लाओस, जहां सनातन हिन्दू धर्म मुख्य धर्म था, आज भी होती है शिवभक्ति
लाओस में भारतीय संस्कृति, रहस्यमय खजाना और मंदिरों के अवशेष : भाग 3
सदियों पूर्व संस्कृत लाओस की प्रमुख भाषा हुआ करती थी। हिन्दू और बौद्ध धर्म वहां एक समान प्रचलित और सम्मानित धर्म होते थे। शिवभक्ति वहां आज भी होती है, यह कहना है 60 अंतरराष्ट्रीय पुरातत्ववेत्ताओं के एक समूह का, जो वहां शोध कार्य कर रहा है।
प्रस्तुत है इस लेखमाला की तीसरी कड़ी...
लाओस का कुरुक्षेत्र : भारत में प्रसिद्ध है कि कौरवों और पाण्डवों ने कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए 'कुरुक्षेत्र' का युद्ध लड़ा था। कुरुक्षेत्र के साथ पौराणिक नदी सरस्वती का नाम भी जोड़ा जाता है। लाओस का कुरुक्षेत्र भी भारत की गंगा या सरस्वती के समान दक्षिण-पूर्वी एशिया की गंगा कहलाने वाली मेकांग नदी के तट पर बसा है। लाओस का 'कुरुक्षेत्रा' नगर आज भी है और आज भी उसका यही नाम है, लेकिन उसे देखकर कोई नहीं कहेगा कि वह कभी किसी बड़े राजा की राजधानी रहा होगा।
अंतरराष्ट्रीय पुरातत्वविदों ने अब तक की जानकारियों के आधार पर कभी राजा देवानिका की राजधानी रहे 'कुरुक्षेत्रा' की अवस्थिति और और उसके विस्तार का एक नक्शा तैयार किया। इस नक्शे के अनुसार यह शहर दक्षिण-पूर्वी एशिया में पहला आयताकार शहर था। 4 किलोमीटर लंबी एक खाई उसकी सुरक्षा करती थी। बाद में खमेर साम्राज्य की राजधानी अंगकोर के निर्माण में भी इसी उदाहरण को अपनाया गया। अत: हो सकता है कि 'नोंग हुआ थोंग' में मिले ख़ज़ाने की चीज़ें, किसी राजा द्वारा 'वाट फू' के मंदिर में इस्तेमाल के लिए, 'वाट फू' के स्थानीय कारीगरों ने ही बनाई हों!
'कुरुक्षेत्रा' में खुदाई : तय हुआ कि 'कुरुक्षेत्रा' में भी उत्खनन करके देखना चाहिए कि वहां क्या मिलता है। लेजर स्कैनिंग की 'लाइडर' तकनीक का उपयोग करते हुए 'कुरुक्षेत्रा' शहर के एक छोर पर की 4X4 मीटर ज़मीन को खोदा गया ताकि पता चले कि इस शहर की जनता का जीवन कैसा रहा होगा।
धैर्यपूर्ण लंबी और गहरी खुदाई करने के बाद उन्हें वहां कमल के फूल की पंखुड़ियों जैसी, हाथ से बनाई सुनहले रंग की बहुत ही कोमल छोटी-छोटी आकृतियां मिलीं। उनकी मोटाई एक मिलिमीटर से भी कम थी। वे अंगकोर शहर बनने से पहले की सोने की बनी कलावस्तुएं थीं। 'वाट फू' इलाके में ऐसा कुछ भी इससे पहले नहीं मिला था। बौद्ध धर्म में कमल शारीरिक, भाषाइक और आध्यात्मिक शुद्धता का परिचायक माना जाता है। भारत में भी उसका धार्मिक महत्व है।
अब तक की खोज का अर्थ यह लगाया गया कि उस प्राचीनकाल में बौद्ध और हिन्दू धर्म एक-दूसरे की अगल-बगल में, शांति और सौहार्दता के साथ फल-फूल रहे थे। ख़ज़ाने की मंजूषा पर बनी सजावटी आकृतियां भी यही कहती लगती हैं। लाओस के 'कुरुक्षेत्रा' में हुई इस खुदाई में यह भी देखने में आया कि कमल की पंखुड़ियों जैसी सुनहली आकृतियां प्राय: जली हुई मानवीय अस्थियों के छोटे-छोटे अवशेषों पर चिपकाई गई थीं। इसके पीछे कारण शायद यह रहा होगा कि दाह-संस्कार के बाद जो हड्डियां पूरी तरह जल नहीं जातीं, उन्हें इस स्थान पर आदरपूर्वक दफ़ना दिया जाता था।
