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सार्वजनिक स्थलों पर लैंगिक हिंसा

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सिद्धार्थ झा

कुछ सवाल अक्सर समाज के सामने चाहे-अनचाहे खड़े हो जाते हैं। कभी किसी खबर की शक्ल में या अपने आसपास महिलाओं के चिंताजनक हालात को देखकर बरबस अनेक सवाल हम सबके सामने मुंहबाएं खड़े हो जाते हैं कि क्या आजादी के 7 दशक बाद भी महिलाओं के प्रति हिंसा कम हुई है? क्या महिलाओं को समाज में समानता का अधिकार प्राप्त हो गया है? क्या महिलाओं को एक स्वतंत्र नागरिक का दर्जा मिल चुका है? क्या भूमंडलीकरण के दौर में भी पितृ-सत्तात्मक विचार कमजोर हुए हैं? क्या महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकार मिला है? आदि। 
 
लेकिन निश्चय ही कुछ समय बाद ये सवाल अप्रासंगिक हो जाते हैं, जब महिला दिवस या मातृ दिवस मनाते हैं, कोई महिला भारत को ओलंपिक में पदक दिलाती है या पाकिस्तान के खिलाफ जब भारतीय महिला क्रिकेट टीम की शानदार जीत होती है। लेकिन ध्यान रहे, ऐसी घटनाएं साल में चंद दिन होती हैं। हर तरफ सिर्फ उनकी बहादुरी का किस्सा होता और फिर उसके बाद सबकुछ भुला दिया जाता है। और इन सबके बीच गांव, देहात व शहरों में अपने आसपास देखें तो हर पल कोई न कोई नारी यौन अपराध का शिकार हो रही होती है। कभी इनमें शामिल वे लोग होते हैं जिनसे उनका वास्ता नहीं होता। 
 
लेकिन निम्न मानसिकता की कुंठित वासनाओं को हर पल झेलना उसकी किस्मत है और ज्यादातर मामलों में कोई नजदीकी पड़ोसी, चाचा, फूफा, भाई या सगा-सौतेला पिता होता है, जो उसे नारकीय जीवन जीने को मजबूर करता है। और ये ऐसे स्थलों पर होता है, जो अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जाता है। कभी उसके अपने घर में रिश्तों को तार-तार किया जाता है तो कभी कार्यस्थलों में उसको शर्मसार किया जाता है। 
 
कानूनों की कोई कमी नहीं है, एक ढूंढेंगे तो दस मिलेंगे। अगर ये सच है तो फिर ब्रिटिश पोलिंग काउंसलिंग संस्थान के हाल ही में किए हुए सर्वे को भी एक बार ध्यान से पढ़ना होगा जिसके आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 5 में से हर 4 भारतीय महिलाएं आज भी प्रतिदिन किसी न किसी रूप में सार्वजनिक स्थलों पर लैंगिक हिंसा का शिकार होती हैं जिनमें से 84 प्रतिशत ऐसी महिलाएं हैं जिनकी उम्र लगभग 25 से 35 साल है और इनमें से 82 प्रतिशत महिलाएं कामकाजी हैं जबकि बाकी सभी छात्राएं हैं।
 
अब सार्वजनिक स्थल की व्याख्या क्या है, इस पर विवाद की गुंजाइश नहीं। अक्सर मुझे दिल्ली मेट्रो में जाने का मौका मिलता है। हफ्ते में एक बार चीख-पुकार कानों को सुनने को मिल ही जाती है- 'भाई साब, थोड़ा दूर होकर खड़े हो जाओ' या उसने गलत जगह पर किसी लड़की को छूने की कोशिश की। महीने में एक-दो बार ऐसी घटना हो ही जाती है जबकि दिल्ली मेट्रो अन्य राज्यों के परिवहन साधनों के मुकाबले काफी सुरक्षित है।
 
लेकिन क्या ऐसा कभी-कभार होता है? मेरी इस बात पर क्या आपको यकीन करना चाहिए? पुरुष भले ही यकीन कर ले, लेकिन महिलाएं यकीन नहीं करेंगी, क्योंकि वे जानती हैं कि ये सच नहीं है। दिनभर में जाने कितनी ही बार उन्हें इस यंत्रणा से गुजरना पड़ता है लेकिन वे खामोशी से सह लेती हैं या खुद को भीड़ में समेटे रहती हैं। लेकिन 'अनचाही छुअन' से आखिर कितनी देर तक वे खुद को समेट सकती हैं, क्योंकि शोर मचाने के बाद भी भीड़ की गंदी मानसिकता का केंद्रबिंदु वही रहेंगी।

मैंने कई महिलाओं को अक्सर मेट्रो में चढ़ते-उतरते वक्त पीठ पर टांगने वाले बैग को सामने रखकर ढाल बनाकर अपनी रक्षा करते देखा है, क्योंकि वे जानती हैं कि मनचलों के हाथ कानून से ज्यादा लंबे हैं।
 
मगर इन सबके बीच जरा उन युवतियों की भी सुध लें, जो घर से स्कूल, कॉलेज या कार्यालय के लिए घर से बन-संवरकर निकलती हैं लेकिन रास्ते में कितनों की ही निगाहों से उनका बलात्कार होता है। शायद एक्स-रे मशीन को भी कुंठित मानसिकताओं के धनी लोगों की आंखें फेल कर देती होंगी। रही-सही कसर छिछोरी फिल्मों के डायलॉग पूरी कर देते हैं और उनके आसपास वो सभ्य समाज भी इन सब चीजों को देखता, सुनता व समझता है लेकिन चुप रहने में ही अपनी भलाई समझता है, क्योंकि वे उनके घर की कोई प्रताड़ित नहीं हो रही। 
 
