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काबिल-ए-तारीफ है सियासत में यह सादगी!

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राजीव रंजन तिवारी

देश किस दौर से गुजर रहा है? इस सवाल का जवाब कुछ भी देना खतरा से खाली नहीं है। 9 नवंबर 2016 से हर कोई औंधे मुंह दौड़ रहा है। सबका एक ही मुकाम और मंजिल है बैंक। सारे काम छोड़कर बैंकों की लाइन में लगना एक बड़ा काम माना जा रहा है। दैनिक खर्च के लिए घर में रखे 2-4 हजार के नोट यदि नहीं बदले गए तो घर खर्च कैसे चलेगा? यह सवाल सबको परेशान कर रहा है। परेशान करे भी क्यों ना, देश की आम जनता तो हतप्रभ है ही सरकार की इस नोटबंदी से। खास बात यह है कि भले सरकार ने तमाम व्यवस्थाएं कर रखी हों, पर आम जनता की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। बैंक और एटीएम खुलते ही लंबी लाइन लग जा रही है। 
 
 
अफसोसजनक है कि सत्ताधारी दल का कोई भी नेता-कार्यकर्ता इस परेशान-हाल आम जनता के प्रति सहानुभूति दिखाने का प्रयास करता नहीं दिख रहा है। इसी क्रम में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उस वक्त लोगों को चौंका दिया, जब वे नई दिल्ली के संसद मार्ग स्थित भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की शाखा में पहुंचे और आम लोगों की तरह कतार में खड़े होकर 500 और 1,000 रुपए के अपने पुराने नोट बदलवाए।
 
उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर भी निशाना साधते हुए कहा कि उन्हें यह बात समझ में नहीं आएगी कि केंद्र सरकार के नोटबंदी वाले इस कदम के कारण लोगों को कितनी तकलीफों का सामना करना पड़ रहा है। राहुल ने कहा कि सरकार गरीबों के लिए होनी चाहिए, सिर्फ 15-20 लोगों के लिए नहीं। कहा कि वे कतार में इसलिए खड़े हैं, क्योंकि लोग अपने 500 और 1,000 रुपए के नोट बदलवाने में दिक्कतों का सामना कर रहे हैं।
 
बैंक में नोट बदलवाने के लिए लाइन में लगने वाले राहुल गांधी की इस सादगी को पूरा देश सकारात्मक अंदाज में देख रहा है। सवाल है कि इस बदलते राजनीतिक परिदृश्य में नेताओं के पास आम जनता के लिए सादगी भी बची है क्या? राहुल गांधी ने अपने व्यवहार से यह बता दिया कि उनकी गांधीवादी विचारधारा इस आधुनिक राजनीतिक माहौल में भी पूर्ववत कायम है।
 
बैंक की लाइन में लगे राहुल गांधी ने पत्रकारों से कहा कि इस कतार में कोई करोड़पति नहीं है। गरीब लोग कई घंटों से कतार में खड़े हैं। लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है इसलिए मैं उनके साथ खड़े होने आया हूं। मेरे लोगों को दर्द हो रहा है। मैं उनके दर्द को देखकर यहां लाइन में खड़ा हूं। मैं यहां 4,000 रुपए के पुराने नोट जमाकर नए नोट लेने आया हूं। इस बात को प्रधानमंत्री नहीं समझ पाएंगे कि आम जनता का दर्द क्या होता है? उन्होंने कतार में खड़े लोगों से बात की और उनकी मुश्किलें सुनीं। यहां भारी संख्या में लोगों ने राहुल गांधी के साथ सेल्फी भी ली। कई लोग राहुल की एक झलक पाने की कोशिश कर रहे थे। बैंक के भी कई कर्मियों को राहुल के साथ तस्वीरें खिंचवाते देखा गया।
 
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि राहुल गांधी की इस सादगी पर सत्ताधारी दल के लोग चुटकी लेने से नहीं चुके। सोशल साइट्स पर मजाक उड़ाने वालों को यह नहीं पता कि आम जनता कितना दर्द झेल रही है? यदि सियासत में सादगी की लकीर को चटख करने के लिए राहुल गांधी ने आगे बढ़कर कदम उठाया तो इसकी तारीफ होनी चाहिए। ट्विटर पर कुछ लोगों ने कहा कि मोदी ने राहुल गांधी को सड़क पर ला दिया। वैसे लोगों को यह समझना चाहिए कि राहुल गांधी ही नहीं, बल्कि पूरा देश इस वक्त सड़क पर है। कोई नोट बदलने के लिए लाइन लगा रहा है तो कोई नमक खरीदने के लिए।
 