उच्च वर्ग की ऊंची रहन-सहन : हर मृतक को नहीं, बल्कि राजाओं और उनके जैसे बड़े लोगों को ही ऐसा सम्मान मिलता रहा होगा। अनुमान है कि 'कुरुक्षेत्रा' में मिले ये अवशेष ईस्वी सन 450 के आस-पास के हैं। इसी समय को खमेर राजवंश का आरंभ काल माना जाता है। कमल की पंखुड़ियों-जैसी सोने की बनी पंखुड़ियों का मिलना इस बात का संकेत है कि उस समय के समाज के उच्चवर्ग के लोगों की रहन-सहन काफ़ी अच्छी रही होगी और सोना उनके लिए बहुत महत्व रखता रहा होगा। ऐसे अच्छे धातुकर्मी कारीगर भी रहे होंगे, जो सोने-चांदी के पारखी थे और उनसे तरह-तरह की अच्छी चीज़ें बना सकते थे।
सोने-चांदी जैसे खनिज पदार्थों के विश्लेषण से यह पता चल सकता था कि वे किस जगह से आए रहे होंगे और संभवत: यह भी कि चर्चित ख़ज़ाने वाली चीज़ें कहां बनी होंगी। खोजी टीम के धातु प्रकर्म विशेषज्ञ दाविद बुर्गरी प्राचीन धातु प्रकर्म तकनीकों के भी ज्ञाता हैं। उन्होंने पता लगाना तय किया कि ख़ज़ाने की सबसे अधिक बहुचर्चित सोने की मंजूषा बनाने में किस-किस तरह की धातुओं का उपयोग हुआ है।
स्वर्ण मंजूषा की शुद्धता : शुरू से ही यह माना जा रहा था कि पूरी मंजूषा शुद्ध सोने की बनी है, किंतु किसी वस्तु को बनाने में लगी धातुओं को पहचान सकने वाले एक्स-रे उपकरण ने दिखाया कि उसमें काफी मात्रा में चांदी का भी उपयोग हुआ है। सब कुछ शुद्ध सोना ही नहीं है। चांदी पर सोने की परत चढ़ाई गई है। मंजूषा का वज़न भी इतना अधिक नहीं था कि वह पूरी तरह सोने की ही बनी होती। तब भी वह इतनी सफ़ाई से बनी थी कि पूर्णत: सोने की ही बनी दिखती है। एशिया में चांदी कई जगह मिलती है, पर सोना बहुत दुर्लभ है।
सोने का पीला रंग भी हर जगह मिले सोने में एक जैसा ही नहीं होता। उसकी भी अगग-अलग रंगतें होती हैं। इन रंगतों से पता चल सकता है कि कौन-सा सोना कहां से आया होगा। 'कुरुक्षेत्रा' के एक बहुत अनुभवी स्थानीय सोनार ने मंजूषा को देखकर कहा कि उसका सोना लाओस के दक्षिणी अतापेउ प्रदेश से आया हो सकता है। अतापेउ प्रदेश, 'वाट फू' के मंदिरों से केवल 40 किलोमीटर ही दूर है। वहां आज भी सोना मिल जाता है। अत: हो सकता है कि 'नोंग हुआ थोंग' में मिले ख़ज़ाने की स्वर्ण मंजूषा और स्वर्ण केतली जैसी सोने की बनी कुछ चीज़ें, 'वाट फू' के मंदिरों में इस्तेमाल के लिए, अतापेउ प्रदेश से ही आई रही हों। उनकी बनावट और उनका रंग काफ़ी एक जैसा है।
वस्तुओं का धार्मिक उपयोग : ख़ज़ाने की वस्तुओं की जांच-परख में हर प्रगति के साथ यह अनुमान प्रबल होता दिखा कि इस ख़ज़ाने की सबसे अमूल्य वस्तुओं का उपयोग धार्मिक कार्यों के लिए किया जाता रहा होगा। दीप-दीयों को रखने के लिए बने सुनहरे बेल-बूटेदार स्तंभ, धार्मिक अवसरों पर 'वाट फू' के मंदिरों में उजाला फैलाने का काम करते रहे होंगे। 'वाट फू' का उसके मंदिरों और शिलालेखों के कारण खमेर जनता और शासकों के बीच हमेशा बहुत आदरणीय स्थान रहा है। यह समर्पण भाव 'कुरुक्षेत्रा' शहर की स्थापना से लेकर अंगकोर के दक्षिण में एक नई राजधानी बनने तक अक्षुण्ण रहा। खमेर शासकों की कई पीढ़ियां भी उसके प्रति समर्पित बनी रहीं।
