Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

राजनेताओं का शग़ल बन गया दंगे कराना

हमें फॉलो करें राजनेताओं का शग़ल बन गया दंगे कराना
webdunia

विभूति शर्मा

यह वोट बैंक की राजनीति का ही दुष्परिणाम है कि भारत की सामाजिक सद्भाव की व्यवस्था आज छिन्न भिन्न होकर वैमनस्यता की सीमाएं लांघ रही है। दलितों द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति कानून में सुधार के सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले के विरुद्ध बुलाए बंद के दौरान हुई हिंसा इसी वैमनस्य का उदाहरण है। इस हिंसा ने 1989 में वीपी सिंह सरकार द्वारा यह कानून बनाए जाने के समय हुई हिंसा की याद ताज़ा कर दी। तब भी ऐसी ही हिंसा हुई थी और कई युवाओं ने अपनी आहुति देने के प्रयास किए थे।


आज सरकार चला रही भारतीय जनता पार्टी तब भी सरकार में शामिल थी। इसलिए यह आरोप तो स्वमेव ही गलत साबित हो जाता है कि सरकार दलित विरोधी है। इसका एक और सबूत यह है कि वर्तमान सरकार में अब तक के सबसे ज्यादा दलित सांसद है। भाजपा का दावा तो यह भी है कि देश में सर्वाधिक दलित विधायक भी उसी की पार्टी के हैं। तो फिर क्या कारण है कि दलित अचानक इतने उग्र हुए, इसके मूल में निश्चित ही राजनीतिक दलों द्वारा अपनी रोटियां सेकना है।

भाजपा के बढ़ते प्रभुत्व को रोकने की मंशा से विपक्षी दलों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले में अपने लिए आशा की एक किरण नजर आई और उन्होंने दलित आंदोलन को भरपूर हवा दी। आखिर अदालत ने ऐसा क्या भीषण बदलाव किया कि लोग यकायक उबल पड़े। कोर्ट ने सिर्फ यही कहा कि एससी/एसटी एक्ट के तहत तत्काल गिरफ़्तारी न की जाकर जांच की जाए फिर कार्रवाई हो।

यह सर्व विदित है कि कठोर कानूनों का दुरुपयोग काफी बढ़ गया है। दहेज़, बलात्कार और महिला उत्पीड़न आदि कानूनों में भी ऐसा होने की शिकायतें लगातार मिल रही हैं। इसलिए एससी/एसटी एक्ट समेत इन सभी कानूनों की समीक्षा किए जाने की जरूरत है। लेकिन राजनीतिक दल वोट बैंक के कारण ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। विपक्ष के साथ भाजपा भी इस डर से ग्रसित है।

अगले लोकसभा चुनाव के मुहाने पर आकर कोई भी पार्टी किसी भी जाति की नाराजी मोल नहीं लेना चाहती। बाबा साहेब आम्बेडकर के नेतृत्व में जब भारतीय संविधान बना था और उसे 1950 में लागू किया गया था तब बाबा साहेब ने स्वयं कहा था कि सामाजिक और आर्थिक आजादी के लिए आने वाली सरकारों को काफी काम करना होगा। सरकारों ने काम किया भी, लेकिन सामाजिक वैमनस्य को बढ़ावा ज्यादा दिया।

भाजपा के हिंदुत्ववादी रुख से निबटने के लिए कांग्रेस ने प्रो-मुस्लिम नीति अपनाई, तो जयप्रकाश आंदोलन के बाद के नेताओं ने अपनी अपनी जाति के माध्यम से राजनीति चमकाने का रास्ता अपनाया और आर्थिक तथा गरीबी हटाओ का नारा पीछे छूट गया। यहीं से समाज का बंटवारा होता गया और वैमनस्यता बढ़ती गई। अब देश में राष्ट्रीय हित में आंदोलन होते नजर नहीं आते। अन्ना हजारे का आंदोलन विफल रहना इसका ताज़ा उदाहरण है। अब आंदोलन होते हैं जश्न के हित के लिए।

कभी गुर्जरों का आंदोलन, कभी पटेलों का आंदोलन, तो कभी करणी सेना का आंदोलन और अब यह दलित आंदोलन। सवाल यह है कि इस वैमनस्यता से जनता को तबाही के सिवाय क्या हासिल होता है? वह यह समझने को क्यों तैयार नहीं है कि इस तबाही का बोझ आख़िरकार उसे ही उठाना पड़ता है। सरकारी करों के रूप में. राजनीतिक पार्टियां तो अपनी रोटियां सेककर और तिजोरियां भरकर मज़े करती रहेंगी। बेहतर होगा कि लोग राजनेताओं की मंशा को समझें और वैमनस्यता की इस जड़ को काट फेकें। सामाजिक सद्भाव में ही आर्थिक उन्नति का मूल है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

एससी/एसटी एक्ट आख़िर है क्या?