वैसे सियासत में सादगी के मिसाल बहुत कम ही देखने को मिलती है, पर जिसने भी यह मिसाल कायम करने की कोशिश की, वह छा गया। चाहे वे किसी भी दल के नेता क्यों न हों। पर अफसोस कि आधुनिक युग की इस सियासत में नेताओं के अंदर सादगी दिखाने का साहस नहीं है। नेताओं में हिम्मत नहीं है कि वे सादगी का प्रतीक बनकर आम जनता के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकें। तानाशाहों की भांति व्यवहार करने वाले नेताओं को यह डर सताता रहता है कि जनता के बीच जाने का मतलब जनता के सवालों से जूझना, जो संभव नहीं है। 
 
केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने से पहले जनवरी 2014 का वाकया याद आ रहा है जिसमें राजस्थान सरकार सादगीभरे फैसलों को लेकर चर्चा में थी। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को भले महारानी कहा जाता हो, लेकिन तब उन्होंने सादगी और किफायत की सियासत करने का फैसला किया था। दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपनी सुरक्षा को आधा कर दिया था। वे जब सफर पर निकलती थीं या जयपुर में कहीं जाती थीं तो कारों का लंबा-चौड़ा काफिला उनके साथ नहीं होता। 
 
उन्होंने अपने पुराने बंगले में रहने और मुख्यमंत्री आवास न जाने का फैसला किया था और मंत्रियों-अफसरों को भी सादगी पेश करने को कहा था। तब प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री राजेंद्र सिंह राठौर का कहा था कि मुख्यमंत्री के ये फैसले किसी से प्रभावित नहीं हैं। हम तो शुरू से ही सादगी का परिचय दे रहे हैं। 
 
लेकिन हकीकत कुछ और ही है। यदि आज की बात करें तो राजस्थान समेत सभी भाजपा सरकारें कथित रूप से हवा में ही उड़ रही हैं। भाजपा की राज्य सरकारों को शायद इस बात का गुमान है कि केंद्र में बैठी मोदी सरकार उनकी गलतियों को भी सुधारती रहेगी, लेकिन उन्हें यह पता नहीं कि उनके क्रिया-कलाप को सत्ता से दूर बैठी जनता भी देख रही है।
 
सियासत में सादगी कोई नई चीज नहीं है। यह कभी इसकी खास पहचान होती थी, जो अब खोती जा रही है। आजादी के बाद से अब तक भारतीय सियासी हलकों में कई राजनेता ऐसे हुए जिनको आज भी उनकी ईमानदारी सादगी की वजह से जाना जाता है। अक्सर पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और सीपीएम नेता रहे बुद्धदेब भट्टाचार्य की चर्चा होती रहती है। 
 
बताते हैं कि उनका भी जीवन सादगी में बीता है। उनके पास न तो अपना कोई मकान है और न ही कोई गाड़ी। वे अपनी पत्नी और बेटी के साथ एक सरकारी फ्लैट में रहे। वर्ष 2000 से 2011 तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे भट्टाचार्य के पास चल और अचल संपति भी ज्यादा नहीं है।
 
पार्टी के एक कार्यकर्ता के मुताबिक वे अपने पास पैसे नहीं रखते हैं। अपने सिर के बाल भी पार्टी कार्यालय के बाहर मौजूद एक सैलून में कटवाते थे। 2011 में चुनाव के लिए पर्चा दाखिल करते समय उनके हलफनामे के मुताबिक उनके पास सिर्फ 5,000 रुपए नकद थे। इसी तरह गुरुदास गुप्ता, इन्द्रजीत गुप्त जैसे राजनेता भी सादगी की राह पर ही चले। पुडुचेरी, गोवा, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के मौजूदा मुख्यमंत्रियों की सादगी की भी मिसाल दी जाती है। 
 
खैर, हम चर्चा कर रहे हैं राहुल गांधी की जिन्होंने इस अफरा-तफरीभरे माहौल में जनता के साथ लाइन में खड़ा होकर उनके दर्द को समझने का प्रयास किया। निश्चित रूप से वर्ष 2016 की भारतीय सियासत में इस तरह की सादगी पेश करना वाकई अनूठा प्रतीत हो रहा है जिसे राहुल गांधी ने कर दिखाया है। इसके लिए जिसे जो कहना है कहे, पर राहुल गांधी की तारीफ वह जनता कर रही है, जो पूरे दिन बैंकों में लाइन लगाने के लिए दौड़ रही है। संभव है, राहुल गांधी की देखा-देखी कुछ सत्तारूढ़ दल के लोग भी जनता के साथ लाइन में खड़े होने की परिपाटी शुरू करें।
 
बहरहाल, हम यह कह सकते हैं कि इस बदले माहौल में राहुल गांधी ने सियासत में सादगी दिखाने की जो कोशिश की है, वह काबिल-ए-तारीफ है।

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