पुरातत्वविदों को अपने उपकरणों की सहायता से सदियों पुराना 280 किलोमीटर लंबा एक ऐसा अब तक अज्ञात रास्ता भी मिला, जो अतापेउ से 'वाट फू' होता हुआ अंगकोर तक जाता है। ज़मीन पर खड़े होकर देखने पर वह अब नहीं दिखता जबकि पुरालेखों के अनुसार वह एक मुख्य व्यापारिक मार्ग हुआ करता था। इसी रास्ते से होकर अतापेउ का सोना अंगकोर तक पहुंचा करता था। लेजर किरण वाली 'लाइडर' स्कैनिंग से पता चला कि अतीत में कभी यह रास्ता 10 मीटर तक चौड़ी सड़क रहा है।
सनातन हिन्दू धर्म मुख्य धर्म था : पुरालेखों के अनुसार अतापेउ-अंगकोर मार्ग राजाओं-महाराजाओं के लिए बना था। इसी रास्ते से होकर वे 'वाट फू' आते-जाते थे। उस समय का सनातन हिन्दू धर्म खमेर राजाओं और जनता का मुख्य धर्म था और भगवान शिव सर्वोच्च पूजनीय देव। शिव को शिवलिंग के रूप में पूजा जाता था। 'वाट फू' के मंदिरों की पथरीली दीवरों पर पत्थरों को तराशकर हिन्दू देवी-देवताओं की वैसी ही मूर्तियां बनी हुई हैं, जैसी हम भारत के प्राचीन मंदिरों और अजंता-एलोरा की गुफाओं में पाते हैं।
लाओस के पुरालेखों में यह भी लिखा मिलता है कि राजा देवानिका शिव-भक्त थे। बहुत दूर से 'वाट फू' के मंदिरों में पूजा के लिए आते थे, क्योंकि उन्होंने इन मंदिरों के पास के पहाड़ की शिवलिंग जैसी चोटी के बारे में सुन रखा था। यानी वे शायद पहाड़ की चोटी पर भी जाते थे। चोटी की अंतिम 18 मीटर ऊंची चट्टान दूर से शिवलिंग जैसी ही दिखती है। 'वाट फू' को ही खमेर साम्राज्य का सबसे पवित्र धर्म स्थान माना जाता था। उसकी धार्मिक ख्याति तब भी बनी रही, जब राजा देवानिका और उनके बाद की कई पीढ़ियां भी इस दुनिया में नहीं रहीं।
राजाओं ने हिन्दू मंदिर बनवाए : अब लाओस नहीं, बल्कि कंबोडिया में पड़ने वाले अंगकोर वाट के मंदिरों की एक पथरीली दीवार पर सदियों पहले का वह दृश्य उकेरा मिलता है, जब अंगकोर राज्य के राजा पूरे लाव-लश्कर के साथ 280 किलोमीटर दूर के 'वाट फू' मंदिरों में जाया करते थे। घोड़े, सैनिक और पुजारी ही नहीं, उस समय की रानियां, राजकुमारियां और दासियां भी इस धर्म-यात्रा का अंग होती थीं। इन मंदिरों में से कुछ को उन राजाओं ने बनवाया था जिन्होंने 12वीं सदी में अपने यहां यानी आज के कंबोडिया में जगप्रसिद्ध अंगकोर वाट मंदिरों का निर्माण कार्य शुरू किया था।
जहां तक 'नोंग हुआ थोंग' में मिले ख़ज़ाने का प्रश्न है तो उस खज़ाने की सामग्रियों के गहन अध्ययन से यही संकेत मिला कि वे किसी राजा द्वारा शंकर भगवान के अपने चहेते मंदिर को चढ़ावे के तौर पर दी गई मुख्यत: पूजा-पाठ की सामग्रियां हैं। उनमें से कुछ पर उकेरे गए शब्द यही कहते हैं।
शिवलिंगरूपी शिव की भक्ति : खमेर काल की पौराणिक कथाओं में शंकर भगवान और पानी को बहुत महत्व दिया गया है। शिव-पूजा वहां भी शिवलिंग के रूप में होती थी। शिवलिंग को भारत में भी दूध और पानी ही समर्पित किया जाता है। कथित ख़ज़ाने की सामग्रियां संभवत: 'वाट फू' के मंदिरों के लिए थीं। 'वाट फू' का मुख्य मंदिर शिव को ही समर्पित है। मंदिर-संकुल 1400 मीटर ऊंचे 'फु काओ' नाम के जिस पहाड़ की तलहटी में स्थित है। संकुल के पास से देखने पर उस पहाड़ की चोटी आज भी न केवल शिवलिंग जैसी दिखती है, बल्कि पहाड़ पर से नीचे गिरते जलप्रपात की एक धारा भी शिव मंदिर में शिवलिंग को सतत नहलाते हुए बहती है। शायद इसी कारण 'वाट फू' आज भी लाओसवासियों का एक लोकप्रिय तीर्थस्थान बना हुआ है।