अगर बात कार्यस्थलों की ही करें तो कार्यस्थल में महिलाओं के साथ होने वाली लैंगिक हिंसा को रोकने के लिए देश में 'महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध तथा प्रतिशोध) अधिनियम 2013' बनाया गया है। लेकिन क्या किसी रोज ऐसा होता है, जब ऐसी खबरें नहीं आती हैं? दिल्ली में 16 दिसंबर की रात निर्भया का बलात्कार किसी अंधेरे कोने में नहीं हुआ था बल्कि एक पॉश कहे जाने वाले इलाके से उठाकर चलती बस में गैंगरेप हुआ था। लेकिन इस घटना के इतने सालों बाद भी समाज में महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं किया जा सका है।
 
'रेप कैपिटल' का तमगा पा चुकी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के एक पॉश इलाके में पिछले ही दिनों एक 24 वर्षीय युवती के साथ बलात्कार किया गया। आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में हर रोज बलात्कार की 6 घटनाएं होती हैं लेकिन बलात्कार की ये घटनाएं सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित नहीं हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में भी एक 17 वर्षीय युवती को जबरदस्ती गाड़ी के अंदर खींचकर उसका यौन उत्पीड़न किया गया, वहीं आंध्रप्रदेश में भी पुलिस ने मानसिक रूप से विकलांग एक 14 साल की बच्ची के साथ दुष्कृत्य करने के आरोप में 2 लोगों को गिरफ्तार किया।
 
जब हम महिलाओं के खिलाफ हिंसा के बारे में सोचते हैं तो हम अक्सर पीड़ित या हमलावर के बारे में सोचते हैं। लेकिन जरूरी है कि लैंगिक हिंसा से व्यापक स्तर पर मुकाबला करने के लिए हमें पूरे समुदाय पर नजर डालनी होगी, क्योंकि ये ऐसी बुराई है, जो सीमाओं से परे है और सभी संस्कृतियों में मौजूद है सिर्फ दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों तक सीमित नहीं है। बिहार, झारखंड, ओडिशा के छोटे-छोटे गांव भी उससे प्रभावित हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो भला क्यों प्रधानमंत्री हर घर में शौचाल्य को नारी की अस्मिता और सुरक्षा से जोड़कर देखते।
 
भारत में बलात्कार अब भी एक सामाजिक समस्या है और यही कारण है कि जो महिलाएं इस तरह की हिंसा का शिकार भी होती हैं, वे इन मामलों की रिपोर्ट दर्ज कराने में भी संकोच महसूस करती हैं। लेकिन अब बड़े शहरों में महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल तैयार करने की मुहिम छेड़ी गई है। बलात्कार, यौन उत्पीड़न और महिलाओं के साथ होने वाले अपराध यही संकेत देते हैं कि भारत सुरक्षित नहीं है। 
 
राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2015 के दौरान देश में बलात्कार के 34,651 दर्ज किए गए लेकिन महिला सुरक्षा को लेकर काम कर रहे लोग इसे सही नहीं मानते। उनके मुताबिक बलात्कार के असल मामले इस आंकड़े से भी अधिक होंगे, लेकिन सुरक्षा की कमी और सामाजिक ताने-बाने के चलते कई बार महिलाएं सामने नहीं आतीं। आंकड़ों के मुताबिक उत्तरप्रदेश महिलाओं के लिए देश के सबसे असुरक्षित राज्यों में से एक है। महिलाओं के साथ होने वाले ज्यादातर अपराध उत्तरप्रदेश और राजस्थान में होते हैं अगर एनसीआरबी के रिपोर्ट्स को देखें, जो 2015 की स्थितियों को बताती हैं।
 
एक अनुमान के मुताबिक हर साल भारत में 1,000 से भी अधिक एसिड अटैक के मामले सामने आते हैं। इन सभी मामलों में पुरुष दोषी होते हैं और महिलाएं पीड़ित। 2014 के आंकड़े गवाही देते हैं कि भारत विश्व के उन 10 देशों में 8वें नंबर पर शुमार है, जहां महिलाओं की हालत बदतर है, क्योंकि हर 2 मिनट पर यहां महिलाओं के प्रति यौन अपराधों की रिपोर्ट दर्ज की जाती है। साल 2015 में ही 34,651 बलात्कार के मामले दर्ज हुए जिनमें से लगभग 95 प्रतिशत मामलों में किसी परिचित का हाथ था। 
 
लैंगिक अपराधों से निपटने के लिए 181 नंबर की टोल फ्री सेवा अभी देश के कई राज्यों में काम कर रही है लेकिन जमीनी हकीकत इससे कोसों दूर है। लैंगिक अपराध को समझना है तो आंकड़ों से बेहतर है कि हम खुद के नजरिये और व्यवहार का आत्ममंथन करें तो बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्नों का जवाब खुद मिल जाएगा।
 
जब आप घर से बाहर जा रही अपनी बहन, बीवी या बेटी से ढंग के कपड़े पहनने को कहते हों या उसे जहां जाना हो वहां खुद या घर के किसी अन्य जिम्मेदार आदमी को छोड़ने की गुजारिश करते हों, क्योंकि आपका ये नजरिया कहीं-न-कहीं आपकी पुरुषवादी मानसिकता को दर्शाता है, जो ये कहता है कि नारी आज भी कमजोर है और अपने फैसले लेने में आज भी अशक्त है। जब इस बात का एहसास हो जाए तो समझ लीजिएगा कि समाज में कहां कमी है और लैंगिक अपराधों के लिए जिम्मेदार कौन है?
 
सिद्धार्थ झा

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