदिन बदलते जा रहे हैं।(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

मेहंदी का रंग कैसे गाढ़ा हो, जानिए सरल उपाय