अंतरराष्ट्रीय पुरातत्वविदों की एक छोटी टीम ने 'फु काओ' पहाड़ की चोटी पर जाने और यह पता लगाने का निर्णय किया कि क्या वहां अब भी अतीत के कोई निशान मिल सकते हैं? यह पहाड़ लाओस में आज भी एक पवित्र पहाड़ माना जाता है। उसकी 1400 मीटर ऊंची चोटी तक पहुंचने में 2 दिन लग जाते हैं। ऊपर जाने के लिए कोई सड़क या पगडंडी नहीं है। चढ़ाई के दौरान किसी दुर्घटना से बचने के लिए कई कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है।
पहाड़ के शिखर पर शिवलिंग : पूरा पहाड़ अपनी चोटी तक घने जंगलों के पेड़-पौधों से ढंका हुआ है। टीम को पहाड़ की चोटी पर सचमुच पत्थर का तराशा ठीक वैसा ही एक शिवलिंग मिला, जो योनि के बीच उसी तरह बना हुआ है, जैसा हम भारत के मंदिरों में पाते हैं। टीम ने उसे तराशने की शैली को अंगकोर काल से पहले की बताया। वह जिस हालत में है, उसे देखकर इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि लाओस के अनिगनत लोग आज भी सारे कष्ट उठाकर इस शिवलिंग के वाकई दर्शन करने जाते होंगे।
टीम के साथ वहां तक गए लाओसी सहयोगियों ने हाथ जोड़कर और नतमस्तक होकर पहाड़ के शिखर पर के शिवलिंग के प्रति उसी प्रकार सम्मान प्रकट किया, जैसा भारत के हर मंदिर में देखने में आता है। पहाड़ के अंतिम शिखर से केवल 18 मीटर नीचे होने के कारण वहां जगह बहुत छोटी है, इसलिए शिवलिंग बिलकुल खुली जगह पर है। कोई घर-दीवार नहीं है। उसके ठीक पीछे चोटी वाली 18 मीटर ऊंची चट्टान है जिस पर बौद्ध धर्म का प्रतीक 'जीवन चक्र' उकेरा हुआ है।
लाओस में सनातनी संस्कृति अब भी जीवंत है : अब तक की खोज से यह तो पूरी तरह सिद्ध नहीं होता कि 'नोंग हुआ थोंग' नाम के गांव में ज़मीन के नीचे गाड़कर छिपाया गया सोने-चांदी की अमूल्य कला वस्तुओं वाला ख़ज़ाना वहां कब, कहां से और कैसे वहां पहुंचा? क्या वह 'वाट फू' के मंदिरों से ही आया था या किसी राजा ने ही उसे 'वाट फू' के शिव मंदिर को भेंट किया था? तब भी जो कुछ सामने आया है, वह इस दृष्टि से बहुत ही रोचक है कि भारतीय सनातनी हिन्दू संस्कृति दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में आज भी कितनी जीवंत है।
वहां बौद्ध और हिन्दू धर्म एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं, पर्यायवाची और परिपूरक हैं। लोग भारत की इस दोहरी प्राचीन देन पर गर्व करते हैं। दूसरी ओर भारत है, जहां हिन्दू अपने आप को हिन्दू कहने से प्राय: कतराता है। किसी हिन्दू में सहज-स्वाभाविक 'हिन्दुत्व' (हिन्दूपन/Hindutwa) होना एक निंदनीय राजनीतिक अपराध बन गया है जबकि हिन्दी-संस्कृत का 'त्व' प्रत्यय शब्दों को सकारात्मक यानी अच्छे गुणों वाला न कि नकारात्मक यानी बुरे अर्थ वाला बनाता है। स्वत्व, अपनत्व, देवत्व, मातृत्व, स्त्रीत्व, पितृत्व, पुंसत्व, बालकत्व, कृतित्व, बंधुत्व इत्यादि क्या नकारात्मक गुणों के सूचक हैं?
अंतरराष्ट्रीय पुरातत्वविद् लाओस पर केंद्रित अपनी वर्तमान चंपा (CHAMPA) परियोजना का काम 2025 में आगे बढ़ाएंगे। दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में भारतीय संस्कृत की जड़ें खोजने में उनकी अदम्य रुचि से पहली बार भारत ने भी एक शिक्षा ली है। एक समझौते के अधीन भारत का सरकारी पुरातात्विक सर्वे विभाग (ASI) 'वाट फू' के मंदिरों के जीर्णोद्धार में लाओस की सहायता करेगा।