# माय हैशटैग
सोशल मीडिया की खबरों को बिना पुष्टि के जारी कर देना बीबीसी को भारी पड़ गया, जब एक पैरोडी अकाउंट पर आधारित सूचना को बीबीसी ने समाचार के रूप में प्रसारित कर दिया। बुधवार की सुबह बीबीसी ने एक पैरोडी अकाउंट की सूचना पर खबर बना दी, जो उसकी प्रतिष्ठा के लिए भारी पड़ी। टि्वटर पर कई लोग अपना या दूसरे का पैरोडी अकाउंट बनाते हैं, जिसका उद्देश्य होता है, मनोरंजन करना। कई बार ऐसे पैरोडी अकाउंट्स का उपयोग शरारत करने के लिए भी होता है।
बीते बुधवार 15 नवंबर की सुबह अफ्रीकी देश जिम्बाव्वे में सेना ने 93 साल के राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे को सत्ता से हटाकर नजरबंद कर दिया। बिना रक्तपात के हुआ यह बदलाव बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि जिम्बाब्वे की राजनीति में इससे भारी उथल-पुथल मच गई। 93 साल के मुगाबे अगला राष्ट्रपति चुनाव भी लड़ना चाहते थे। 41 साल छोटी उनकी पत्नी ग्रेसी भी राष्ट्रपति बनने की इच्छुक थीं। ग्रेसी मुगाबे की उत्तराधिकारी बने, इसके पहले ही सेना ने तख्ता पलट दिया। यह सब इतना शांतिपूर्ण और गोपनीय तरीके से हुआ कि किसी को भनक तक नहीं लगी।
सोशल मीडिया की पोस्ट ने इसमें भारी अफवाहें फैलाने की भूमिका निभाई। लोगों ने रक्तपात के संदेश पोस्ट किए। किसी ने शूटर के फोटो लगाए और किसी ने दूसरे शूटर्स की तस्वीरें पोस्ट कीं, जो सेना की वर्दी में थे। कुल मिलाकर सूचनाओं की भारी गड़बड़ियां रहीं। न राजनीतिक दलों को पता था कि क्या होने वाला है और न ही वहां के प्रशासन में बैठे लोगों को। फोटोशॉप किए हुए फोटो सोशल मीडिया पर दनादन पोस्ट हुए और बीबीसी ने अपने जिम्बाव्बे कवरेज में झानू के अकाउंट का जिक्र समाचार की तरह कर दिया। जबकि वह एक पैरोडी अकाउंट था और उसमें लिखी बातें सच नहीं थीं।
लोगों ने जिम्बाब्वे की सरकारी टेलीफोन सेवा एमटीएन को फोन करके स्थिति जाननी चाही, लेकिन एमटीएन से भी कोई सही जवाब नहीं मिला। इससे नाराज लोगों ने एमटीएन को भी सोशल मीडिया के निशाने पर लिया। राजनीतिक पार्टियों ने भी सोशल मीडिया के इन पैरोडी अकाउंट्स के भरोसे प्रेस नोट जारी कर दिए।
मजेदार बात यह है कि जिम्बाब्वे की अधिकृत सत्तारुढ़ पार्टी के पैरोडी अकाउंट में भी यह लिख दिया गया है कि यह सत्तारुढ़ पार्टी का आधिकारिक अकाउंट है। कायदे से पैरोडी अकाउंट में ऐसा नहीं लिखा जा सकता, वहां साफ-साफ लिखा जाता है कि यह पैरोडी अकाउंट है। टि्वटर ऐसे किसी पैरोडी अकाउंट को मान्यता नहीं देता, चाहे वह अकाउंट सही व्यक्ति द्वारा ही क्यों न बनाया गया हो।
पहले कभी दक्षिण रोडेशिया, फिर रोडेशिया और फिर रोडेशिया गणराज्य के नाम से पहचाना जाने वाला जिम्बाब्वे करीब डेढ़ करोड़ की आबादी वाला अफ्रीकी देश है। यहां मीडिया की स्वतंत्रता सीमित है और विदेशी मीडिया के लिए वहां कोई जगह नहीं है। जिम्बाब्वे में हमारे दूरदर्शन की तरह ही जिम्बाब्वे नेशनल टीवी ब्रॉडकास्टर नामक चैनल है, जो पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में है।
तख्ता पलट के बाद बुधवार की रात तक जिम्बाव्वे टीवी पर इसकी कोई घोषणा नहीं की गई। बुधवार की रात को जिम्बाब्वे टीवी पर सेना के एक प्रवक्ता ने कहा कि सेना ने जिम्बाब्वे में सरकार अपने कब्जे में ले ली है। इस घोषणा के बाद ही लोगों को पता चला कि असलियत क्या है? सेना ने साफ कहा कि उसके तख्ता पलट में कोई खून-खराबा नहीं हुआ।
इस दौरान जिम्बाब्वे की सत्तारुढ़ पार्टी का सोशल मीडिया अकाउंट भी गतिविधि से दूर रहा। इससे भी अफवाहों को बल मिला। जिम्बाब्वे में पत्रकारों के संगठन द्वारा चलाए जा रहे न्यूज डे के पास भी समाचारों का टोटा रहा। कुल मिलाकर समाचारों के अकाल के वक्त सोशल मीडिया ही लोगों के लिए सूचनाओं का स्त्रोत था, जिसे जिम्बाब्वे के बाहर से भी संचालित किया जा रहा है।
अभी भी सोशल मीडिया पर जिम्बाब्वे मूल के लोगों के संदेश आ रहे हैं कि जिम्बाब्वे के लोग एक साथ आए और शांतिपूर्ण बदलाव के लिए कार्य करें। लोगों से हिंसा से दूर रहने और कानून हाथ में न लेने की अपील भी की गई है। अफवाहों से दूर रहने की बात भी कही जा रही है।
जर्मन समाचार सेवा डोयचे वेले के दो संवाददाताओं ने स्थानीय रेडियो स्टेशन पर एक कार्यक्रम में यह बात कही कि बुधवार को उन्हें कुछ सैनिकों ने प्रेस निमंत्रण के बहाने बुलाया और आर्मी बैरक में बंद करके पीटा। एक सप्ताह पहले ही एक अमेरिकी पत्रकार मार्था ओ’दोनोवान को गिरफ्तार किया गया था।
आरोप है कि उन्होंने एक ट्वीट में राष्ट्रपति मुगाबे की बेइज्जती की थी। जिम्बाब्वे की राजधानी हरारे से कई पत्रकार यू-ट्यूब और फेसबुक पर अपना चैनल भी चलाते हैं और दुनिया को सूचनाएं और समाचार देते रहते हैं। जिम्बाब्वे की हालत आर्थिक रूप से बहुत बदतर हो गई है और वहां मुद्रास्फीति की दर 50 प्रतिशत महीने तक हो गई है, जिसका अर्थ है महंगाई पर किसी का नियंत्रण नहीं बचा है। जिम्बाब्वे का विदेशी मुद्रा कोष भी गंभीर संकट में है।
पूर्ण सेंसरशिप की स्थिति में भी सोशल मीडिया किसी न किसी बहाने लोगों की अभिव्यक्ति का साधन तो बन ही जाता है। कई बार सोशल मीडिया पर बातें इशारों-इशारों में कही जाती हैं, उन्हें इशारा ही समझना चाहिए, पूर्ण समाचार नहीं। बीबीसी और अन्य माध्यमों में सोशल मीडिया के उपयोग में की गई जल्दबाजी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त है।